Bhasha Ka Sansaar
Item Weight | 300GM |
ISBN | 978-8181436733 |
Author | Prof. Dilip Singh |
Language | Hindi |
Publisher | Vani Prakashan |
Pages | 179 |
Book Type | Hardbound |
Dimensions | 5.30"x8.50" |
Publishing year | 2011 |
Edition | 2nd |

Bhasha Ka Sansaar
भाषा एक साथ बहुत कुछ है-वह संप्रेषण की एक बहुमुखी व्यवस्था है, सोचने-विचारने का माध्यम है, सर्जनात्मक अथवा साहित्यिक अभिव्यक्ति का कलात्मक साधन है, एक सामाजिक संस्था है, राजनैतिक विवाद का सर्वकालिक मुद्दा है तो किसी देश को एकता के सूत्र में बाँघने और उसके विकास का ज़रिया भी है। कोई भी सामान्य व्यक्ति कम-से-कम एक भाषा में बातचीत करने की क्षमता तो रखता ही है। भाषा के अभाव में कोई भी सामाजिक या बौद्धिक विमर्श संभव हो सकता है, इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अतः एक सामाजिक मनुष्य होने के नाते हम में से प्रत्येक को यह जानना चाहिए कि भाषा किस तरह संगठित होती है, किस तरह किसी भाषा-समुदाय के लोग उसका प्रयोग करते हैं दूसरी भाषा के रूप में उसे सीखने वाले किस तरह द्विभाषिक ही नहीं, द्वि-सांस्कृतिक भी बनते हैं और कैसे वह प्रयोग के संदर्भ, स्थिति और विषय के अनुरूप अपनी संरचना अथवा अभिव्यक्ति प्रणाली में भेद (स्ट्रैटिफिकेशन) पैदा कर लेती है।
आधुनिक भाषाविज्ञान आज मानव भाषा की इन समस्त गतिविधियों को अपनी अध्ययन-परिधि में समेट चुका है। आज वह पहला प्रश्न यह करता है कि मानव भाषा क्या है? और उसे जानने का अर्थ क्या है?इन दोनों प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए सबसे पहले उन स्रोतों और भाषा विकास की प्रक्रियाओं को जानना ज़रूरी है जिन्हें कोई भाषा अपने मातृभाषा प्रयोक्ता को उपलब्ध कराती है। उस प्रयोक्ता को जो बचपन से भाषा का अधिगम अपने प्राकृतिक परिवेश में करता है। मनुष्य के विचारों का वैविध्य और उसके अनुभवों की अनेकानेक छवियाँ भी भाषा की संरचना तथा उसे जानने के विस्तार को प्रभावित करते हैं। भाषा किसी एक विषय, भाव अथवा विचार तक सीमित नहीं होती। उसका संप्रेषण तंत्र असीमित और सामाजिक संरचना की भाँति वैविध्यपूर्ण होता है। इसीलिए संप्रेषण के एकमात्र और व्यापक साधन के रूप में भाषा किसी 'संदेश' को एक बने-बनाए या निर्धारित साँचे में बाँध कर प्रस्तुत करने का यत्न नहीं करती, वह एक ही सदेश को भिन्न-भिन्न प्रकार से व्यक्त करने वाली प्रणाली को अपनाती है। वह अपने प्रयोक्ता में यह योग्यता पैदा करती है कि वह नए से नए शब्दों, पदबंधों और वाक्यों को अपनी ज़रूरत के मुताबिक समझ और ज़रूरत पड़ने पर रच भी सके। संक्षेप में कहें तो मानव भाषा अनंत सीमाओं तक सर्जनात्मक होती है-नव्यता के नए-नए संरचनात्मक संयोगों की वह ईजाद करती रहती है क्योंकि उसे नये अनुभवों, नई परिस्थितियों तथा नवीन विचारों के अनुरूप अपने को ढालना पड़ता है। इस प्रकार भाषा, निरंतर विकास की प्रक्रिया का नाम है।
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