1
माता का अंचल
जहाँ लड़कों का संग, तहाँ बाजे मृदंग जहाँ बुड्ढों का संग, तहाँ खरचे का तंग
हमारे पिता तड़के उठकर, निबट-नहाकर पूजा करने बैठ जाते थे। हम बचपन से ही उनके अंग लग गये थे। माता से केवल दूध पीने तक का नाता था। इसलिए पिता के साथ ही हम भी बाहर की बैठक में ही सोया करते। वह अपने साथ ही हमें भी उठाते और साथ ही नहला-धुलाकर पूजा पर बिठा लेते। हम भभूत का तिलक लगा देने के लिए उनको दिक करने लगते थे। कुछ हँसकर, कुछ झुंझलाकर और कुछ डाँटकर वह हमारे चौड़े ललाट में त्रिपुंड कर देते थे। हमारे ललाट में भभूत खूब खुलती थी। सिर में लम्बी-लम्बी जटाएँ थीं। भभूत रमाने से हम खासे 'बम-भोला' बन जाते थे।
पिताजी हमें बड़े प्यार से 'भोलानाथ' कहकर पुकारा करते। पर असल में हमारा नाम था 'तारकेश्वरनाथ'। हम भी उनको 'बाबूजी' कहकर पुकारा करते और माता को 'मइयाँ'।
जब बाबूजी रामायण का पाठ करते तब हम उनकी बगल में बैठे-बैठे आइने में अपना मुँह निहारा करते थे। जब वह हमारी ओर देखते तब हम कुछ लजाकर और मुस्कुराकर आइना नीचे रख देते थे। वह भी मुस्कुरा पड़ते थे।
पूजा-पाठ कर चुकने के बाद वह राम-नाम लिखने लगते। अपनी एक 'रामनामा बही' पर हजार राम-नाम लिखकर वह उसे पाठ करने बैठ जाते थे।
बम संकर, दुश्मन को तंग कर, आमद बढ़ाकर खरचे को कम कर
फिर रात को खाकर सोने से पहले भी गाँजे का दम मारता था।तब भी जोर से चिल्लाकर कहता था-
अगड़ बम अलख, जगा दो सारा खलक । खोल दो पलक, दिखा दो दुनिया की झलक । बम संकर टन गनेस, नगद माल भेजो हर हमेस । जो न पीये गाँजे की कली, उस लड़के से लड़की भली
3
ननिहाल का दाना-पानी
जो नहि जाय कबौ ननिऔरा । सो गदहा हो या गोबरौरा ।
'माता के अंचल' से निकलकर दूसरे दिन तड़के जब हम बाबूजी के पास आए, तब उन्होंने आते ही कहा, "पहले कान पकड़कर उठो-बैठो। कल तुमने बड़ी बदमाशी की है। अगर आज से फिर कभी उन आवारा लड़कों के साथ गए, तो दोनों कान गरम करके कनपटों में चार-चार चपत धर दूँगा। कान धरकर मेरे सामने कहो कि 'बाबूजी, अब गुरुजी की पाठशाला के सिवा कहीं न जाऊँगा, हमेशा आपके साथ रहूँगा।' आज से यह कहकर अगर कान ऐंठ लो, तो इस समय तुम्हारी जान छूट जाए। नहीं तो यहाँ भी कनेठी लगाकर चपत जमाऊँगा, और गुरुजी के यहाँ भी छड़ी से पीठ की पूजा होगी।"
हम खम्भे से लिपटकर खड़े थे, चुपचाप नखों से खम्भे का रंग खरोंच रहे थे। बाबूजी ने सटक पीते-पीते फिर जोर से डाँटते हुए कहा, "बोलते क्यों नहीं? क्या मुँह में घाव हुआ है? जल्दी बोलो; नहीं तो अब मेरा हाथ छूटना ही चाहता है। हाथ छोड़ दूँगा, तो फिर रोते-रोते तुम्हारी हालत खराब हो जाएगी।"
तरह आटा-दाल का भाव मालूम हो जाता। अच्छा, अब अगर फिर लोग बमकेंगे, तो मँझले चाचा का लोहबन्ना निकालूँगा, चूल्हे के दुआर तक खदेड़-खदेड़ कर खबर लूँगा। अभी उनलोगों को किसी टेढ़े से काम ही नहीं पड़ा है। समझते हैं कि दुनिया में हमलोग सिकन्दर बादशाह हैं! यह नहीं जानते कि दुनिया में हाथी के पैर से दबने पर चींटी भी जोर-भर काटे बिना नहीं मानती। बला से खाने को कुछ न बचेगा, इस साल की सारी चैती बेचकर खेल खेला दूँगा।
यह आखिरी बात सोच रहा था कि किसी राही ने बड़े जोर से छींका। बेचारा अचानक चौंक उठा; पर भावी की तो कुछ खबर थी ही नहीं, घर की ओर ताबड़तोड़ पैर बढ़ाता चला गया।
थोड़ा दिन चढ़ते-चढ़ते घर पहुँचा। गाँववालों की आँखें बचाकर चमरटोली की गली से अपने घर में घुसा। स्त्रियाँ रो रही थीं। उसे आँगन में खड़ा देख और भी छाती पीटने लगीं। पूछने लगीं। जब उसे खलिहान के जलकर खाक हो जाने की बात मालूम हुई, तब ढाड़ मारकर आँगन के बीच में थस-से बैठ गया।
8
पाँड़ेजी का प्रपंच
झूठे लेना झूठे देना, झूठे भोजन झूठे चबेना
कामरू-कमच्छा के बहाने से चारों धाम की यात्रा के लिए निकले हुए पाँड़ेजी,
अपना असल मतलब गाँठकर घर आ गये। तीर्थयात्रा से लौट आने पर बाबू रामटहल सिंह
की बुढ़िया माता से पाँड़ेजी कहने लगे- "कामरू-कमच्छा जाकर पूजा-पाठ और तंत्र-मंत्र
कराने के लिए जो हजार रुपये मिले थे, वह तो जाने-आने, खाने-पीने और पूजा-पाठ में कौड़ी-कौड़ी खर्च हो गये।
बैजनाथजी पहुँचने पर एक अपने"