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‘तुम्हारे ख़मीर में तेज़ाबियत कुछ ज़्यादा है।’ किसी ने इस्मत आप से कहा था। तेजाबियत यानी कि कुछ तीखा, तुर्श और नरम दिलों को चुभनेवाला। उनकी यह विशेषता इस किताब में संकलित गद्य में अपने पूरे तेवर के साथ दिखाई देती है। ‘कहानी’ शीर्षक से उन्होंने बतौर विधा कहानी के सफ़र के बारे में अपने ख़ास अन्दाज़ में लिखा है जिसे यहाँ किताब की भूमिका के रूप में रखा गया है।
‘बम्बई से भोपाल तक’ एक रिपोर्ताज है, ‘फ़सादात और अदब’ मुल्क के बँटवारे के वक़्त लिखा गया उर्दू साहित्य पर केन्द्रित और ‘किधर जाएँ’ अपने समय की आलोचना से सम्बन्धित आलेख हैं। श्रेष्ठ उर्दू गद्य के नमूने पेश करते ये आलेख इस्मत चुग़ताई के विचार-पक्ष को बेहद सफ़ाई और मज़बूती से रखते हैं। मसलन मुहब्बत के बारे में छात्राओं के सवाल पर उनका जवाब देखिए—‘एक इसम की ज़रूरत है, जैसे भूख और प्यास। अगर वह जिंसी ज़रूरत है तो उसके लिए गहरे कुएँ खोदना हिमाक़त है। बहती गंगा में भी होंट टार किए जा सकते हैं। रहा दोस्ती और हमख़याली की बिना पर मुहब्बत का दारोमदार तो इस मुल्क की हवा उसके लिए साज़गार नहीं।’
किताब में शामिल बाक़ी रचनाओं में भी कहानीपन के साथ संस्मरण और विचार का मिला-जुला रसायन है जो एक साथ उनके सामाजिक सरोकारों, घर से लेकर साहित्य और देश की मुश्किलों पर उनकी साफ़गो राय के बहाने उनके तेज़ाबी ख़मीर के अनेक नमूने पेश करता है। एक टुकड़ा ‘पौम-पौम डार्लिंग’ से, यह आलेख क़ुर्रतुल ऐन हैदर की समीक्षा के तौर पर उन्होंने लिखा था जिसे जनता और जनता के साहित्य की सामाजिकता पर एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ के रूप में पढ़ा जा सकता है। हैदर साहिबा के पात्रों पर उनका कहना था—‘लड़कियों और लड़कों के जमघट होते हैं, मगर एक क़िस्म की बेहिसी तारी रहती है। हसीनाएँ बिलकुल थोक के माल की तरह परखती और परखी जाती हैं। मानो ताँबे की पतीलियाँ ख़रीदी जा रही हों।’ ‘tumhare khamir mein tezabiyat kuchh zyada hai. ’ kisi ne ismat aap se kaha tha. Tejabiyat yani ki kuchh tikha, tursh aur naram dilon ko chubhnevala. Unki ye visheshta is kitab mein sanklit gadya mein apne pure tevar ke saath dikhai deti hai. ‘kahani’ shirshak se unhonne bataur vidha kahani ke safar ke bare mein apne khas andaz mein likha hai jise yahan kitab ki bhumika ke rup mein rakha gaya hai. ‘bambii se bhopal tak’ ek riportaj hai, ‘fasadat aur adab’ mulk ke bantvare ke vaqt likha gaya urdu sahitya par kendrit aur ‘kidhar jayen’ apne samay ki aalochna se sambandhit aalekh hain. Shreshth urdu gadya ke namune pesh karte ye aalekh ismat chugtai ke vichar-paksh ko behad safai aur mazbuti se rakhte hain. Maslan muhabbat ke bare mein chhatraon ke saval par unka javab dekhiye—‘ek isam ki zarurat hai, jaise bhukh aur pyas. Agar vah jinsi zarurat hai to uske liye gahre kuen khodna himaqat hai. Bahti ganga mein bhi hont taar kiye ja sakte hain. Raha dosti aur hamakhyali ki bina par muhabbat ka daromdar to is mulk ki hava uske liye sazgar nahin. ’
Kitab mein shamil baqi rachnaon mein bhi kahanipan ke saath sansmran aur vichar ka mila-jula rasayan hai jo ek saath unke samajik sarokaron, ghar se lekar sahitya aur desh ki mushkilon par unki safgo raay ke bahane unke tezabi khamir ke anek namune pesh karta hai. Ek tukda ‘paum-paum darling’ se, ye aalekh qurrtul ain haidar ki samiksha ke taur par unhonne likha tha jise janta aur janta ke sahitya ki samajikta par ek mahattvpurn dastavez ke rup mein padha ja sakta hai. Haidar sahiba ke patron par unka kahna tha—‘ladakiyon aur ladkon ke jamghat hote hain, magar ek qism ki behisi tari rahti hai. Hasinayen bilkul thok ke maal ki tarah parakhti aur parkhi jati hain. Mano tanbe ki patiliyan kharidi ja rahi hon. ’

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अनुक्रम

कहानी

1. फ़सादात और अदब - 17 

2. किधर जाएँ - 30 

3. बहू बेटियाँ - 40 

4. चौथी का जोड़ा - 49 

5. कैंडल कोर्ट - 62 

6. पौम- पौम डार्लिंग - 71 

7. जड़ें - 84 

8. सोने का अंडा - 93 

9. कच्चे धागे - 98 

10. ये बच्चे - 105 

11. लाल चिउंटे - 110 

12. छुई-मुई - 121 

 रिपोर्ताज़

1. बम्बई से भोपाल तक - 129

 

फ़सादात और अदब
फ़सादात का सैलाब अपनी पूरी ख़बासतों' के साथ आया और चला गया मगर
अपने पीछे ज़िन्दा - मुर्दा और सिसकती हुई लाशों के अम्बार छोड़ गया
मुल्क के ही दो टुकड़े नहीं हुए, जिस्मों और ज़ेहनों का भी बँटवारा हो गया कट्रें
बिखर गईं और इंसानियत की धज्जियाँ उड़ गईं। गवर्नमेन्ट के अफ़सर, दफ़्तरों के
क्लर्क मा' मेज़, कुर्सी, क़लम, दवात और रजिस्टरों के माले - ग़नीमत की तरह
बाँट दिए गए और जो कुछ इस बँटवारे के बाद बचे, उन पर फ़सादात ने दस्ते-
शफ़्कत फेर दिया। जिनके जिस्म सालिम रह गए उनके दिलों के हिस्से-बखरे
हो गए। एक भाई हिन्दोस्तान के हिस्से में आया तो दूसरा पाकिस्तान के। माँ
हिन्दोस्तान में है तो औलाद पाकिस्तान में मियाँ हिन्दोस्तान में तो बीवी पाकिस्तान
में। ख़ानदानों का शीराज़ा बिखर गया। ज़िन्दगी के बन्धन तार-तार हो गए। यहाँ
तक कि बहुत-से जिस्म तो हिन्दोस्तान में रह गए और रूह पाकिस्तान चल दी।
फ़सादात और आज़ादी कुछ इस तरह गडमड होकर वारिद हुए कि ये क़ियास '
लगाना दुश्वार हो गया कि कौन-सी आज़ादी, आज़ादी है और कौन-सा फ़साद
लिहाज़ा जिसके हिस्से में आज़ादी आई, फ़साद आगे-पीछे लाई एक बार ही
तूफ़ान कुछ इस तरह बेकहे- सुने वारिद' हुआ कि लोग बिस्तर - बोरिया भी
समेट सके। पर जब ठंडक पड़ी तो जुम्ला हवास' जमा करके चारों तरफ़ देखने
का मौका मिला।
जब ज़िन्दगी का कोना-कोना इस भूचाल की इनायत से तलपट हो चुका
था तो ये कैसे मुमकिन था कि शायर और अदीब अलग-थलग बैठे रहते,
ज़िन्दगी ख़ून में गल्ताँ हो गई तो फिर अदब जिसका ज़िन्दगी से चोली-दामन का
रिश्ता हो, कहाँ तक तर दामनी" से बच सकता था। लिहाज़ा हिज्रो-विसाल
के झगड़े भूल-भालकर लोग हड्डी-पसली के बचाव की फ़िक्र में पड़ गए
शैतान के चेलों के अन्दाज़ वह दो-चार हाथ अन्दाज़े- माशूक़ाना से भी आगे
चौथी का जोड़ा
सिंह-दूरी' के चौके पर आज फिर साफ-सुथरी जाजिम बिछी थी। टूटी-फूटी
खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े-तिरछे क़त्ले' पूरे दालान में बिखरे हुए
थे। मुहल्ले-टोले की औरतें ख़ामोश और सहमी हुई-सी बैठी हुई थीं, जैसे कोई बड़ी
वारदात होने वाली हो। माँओं ने बच्चे छातियों से लगा लिए थे। कभी-कभी कोई
मुनह्नी-सा चिड़चिड़ा बच्चा रसद' की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता
"नाई नाईं मेरे लाल " दुबली-पतली माँ उसे अपने घुटने पर लिटाकर यों
हिलाती, जैसे धान मिले चावल सूप में फटक रही हो, और बच्चा हुँकारे भरकर
ख़ामोश हो जाता।
आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की माँ के मुतफ़क्किर चेहरे को तक
रही थीं। छोटे अर्ज़ की टोल के दो पाट तो जोड़ लिए गए थे, मगर अभी सफ़ेद गज़ी
का निशान ब्योंतने की किसी को हिम्मत पड़ी थी काट-छाँट के मुआमले में
कुबरा की माँ का रुत्वा बहुत ऊँचा था उनके सूखे-सूखे हाथों ने जाने कितने
जहेज़ सँवारे थे, कितने छटी-छोछक तैयार किए थे और कितने ही कफ़न ब्योंते थे
जहाँ कहीं मुहल्ले में कपड़ा कम पड़ जाता, और लाख जतन पर भी ब्योंत बैठती,
कुबरा की माँ के पास केस लाया जाता, कुबरा की माँ कपड़े की कान निकालतीं,
कलफ़ तोड़तीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूँटा करतीं और दिल - ही - दिल में
कैंची चलाकर आँखों से नाप-तौल कर मुस्कुरा पड़तीं
'आस्तीन और घेर तो निकल आएगा। गिरेबान के लिए कत्तर मेरी बुक्ची से
ले लो, और मुश्किल आसान हो जाती। कपड़ा तराशकर वह कतरनों की पिंडी
बनाकर पकड़ा देती। पर आज तो सफ़ेद गज़ी का टुकड़ा बहुत ही छोटा था, और
सबको यक़ीन था कि आज तो कुबरा की माँ की नाप-तौल हार जाएगी, जब ही तो
सब दम साधे उनका मुँह तक रही थीं कुबरा की माँ के पुर इस्तिक्लाल' चेहरे पर
फ़िक्र की कोई शक्ल थी चार गिरह गज़ी के टुकड़े को दो निगाहों से ब्योंत रही

 

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