bharatiya Sahitya Ke Itihas Ki Samsyayen
Item Weight | 400GM |
ISBN | 978-9350001219 |
Author | Ramvilas Sharma |
Language | Hindi |
Publisher | Vani Prakashan |
Pages | 148 |
Book Type | Hardbound |
Dimensions | 5.30"x8.50" |
Publishing year | 2019 |
Edition | 5th |

bharatiya Sahitya Ke Itihas Ki Samsyayen
भाषा के बिना साहित्य का अस्तित्व असम्भव है, मानव समाज के बिना भाषा का अस्तित्व असम्भव है। इस मानव समाज के गठन के रूप बदलते रहते हैं। पूँजीवादी समाज, उससे पहले सामन्ती समाज, और उससे भी पहले कबीलाई समाज इनमें सामाजिक गठन के रूप अलग-अलग तरह के होते हैं। किसी भी भाषा के साहित्य का इतिहास लिखना हो, इस बात पर विचार करना आवश्यक होगा कि उस भाषा के व्यवहार करने वाले मानव समाज के गठन का रूप कौन-सा है। यह मानव-समाज विकास की किस अवस्था में है, इसकी जानकारी के बिना उसकी भाषा के साहित्य के इतिहास का विवेचन नहीं किया जा सकता, उस साहित्य की सामाजिक विषयवस्तु का ऐतिहासिक महत्त्व निर्धारित नहीं किया जा सकता।
भारत के सामाजिक विकास की प्रमुख समस्या है यहाँ विभिन्न भाषाएँ बोलने वाली जातियों के निर्माण की समस्या। इस समस्या का विशिष्ट रूप यह है इन जातियों का निर्माण अँग्रेजी राज कायम होने से पहले हुआ या उसके बाद हुआ? अधिकांश इतिहासकार मानते हैं, आधुनिक साहित्य का निर्माण अँग्रेजी राज कायम होने के बाद हुआ। इसके पहले 'मध्यकाल' है। 'मध्यकाल' में आधुनिक जातियों का अस्तित्व नहीं है। इन इतिहासकारों की समझ में जातियों का निर्माण अँग्रेजी राज कायम होने के बाद हुआ। ऐसे इतिहासकार किसी-न-किसी रूप में अँग्रेजी राज की प्रगतिशील भूमिका स्वीकार करते हैं। अँग्रेजों ने यहाँ पुरानी व्यवस्था-कबीलाई अथवा सामन्ती व्यवस्था-ध्वस्त करके नयी व्यवस्था अर्थात् पूँजीवादी व्यवस्था कायम की अथवा उसे कायम करने के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं और इस तरह जातियों का निर्माण सम्भव हुआ। सोवियत संघ और चीन में भारतीय भाषाओं के इतिहास लिखने की योजनाएँ बनाई गयी हैं। वहाँ के इतिहासकारों को इस प्रश्न का उत्तर देना होगा; अँग्रेजी राज में भारत की पराधीनता उसकी भाषाओं के साहित्य के विकास के लिए लाभकारी थी या हानिकारक? इस प्रश्न का जो भी उत्तर वे दें, उन्हें एशियाई सन्दर्भ को ध्यान में रखते हुए इस प्रश्न पर भी विचार करना होगा कि चीन जैसे देशों में अँग्रेजों या उनके गोरे भाईबन्दों का सीधा प्रभुत्व कायम नहीं हुआ, तो वहाँ जातियों का निर्माण हुआ या नहीं और हुआ तो कब हुआ।
समाज और साहित्य का इतिहास लिखते समय क्या धर्म और साम्प्रदायिक मतों को विवेचन का आधार बनाना चाहिए? काल-निर्धारण में धर्मों और मतों का ध्यान रखा जाता है यथा बौद्ध काल, मुस्लिम काल का विवेचन होता है। इनके समानान्तर हिन्दू काल होना ही चाहिए पर ईसाई काल नहीं है, न भारत में है न यूरुप में। कलाओं का नामकरण भी इसी पद्धति के अनुरूप है यथा बौद्ध स्थापत्य, मुस्लिम स्थापत्य, हिन्दू स्थापत्य । पर हिन्दू संगीत, मुस्लिम संगीत नहीं है। क्यों नहीं है? हिन्दू संस्कृति है, मुस्लिम संस्कृति है। क्या संगीत संस्कृति से बाहर की चीज है? विभिन्न कलाओं के व्यापक सन्दर्भ में साहित्य के इतिहास पर विचार किया जाए तो समस्याएँ सुलझाने में मदद मिलेगी। हिन्दू संगीत और मुस्लिम संगीत की जगह हिन्दुस्तानी और कर्णाटक संगीत, भारतीय संगीत के ये दो रूप प्रसिद्ध हैं। हिन्दुस्तान और कर्णाटक जातीय प्रदेश हैं, 'जातीय' शब्द पर आपत्ति हो तो इन्हें भौगोलिक इकाई मान लीजिए। संगीत में साम्प्रदायिक विभाजन नहीं हुआ, इसका कारण यह हो सकता है कि संगीत का इतिहास विश्वविद्यालयों में पढ़ाया न जाता था, इसलिए वह पेशेवर इतिहासकारों के साम्प्रदायिक विवेचन से बच गया।
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