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प्रस्तुत संग्रह में संकलित कविताएँ समय-समय पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। मैंने कुछ का न्यूनाधिक पुनर्लेखन भी किया है। शीर्षक एक रूपक है, एक अन्योक्ति में कही गयी लक्षणा शब्द-शक्ति के सहारे, मूल समस्या सांकेतिक रूप में व्यक्त करने की कोशिश की गयी है, और इतना भी स्पष्ट करने की आवश्यकता तब अनुभव की है, जब मराठी के युवा चिन्तक डॉ. नितीन गायकवाड़ ने शीर्षक के ध्वन्यार्थ में मुझे कुछ कमी महसूस करायी है।
जहाँ तक 'भोर के अँधेरे में' शीर्षक की सोच का प्रश्न है इसे में दो विरोधाभाषी स्थितियों में अथवा पूरक तत्त्वों के रूप में पाता हूँ। मसलन गरीबी अमीरी, अछूत-ब्राह्मण, आजादी-गुलामी, श्वेत अश्वेत, सब प्रकार का सर्वाधिक अन्धकार दलित के हिस्से आया है। दलित और गैर-दलित में भाईचारा नहीं है। यहाँ सुख-दुख में साझेदारी भी नहीं है, अतिभक्षण की अपच से मरने वाला भी यहाँ भूख से मरते अपने दलित देशवन्धु के हिस्से का निवाला साझा कर उसके प्राण बचाने को तैयार नहीं है। बेशक कुछ अँधेरे गैर-दलितों के हिस्से भी आये हैं, पर ये तो असन्तुलन से, असंवेदनशीलता से और असहिष्णुता के कारण आये हैं। दुनिया को मानव-निर्मित अँधेरों, दुखों, विद्वेषों और कलहों से बाहर ले जाने के लिए रचनात्मकता और सकारात्मक स्पर्धा वाली व्यवस्था अपेक्षित है। साम्राज्यवादी देशों ने जो अपने भीतर न्यायोचित प्रगति के रास्ते निकाले हैं, उनसे सीखा जा सकता है। अमरीका, चीन या ब्रिटेन भारत जैसे देशों का शोषण करते रहे हैं। हमारा देश उनकी विस्तारवादी नीतियों का शिकार होता रहा है। परन्तु वे अपने आपमें कैसे सशक्त, उन्नत और आत्मनिर्भर हो गये हैं। क्यों? उनके यहाँ अस्पृश्यता-जन्य ग़रीबी नहीं है? क्यों उनके वहाँ निरक्षरों और बेरोज़गारों की फौज नहीं है? क्यों उनके यहाँ जात्याभिमान और जातिहीनता बोध जैसी स्थितियाँ नहीं हैं? कैसे अमरीका ने रंगभेद-नस्लभेद जैसी भयंकर समस्याओं का समाधान कर लिया है? कैसे वहाँ काले-गोरे मिलकर रचनात्मक कार्यों में लग गये हैं? चीन ने आबादी के विस्फोट को रचनात्मक चमत्कार कर हमारे जैसे देशों को अपने उत्पादन की अधिकता के अधीन कर लिया है।

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