फ़ेह्रिस्त
ग़ज़लें
1 मैं अपने अ’ज़ाब लिख रही थी
2 लड़कियाँ माओं जैसे मुक़द्दर क्यों रखती हैं
3 कैसा ख़ज़ाना ये तो ज़ाद-ए-सफ़र नहीं रखती
4 ख़ुश्बू सन्दल और न गहना दुख देगा
5 जिन्हें कि उ’म्र भर सुहाग की दुआ’एँ दी गईं
6 ताक़ में कौन रख गया एक दिया और एक फूल
7 अपनी आग को ज़िन्दा रखना कितना मुश्किल है
8 बस एक फ़स्ल दर्मियान रह गई
9 अन्दर से टूटी-फूटी हूँ
10 मैं बहुत टूट चुकी हूँ वो समेटे आकर
11 दिल को कभी-कभी जाने क्या होने लगता है
12 दीवारों पर साए से लहराते थे
13 कुसुम के फूल मिरे घर में वो लगा ही गया
14 हाथ मेरे हैं न पत्थर मेरे
15 दिल है या मेले में खोया हुआ बच्चा कोई
16 मैंने इक हर्फ़ से आगे कभी सोचा ही न था
17 जाने क्या आसेब था पत्थर आते थे
18 एक चराग़ जला रखना
19 वो हर्फ़ था न सितारा मगर चमकता था
20 ये नहीं ग़म कि मैं पाबन्द-ए-ग़म-ए-दौराँ थी
21 ये नाज़ुक सी मिरे अन्दर की लड़की
22 अब्र के साथ हवा रक़्स में है
23 अ’दावतें नसीब हो के रह गईं
24 उजले चेहरे ख़्वाबों वाले
25 आँसुओं के रेले में
26 झाड़ी झरना झील कंवल
27 भूक की कड़वाहट से सर्द कसीले होंठ
28 मीठी नर्म सजीली धूप
29 सब्ज़ छतों पर खिलने वाले पीले फूल
30 साईं मेरे खेतों पर भी रुत हरियाली भेजो नाँ
31 कपास चुनते हुए हाथ कितने प्यारे लगे
32 वहशत सी वहशत होती है
33 लम्हों की तरह मिलना उसका सदियों की ...
34 खिड़की में लहराते तन्हा ज़र्द गुलाबों जैसे दिन
35 यूँही किसी के ध्यान में अपने आप में गाती दोपहरें
36 ख़ून-ए-नाहक़ की तरह गलियों में जब बहती है रात
37 धूप दीवारों से जब बातें करे
38 ख़्वाब में कल ये ख़्वाब आया है
39 हमें ये कैसी तस्वीरें दिखाई जा रही हैं
40 हवाएँ जब घंटियाँ बजाएँ तो लौट आना
41 वो आज रात भी ख़ल्वत-सरा में आया नहीं
42 दिल ने इक जश्न मनाया कल रात
43 बिस्तर धूल और ख़ुश्बू वही पुरानी है
44 पानी में छप-छय्या करती शोर मचाती शाम
45 पुराने मुहल्ले का वीरान आँगन
46 दिल की शीरीनी बातों में होती थी
1
मैं अपने अ’ज़ाब1 लिख रही थी
ज़ख़्मों का हिसाब लिख रही थी
1 यातना, कष्ट
फूलों की ज़बाँ की शाइ’रः थी
काँटों से गुलाब लिख रही थी
उस पेड़ के खोखले तने पर
इक उ’म्र के ख़्वाब लिख रही थी
आँखों से सवाल पढ़ रही थी
पलकों से जवाब लिख रही थी
हर बूँद शिकस्ता1 बाम-ओ-दर2 पर
बारिश का इ’ताब3 लिख रही थी
1 टूटा हुआ / टूटी हुई, ख़राब, फटा हुआ 2 घर की छत और दरवाज़े 3 प्रकोप
इक नस्ल के ख़्वाब के लहू से
इक नस्ल के ख़्वाब लिख रही थी
फूलों में ढली हुई ये लड़की
पत्थर पे किताब लिख रही थी
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
2
लड़कियाँ माओं जैसे मुक़द्दर1 क्यों रखती हैं
तन सहरा2 और आँख समुन्दर क्यों रखती हैं
1 भाग्य 2 वीराना
औ’रतें अपने दुख की विरासत किसको देंगी
सन्दूक़ों में बन्द ये ज़ेवर क्यों रखती हैं
वो जो आप ही पूजी जाने के लायक़ थीं
चम्पा सी पोरों में पत्थर क्यों रखती हैं
वो जो रही हैं ख़ाली पेट और नंगे पाँवों
बचा-बचा कर सर की चादर क्यों रखती हैं
बन्द हवेली में जो सानिहे1 हो जाते हैं
उनकी ख़बर दीवारें अक्सर क्यों रखती हैं
1 दुरघटना
सुब्ह-ए-विसाल1 की किरनें हमसे पूछ रही हैं
रातें अपने हाथ में ख़न्जर क्यों रखती हैं
1 मिलन की सुब्ह
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
3
कैसा ख़ज़ाना ये तो ज़ाद-ए-सफ़र1 नहीं रखती
ख़ाना-ब-दोश2 मोहब्बत कोई घर नहीं रखती
1 सफ़र का सामान 2 बेघर-बार
यादों के बिस्तर पर तेरी ख़ुश्बू काढ़ूँ
इसके सिवा तो और मैं कोइ हुनर नहीं रखती
कोई भी आवाज़ उसकी आहट नहीं होती
कोई भी ख़ुश्बू उसका पैकर1 नहीं रखती
1 आकृति
मैं जंगल हूँ और अपनी तन्हाई पर ख़ुश
मेरी जड़ें ज़मीन में हैं कोई डर नहीं रखती
वो जो लौट भी आया तो क्या दान करूँगी
मैं तो उसके नाम का इक ज़ेवर नहीं रखती
‘मीरा’ माँ मिरी आग को कोई गुन नहीं आया
उस मूरत को राम करूँ ये हुनर नहीं रखती
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
4
ख़ुश्बू सन्दल और न गहना दुख देगा
इक जैसा दुख सहते रहना दुख देगा
डरती क्यों है आँखें तेरी अच्छी हैं
लेकिन उनका चुपचुप बहना दुख देगा
जो हम दोनों ने मिल-जुल कर झेले थे
वो दुख तेरा तन्हा सहना दुख देगा
जिसने हमको आँगन-आँगन बाँट दिया
अब तो उस दीवार का ढहना दुख देगा
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
5
जिन्हें कि उ’म्र भर सुहाग की दुआ’एँ दी गईं
सुना है अपनी चूड़ियाँ ही पीस कर वो पी गईं
बहुत है ये रिवायतों1 का ज़ह्र सारी उ’म्र को
जो तल्ख़ियाँ2 हमारे आँचलों में बाँध दी गईं
1 परंपराओं 2 कड़वाहटें
कभी न ऐसी फ़स्ल मेरे गाँव में हुई कि जब
कुसुम के बदले चुनरियाँ गुलाब से रंगी गईं
वो जिनके पैरहन1 की ख़ुश्बुएँ हवा पे क़र्ज़ थीं
रुतों की वो उदास शाहज़ादियाँ चली गईं
1 लिबास
उन उँगलियों काे चूमना भी बिदअ’तें1 शुमार हो
वो जिनसे ख़ाक2 पर नुमू3 की आयतें4 लिखी गईं
1 धर्म-विरोधी नई बात 2 मिट्टी 3 विकास, उगना, बढ़ना 4 निशानियाँ
सरों का ये लगान अब के फ़स्ल कौन ले गया
ये किसकी खेतियाँ थीं और किसको सौंप दी गईं
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
6
ताक़ में कौन रख गया एक दिया और एक फूल
ध्यान में फिर से जल उठा एक दिया और एक फूल
मेरे तुम्हारे दर्मियाँ क़त्रः-ए-अश्क1 राएगाँ2
पिछली रुतों का सानिहा3 एक दिया और एक फूल
1 आँसू की बूँद 2 व्यर्थ 3 दुर्घटना
ख़्वाब ही ख़्वाब में कटी उ’म्र तमाम जल-बुझी
तेरा कहा मिरा सुना एक दिया और एक फूल
शाम-ए-फ़िराक़1 की क़सम और तो कुछ न पास था
तेरे लिए बचा लिया एक दिया और एक फूल
1 विरह की शाम
बाम-ए-मुराद1 तक मिरे हाथ न जा सके मगर
देर तलक जला किया एक दिया और एक फूल
1 मनोकामना की ऊँचाई
तेरी उदास आँख से मेरे ख़मोश होंठ तक
हर्फ़-ए-विसाल1 क्या हुआ एक दिया और एक फूल
1 मिलन का शब्द
जश्न की रात जब तिरे नाम पे लोग चुप से थे
मैंने युँही उठा लिया एक दिया और एक फूल
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
7
अपनी आग को ज़िन्दा रखना कितना मुश्किल है
पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है
कितना आसाँ है तस्वीर बनाना औरों की
ख़ुद को पस-ए-आईना1 रखना कितना मुश्किल है
1 आईने के पीछे
आँगन से दहलीज़ तलक जब रस्ता सदियों का
जोगी तुझको ठहरा रखना कितना मुश्किल है
दोपहरों के ज़र्द1 किवाड़ों की ज़न्जीर से पूछ
यादों को आवारा रखना कितना मुश्किल है
1 पीला / पीली
चुल्लू में हो दर्द का दरिया ध्यान में उसके होंठ
यूँ भी ख़ुद को प्यासा रखना कितना मुश्किल है
तुमने मा’बद1 देखे होंगे ये आँगन है यहाँ
एक चराग़ भी जलता रखना कितना मुश्किल है
1 पूजा स्थल
दासी जाने टूटे-फूटे गीतों का ये दान
समय के चरनों में ला रखना कितना मुश्किल है
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)
8
बस एक फ़स्ल दर्मियान रह गई
ज़मीन ज़ेर-ए-आस्मान1 रह गई
1 आस्मान के नीचे
वो ख़्वाब-साअ’तें1 कि मेरे घर में जब
शब-ए-विसाल मेहमान रह गईं
1 स्वप्न-क्षण 2 मिलन की रात
मिरे वजूद पर तिरी पलक-पलक
झुकी मिसाल-ए-साइबान रह गई
हवा के हाथ में दुआ’ का तीर था
लरज़1 के एक पल कमान रह गई
1 कपकपाना
मिरा वजूद1 था कि शह्र-ए-ख़ामुशी
सजी-सजाई हर दुकान रह गई
1 अस्तित्व
कड़ा सफ़र था हिज्र1 से विसाल2 तक
जहाँ कि लज़्ज़त-ए-गुमान3 रह गई
1 विरह 2 मिलन 3 भ्रमित होने का मज़ा
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(स्रोत : कुन्ज पीले फूलों का, 1985)