अनुक्रम
कहानी
1. फ़सादात और अदब - 17
2. किधर जाएँ - 30
3. बहू बेटियाँ - 40
4. चौथी का जोड़ा - 49
5. कैंडल कोर्ट - 62
6. पौम- पौम डार्लिंग - 71
7. जड़ें - 84
8. सोने का अंडा - 93
9. कच्चे धागे - 98
10. ये बच्चे - 105
11. लाल चिउंटे - 110
12. छुई-मुई - 121
रिपोर्ताज़
1. बम्बई से भोपाल तक - 129
फ़सादात और अदब
फ़सादात का सैलाब अपनी पूरी ख़बासतों' के साथ आया और चला गया मगर
अपने पीछे ज़िन्दा - मुर्दा और सिसकती हुई लाशों के अम्बार छोड़ गया ।
मुल्क के ही दो टुकड़े नहीं हुए, जिस्मों और ज़ेहनों का भी बँटवारा हो गया । कट्रें
बिखर गईं और इंसानियत की धज्जियाँ उड़ गईं। गवर्नमेन्ट के अफ़सर, दफ़्तरों के
क्लर्क मा' मेज़, कुर्सी, क़लम, दवात और रजिस्टरों के माले - ग़नीमत की तरह
बाँट दिए गए और जो कुछ इस बँटवारे के बाद बचे, उन पर फ़सादात ने दस्ते-
शफ़्कत फेर दिया। जिनके जिस्म सालिम रह गए उनके दिलों के हिस्से-बखरे
हो गए। एक भाई हिन्दोस्तान के हिस्से में आया तो दूसरा पाकिस्तान के। माँ
हिन्दोस्तान में है तो औलाद पाकिस्तान में । मियाँ हिन्दोस्तान में तो बीवी पाकिस्तान
में। ख़ानदानों का शीराज़ा बिखर गया। ज़िन्दगी के बन्धन तार-तार हो गए। यहाँ
तक कि बहुत-से जिस्म तो हिन्दोस्तान में रह गए और रूह पाकिस्तान चल दी।
फ़सादात और आज़ादी कुछ इस तरह गडमड होकर वारिद हुए कि ये क़ियास '
लगाना दुश्वार हो गया कि कौन-सी आज़ादी, आज़ादी है और कौन-सा फ़साद ।
लिहाज़ा जिसके हिस्से में आज़ादी आई, फ़साद आगे-पीछे लाई । एक बार ही
तूफ़ान कुछ इस तरह बेकहे- सुने वारिद' हुआ कि लोग बिस्तर - बोरिया भी न
समेट सके। पर जब ठंडक पड़ी तो जुम्ला हवास' जमा करके चारों तरफ़ देखने
का मौका मिला।
जब ज़िन्दगी का कोना-कोना इस भूचाल की इनायत से तलपट हो चुका
था तो ये कैसे मुमकिन था कि शायर और अदीब अलग-थलग बैठे रहते,
ज़िन्दगी ख़ून में गल्ताँ हो गई तो फिर अदब जिसका ज़िन्दगी से चोली-दामन का
रिश्ता हो, कहाँ तक तर दामनी" से बच सकता था। लिहाज़ा हिज्रो-विसाल
के झगड़े भूल-भालकर लोग हड्डी-पसली के बचाव की फ़िक्र में पड़ गए ।
शैतान के चेलों के अन्दाज़ वह दो-चार हाथ अन्दाज़े- माशूक़ाना से भी आगे
चौथी का जोड़ा
सिंह-दूरी' के चौके पर आज फिर साफ-सुथरी जाजिम बिछी थी। टूटी-फूटी
खपरैल की झिर्रियों में से धूप के आड़े-तिरछे क़त्ले' पूरे दालान में बिखरे हुए
थे। मुहल्ले-टोले की औरतें ख़ामोश और सहमी हुई-सी बैठी हुई थीं, जैसे कोई बड़ी
वारदात होने वाली हो। माँओं ने बच्चे छातियों से लगा लिए थे। कभी-कभी कोई
मुनह्नी-सा चिड़चिड़ा बच्चा रसद' की कमी की दुहाई देकर चिल्ला उठता ।
"नाई नाईं मेरे लाल ।" दुबली-पतली माँ उसे अपने घुटने पर लिटाकर यों
हिलाती, जैसे धान मिले चावल सूप में फटक रही हो, और बच्चा हुँकारे भरकर
ख़ामोश हो जाता।
आज कितनी आस भरी निगाहें कुबरा की माँ के मुतफ़क्किर चेहरे को तक
रही थीं। छोटे अर्ज़ की टोल के दो पाट तो जोड़ लिए गए थे, मगर अभी सफ़ेद गज़ी
का निशान ब्योंतने की किसी को हिम्मत न पड़ी थी । काट-छाँट के मुआमले में
कुबरा की माँ का रुत्वा बहुत ऊँचा था । उनके सूखे-सूखे हाथों ने न जाने कितने
जहेज़ सँवारे थे, कितने छटी-छोछक तैयार किए थे और कितने ही कफ़न ब्योंते थे ।
जहाँ कहीं मुहल्ले में कपड़ा कम पड़ जाता, और लाख जतन पर भी ब्योंत न बैठती,
कुबरा की माँ के पास केस लाया जाता, कुबरा की माँ कपड़े की कान निकालतीं,
कलफ़ तोड़तीं, कभी तिकोन बनातीं, कभी चौखूँटा करतीं और दिल - ही - दिल में
कैंची चलाकर आँखों से नाप-तौल कर मुस्कुरा पड़तीं ।
'आस्तीन और घेर तो निकल आएगा। गिरेबान के लिए कत्तर मेरी बुक्ची से
ले लो,” और मुश्किल आसान हो जाती। कपड़ा तराशकर वह कतरनों की पिंडी
बनाकर पकड़ा देती। पर आज तो सफ़ेद गज़ी का टुकड़ा बहुत ही छोटा था, और
सबको यक़ीन था कि आज तो कुबरा की माँ की नाप-तौल हार जाएगी, जब ही तो
सब दम साधे उनका मुँह तक रही थीं । कुबरा की माँ के पुर इस्तिक्लाल' चेहरे पर
फ़िक्र की कोई शक्ल न थी । चार गिरह गज़ी के टुकड़े को दो निगाहों से ब्योंत रही