वामपन्थी राजनीति का हिन्दुस्तान में दृश्य, लोकोन्मुख, धर्मनिरपेक्ष किन्तु अस्त व्यस्त रहा है। वह टूट-टूटकर सिकुड़ता भी गया है। एक जमाने में किसान मजदूरों-उद्योग मज़दूरों के सबसे बड़े संगठन इनके पास थे। अब छोटे हो गये। इनकी लड़ाई गरीबों-मज़दूरों-दलितों के लिए है, पर तीनों के लोग उनमें कम होते गये। युवा पीढ़ी का शामिल होना रुका। महिलाओं के संघर्ष का नेतृत्व न कम्युनिस्टों के पास आया है और न दलितों के। दलितों ने सामाजिक संघर्ष शुरू किया है। वे समाज में बराबरी की हैसियत चाहते हैं पर हुआ यह कि जो पढ़-लिख गये उनमें अधिकांश ओहदों में आ गये, उन्हें आधी-अधूरी हैसियत मिली और वे त्रिशंकु होते गये। दलितों के बीच मध्य वर्ग का उदय हुआ। उनका वर्ग उठ गया। वे अपनी ही जाति के लोगों से छिपने लगे। सभी सुविधाओं से वंचित दलित किसकी बाट जोहें। उनके लिए वर्ण संघर्ष ज्यों का त्यों है। मुश्किल यह है कि दलितों में से दलितों का जागरूक प्रतिनिधि नहीं आया। बाबा नागार्जुन ने 'हरिजन गाथा' कविता लिखी है फैण्टेसी में। अवतारी मिथक का इस्तेमाल किया है। दलितों ने ऐसी कविताओं में अपना पक्ष नहीं देखा। मार्क्सवाद में 'डी-क्लास' की प्रक्रिया है। उच्चवर्ग का आदमी अपने वर्ग से आत्मसंघर्ष द्वारा नीचे उतर सकता है। दलितों के साथ हो सकता है। दलितों में जन्मे लोग भी अपने ही वर्ग से कट सकते हैं। वे अप क्लास हो सकते हैं। आरक्षण से चुने विधायक और सांसदों में इसके प्रमाण मिलते हैं। ऐसे में वे नये सवर्ण हो जाते हैं। व्यवहार में देखा गया कि वर्षों से प्राप्त सदियों से धँसे संस्कारों की जकड़न पीछा नहीं छोड़ती डी-क्लास या अप-क्लास में। पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ गुजर जाती हैं। कम्युनिस्ट देशों में पाँच-छः दशकों के प्रयोग में भी यह नहीं हो पाया। इसलिए सिद्ध हुआ कि 'डी-क्लास' की प्रक्रिया पीढ़ियों के बाद, लगातार अनुशासन के बाद, संस्कारी जकड़नों से मुक्त हो सकती है। अन्यथा यह केवल आदर्श है। आर्थिक समानता और जातिवाद हीनता से यह प्रक्रिया तीव्र हो सकती है। कसौटी यह कि जाति के स्थान पर ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा नये आकार में न उदित हो। इस प्रसंग को यों समझें। एक पेड़ पर दो आदमी बैठे थे। दोनों नीचे गिर पड़े। एक कुएँ में गिरा और एक तालाब में। तालाब वाला तैरकर बाहर आ गया। कुएँ वाला तैरता तो था, पर चक्कर अन्दर ही लगाता रहा। अन्ततः किसी की मदद से कई दिनों का कष्ट भोगने के बाद बाहर आया। पेड़ से गिरने वाले दोनों इन आदमियों में बहस छिड़ी कि असली कष्ट क्या है कौन अधिक दुखी है। तालाब वाले का कष्ट था कि उसे पानी में तैरना पड़ा, उसके घुटनों में दर्द हुआ। कुएँ वाले का कष्ट था कि वह कुएँ में सड़ता रहा। तैरने से काम नहीं चला। कई बार मृत्यु करीब दिखी। पानी के कीड़ों ने नोच-नोचकर उसका मांस भक्षण किया। लहूलुहान हुआ। वर्ण और वर्ग का यही फर्क है।