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Ghazal Ka Shor
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Anout Book

प्रस्तुत किताब रेख़्ता नुमाइन्दा कलाम’ सिलसिले के तहत प्रकाशित प्रसिद्ध उर्दू शाइर ज़फर इक़बाल का ताज़ा काव्य-संग्रह है| ज़फर इक़बाल शाइरी आधुनिकतावादी शाइरी है और ग़ज़ल की एक नई शैली स्थापित करने के लिए जानी जाती है| जफर इकबाल की शाइरी प्रेम को अलौकिक के बजाय भौतिक और वैज्ञानिक के रूप में स्थापित करती है। उन्हें एक नए लहजे और नई अवधारणा के कवि के रूप में जाना जाता है। उन्होंने क्लासिकी ग़ज़ल की मिट्टी को अपनी रचनात्मक प्रतिभा के चाक पर चढ़ा कर, अभिव्यक्ति और तकनीक के नए साँचे बनाए और एक नए भाव-संसार की संभावनाओं की ख़बर दी। यह किताब देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है| 

 

About Author

ज़फ़र इक़बाल का जन्म 1933 को लाहोर के शहर ओकाड़ा में हुआ। ज़फ़र इक़बाल आधुनिकतावादी उर्दू शाइ’री में, ग़ज़लकारी की एक नई शैली और परंपरा स्थापित करने वाले प्रमुखतम शाइ’र हैं, जिन्होंने ग़ज़ल को एक चुनौती के तौर पर धारण किया और इस आग के दरिया में से और भी रौशन हो कर निकले। उन्होंने क्लासिकी ग़ज़ल की मिट्टी को अपनी रचनात्मक प्रतिभा के चाक पर चढ़ा कर, अभिव्यक्ति और तकनीक के नए साँचे बनाए और एक नए भाव-संसार की संभावनाओं की ख़बर दी। भाषा की सरहदें फैलाने के प्रयत्न किए। शब्दों को उनके शब्दकोषीय और परिचित अर्थों से हटा कर, नए और अप्रत्याशित संदर्भों में साक्रिय करके एक नया अर्थ-बोध हासिल करने की कोशिश भी उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है। ज़फ़र इक़बाल की एक बड़ी उपलब्धि ये भी है कि तमामतर प्रयोगवादी नएपन के बावजूद उनके शे’र कभी बेमज़ा नहीं होते और बार बार एक नए आश्चर्य-जगत की सैर कराते हैं।

 

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फ़ेह्रिस्त

1 मुझे तेरी न तुझे मेरी ख़बर जाएगी
2 परियों ऐसा रूप है जिसका लड़कों ऐसा नाँव
3 यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
4 ख़ुशी मिली तो ये आ’लम था बद-हवासी का
5 जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
6 सुख़न-सराई तमाशा है शे’र बन्दर है
7 उसकी हर तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पे नज़र रखती है
8 उसे मन्ज़ूर नहीं छोड़ झगड़ता क्या है
9 बस एक बार किसी ने गले लगाया था
10 नक़ाब-ए-ग़म से न अब्र-ए-निशात से निकला
11 मिला तो मन्ज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
12 माना गुल-ओ-गुलज़ार पे रा’नाई वही है
13 खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
14 तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
15 वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
16 मैं भी शरीक-ए-मर्ग हूँ मर मेरे सामने
17 ग़ज़ल का शोर है अन्दर पुराना
18 दरिया-ए-तुन्द-मौज को सहरा बताइए
19 तस्वीर-ए-बाग़-ओ-मन्ज़र-ए-दरिया उलट गया
20 उल्टे-पुल्टे हिन्दिसे देते रहे दुहाइयाँ
21 कैसी हार थी कैसी जीत और क्या छग्गी पर सत्ता
22 शाइ’र वही शाइ’रों में अच्छा
23 फूटा उदास जिस्म से मौसम बहार का
24 टूटते पत्तों का मौसम हर तरफ़ छाया हुआ
25 रंगों का तमन्नाई न सौदाई हूँ रस का
26 कुछ इतनी दूर से दी वह्म ने सदा मुझको
27 पकड़ा गया मैं ज़ौक़-ए-तमाशा के ज़ोर में
28 दू-ब-दू आ कर लड़ेगा जिस घड़ी जानेंगे हम
29 मुझे क़ह्र था मैं बरसता रहा
30 अन्धा-धुन्द अन्दाज़ अंदरे अंदर
31 मैं यूँ तो नहीं है कि मोहब्बत में नहीं था
32 अब के उस बज़्म में कुछ अपना पता भी देना
33 तोड़ डालीं सब हदें और मस्अला हल कर दिया
34 यारी है वही वही बलप्पा
35 मैंने पूछा था है कोई स्कोप
36 हमें भी मत्लब-ओ-मा’नी की जुस्तुजू है बहुत
37 और तो कुछ है आज काम न काज
38 सुन ले बस एक बात सितमगर किसी तरह
39 न चमकी उस बदन की धूप दम भर
40 यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं
41 हद हो चुकी है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
42 शामिल-ए-अ’र्ज़-ए-हुनर करके रियाकारी को
43 आग दो दिन में हो गई ठंडी
44 अभी तो करना पड़ेगा सफ़र दुबारा मुझे
45 एक ही नक़्श है जितना भी जहाँ रह जाए
46 क़ाफ़िया चाहिए खाने के लिए
47 यूँ तो किस चीज़ की कमी है
48 कोई किनाया कहीं और बात करते हुए
49 चमकती वुसअ’तों में जो गुल-ए-सहरा खिला है
50 चलो इतनी तो आसानी रहेगी


ग़ज़ल


 

1

मुझे तेरी न तुझे मेरी ख़बर जाएगी

द अब के भी दबे पाँव गुज़र जाएगी

 

पौ फटे आएगा इक यास1 का झोंका जिस से

पत्ती पत्ती गुल--हसरत2 की बिखर जाएगी

1 निराशा 2 ख़्वाहिश के फूल

 

सुर्ख़1 सूरज की लचकती हुई नौख़ेज़2 किरन

तेग़3 बन कर मिरे पहलू में उतर जाएगी

1 लाल 2 नई 3 तल्वार

 

सोचती आँखो में फिर तेरे तसव्वुर की परी

दिल-बदस्त1 आएगी और ख़ाक-बसर2 जाएगी

1 हाथों में दिल लिए 2 बर्बाद

 

गलियों बाज़ारों में दर आएँगे खिलते चेहरे

पर मिरे दिल की कली दर्द से भर जाएगी

 

(शाइरी संग्रहः आब--रवाँ)


 

2

परियों ऐसा रूप है जिसका लड़कों ऐसा नाँव

सारे धंदे छोड़-छाड़ के चलिए उसके गाँव

 

पक्की सड़कों वाले शह्र में किससे मिलने जाएँ

हौले से भी पाँव पड़े तो बज उठती है खड़ाँव

 

आते हैं खुलता दरवाज़ा देख के रुक जाते हैं

दिल पर नक़्श बिठा जाते हैं यही ठिठकते पाँव

 

प्यासा कव्वा जंगल के चश्मे में डूब मरा

दीवाना कर देती है पेड़ों की महकती छाँव

 

अभी नई बाज़ी होगी फिर से पत्ता डालेंगे

कोई बात नहीं जो हार गए हैं पहला दाँव

 

(शाइरी संग्रहः आब--रवाँ)


 

3

यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब--आरज़ू1 न मिला

किसी को हम न मिले और हमको तू न मिला

1 इच्छा के अनुरूप

 

ग़ज़ाल--अश्क1 सर--सुब्ह2 दूब--मिज़्गाँ3 पर

कब आँख अपनी खुली और लहू लहू न मिला

1 आँसुओं के हिरन 2 प्रातः 3 पलकों पर उगी दूब

 

चमकते चाँद भी थे शह्--शब1 के ऐवाँ2 में

निगार--ग़म3 सा मगर कोई शम्अ’-रू4 न मिला

1 रात का शह् 2 महल 3 दुख की हसीना 4 रौशन चेहरे वाला

 

उन्हीं की रम्ज़1 चली है गली गली में यहाँ

जिन्हें उधर से कभी इज़्न--गुफ़्तुगू2 न मिला

1 राज़, दिल का भेद 2 बात करने का हुक्म

 

फिर आज मय-कदा--दिल से लौट आए हैं

फिर आज हमको ठिकाने का हम-सबू1 न मिला

1 साथ पीने वाला

 

(शाइरी संग्रहः आब--रवाँ)


 

4

ख़ुशी मिली तो ये आलम1 था बद-हवासी का

कि ध्यान ही न रहा ग़म की बे-लिबासी का

1 हाल

 

चमक उठे हैं जो दिल के कलस यहाँ से अभी

गुज़र हुआ है ख़यालों की देव-दासी का

 

गुज़र न जा युँही रुख़ फेर कर सलाम तो ले

हमें तो देर से दावा है रू-शनासी1 का

1 शक्ल पहचानना

 

ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा

कोई इलाज नहीं आज की उदासी का

 

गिरे पड़े हुए पत्तों में शह्र ढूँडता है

जीब तौर है इस जंगलों के बासी का

 

(शाइरी संग्रहः आब--रवाँ)


 

5

जहाँ निगार--सहर1 पैरहन2 उतारती है

वहीं पे रात सितारों का खेल हारती है

1 सुब्ह की हसीना 2 लिबास

 

शब--विसाल1 तिरे दिल के साथ लग कर भी

मिरी लुटी हुई दुनिया तुझे पुकारती है

1 मिलन की रात

 

उफ़ुक़ से फूटते महताब की महक जैसे

सुकून--बह्1 में इक लह्र सी उभारती है

1 समुन्दर का सुकून

 

दर--उमीद1 से हो कर निकलने लगता हूँ

तो यास रौज़न--ज़िन्दाँ2 से आँख मारती है

1 उमीद का दरवाज़ा 2 क़ैदख़ाने की दीवार का सुराख़

 

जहाँ से कुछ न मिले हुस्न--माज़रत1 के सिवा

ये आरज़ू उसी चौखट पे शब गुज़ारती है

1 सलीक़े से मनाकरना

 

जो एक जिस्म जलाती है बर्क़--अब्--ख़याल1

तो लाख ज़ंग-ज़दा2 आइने निखारती है

1 ख़याल के बादलों में चमकती बिजली 2 ज़ंग लगे हुए

 

(शाइरी संग्रहः आब--रवाँ)


 

6

सुख़न-सराई1 तमाशा है शेर बन्दर है

शिकम की मार है शाइर नहीं मछन्दर है

1 शाइरी

 

है जुस्तुजू कभी अपना भी अक्स--रुख़1 देखूँ

तिरी तलाश नहीं तू तो मेरे अन्दर है

1 चेहरे का प्रतिबिंब

 

कहीं छुपाए से छुपती है बेहिसी दिल की

हज़ार कहते फिरें मस्त है क़लन्दर है

 

मज़े की बात है उसको भजन सिखाते हैं

जो ख़ुद ही मूरती है और ख़ुद ही मंदर है

 

जज़ीरा--जोहला1 में घिरा हुआ हूँज़फ़र

निकल के जाऊँ कहाँ चार सू समुन्दर है

1 अज्ञानियों का द्वीप

 

(शाइरी संग्रहः आब--रवाँ)


 

 

 

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Pramod Kumar Pandey

Maine aapse Ghazal ka Shor kitab magai thi jo ki samay par mil gai thi. Kitab La jawab hai aur rekhta ka to main aashiq hun janab. Hum jaise kam Urdu janne walon ke liye to rekhta vardan hai. Main aapka shukrguzar hun.
Pramod Kumar Pandey
Bareilly (UP)

r
rahul tyagi
Ghazal Ka Shor

awesome

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