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Bhartiya Rajniti Mein Media Ki Bhumika
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भारतीय राजनीति में मीडिया की भूमिका : राजनीतिक सत्ता केंद्रों ने सामाजिक शक्ति केन्द्रों को पीछे ढकेलकर धीरे-धीरे आर्थिक केन्द्रों को या कारपारेट्स को सब कुछ सौंप दिया। इसलिए राजनीति और मीडिया दोनों में नए मूल्य विकसि��� हुए। एक ऐसा वर्ग अचानक प्रभावशाली बनकर आ गया, जिनमें सामाजिक सरोकारों का बेहद अभाव था। धीरे-धीरे भारतीय मीडिया भी स्वाधीनता आंदोलन के अपने इतिहास, परम्परा और मूल्यों से हट गई। इसलिए राजनीति में ईमानदार, पारदर्शी नेतृत्व और मीडिया की विश्वसनीयता पर बड़ा प्रश्न चिह्न लग गया और यही आज के दौर की सबसे बडी चुनौती है। प्रिन्ट मीडिया के बाद जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विदेशी पूंजी के प्रवेश का दौर आया था, तब उसे एक बड़े परिवर्तन के रूप में देखा गया था। अब धीरे-धीरे भारत के लगभग सभी बड़े उद्योग समूहो और अनेक राजनीतिक प्रतिष्ठानों ने अपने-अपने चैनल स्थापित कर लिए है।हर राजनीतिक दल यही चाहता है कि मीडिया से उसके रिश्ते खराब न हों। हर सियासी दल में इसलिए प्रवक्ता होते हैं, जो कि पार्टीगत जानकारी और पार्टी के एजेन्डे को मीडिया के जरिए उस जनता तक पहुंचा सके। प्रेस अपने कर्त्तव्य से किस हद तक जुड़ा है। इस पेशे से जुड़े लोगों को अपनी आचार संहिता के कर्त्तव्य पालन करने के बारे में जानना जरुरी है। आजादी से पहले भारत में स्वतंत्र प्रेस की मांग ज्यादा थी, जिसके लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। ब्रिटिश सरकार की प्रेस की स्वतंत्रता विरोधी नीतियों के चलते भारतीय पत्रकारों, संपादकों तथा समाचार पत्रों का संघर्ष काफी सराहनीय और प्रेरक रहा। भारत में स्थायी प्रेस की आवश्यकता पर बल देते हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, 8216;व्यापक अर्थों में समाचार पत्र की स्वतंत्रता केवल एक नारा नहीं है बल्कि जनतांत्रिक प्रक्रिया की आवश्यकता है। मैं दबे हुए समाचार पत्रों के बजाय स्वतंत्रता के दुरुपयोग के सभी खतरों से युक्त पूर्णत: समाचार पत्र की अवधारण पसंद करूंगा।8217; राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने लिखा है कि 8216;यदि मैं आस्था के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ रहूँ तो क्रोध में या द्वेष में आकर कुछ भी नहीं लिखूँगा। मैं यह नहीं चाहूँगा कि लिखते समय मै�� सिर्फ भावनाओं में बह जाऊँ। व्यक्ति से बड़ा समाज है, सरकार से बड़ा देश है, मनुष्य मरणशील है, संस्था और सिद्धान्त अमर हैं।8217;किसी भी द्वंद्वात्मक प्रजातंत्र में मुद्दे पहचानना, उन पर जनमानस को शिक्षित करना और इस प्रक्रिया से उभरे जनभावना के द्वारा सिस्टम पर दबाव डालना प्रजातंत्र की गुणवत्ता के लिए बेहद जरूरी होता है। सोशल मीडिया इस कार्य को बेहतर ढंग से कर रहा है। सोशल मीडिया नागरिक पत्रकार के साथ-साथ जन आवाज का सशक्त माध्यम बनता जा रहा है। सोशल मीडिया के दौर में सच्चाई को छुपा पाना मुमकिन नहीं है। पुस्तक में लेखकों ने राजनीति और मीडिया के इन्ही सम्बन्धों को विशेषित करने का प्रयास किया है।RelatedTRUE
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