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अ ता का प ता 
ला प ता को हो तो हो प ता
ह में तो न हीं प ता
वीरेन्द्र दुबे की कविताएँ इतनी सरल होती है कि वे ज़ुबान पर आते ही एक अनूठे अर्थ की मिठास सी घुल जाती हैं।
जैसे जैसे हम यह तलाश करते जाते हैं कि ये किस बात का स्वाद है वैसे वैसे अर्थों की डली घुलती चली जाती है। 
अता का पता में तेरह कविताएँ हैं। कवि भाषा में एक दो कदम ही चलता है और उसकी चाल का ही कमाल है कि हम 
बार बार उसका चलना देखते हैं। 
अता का पता कविता को ही लीजिए। कुल कितने शब्द हैं इसमें? ... जैसे, कम कहकर किसी और के कहने के लिए 
एक जगह इनमें रची और सहेजी गई है।  इस छो-सी कविता में एक चुहल भी है। 
अता कौन है? 
एक तरफ यह एक ऐसी कविता है जिसका अर्थ मिलाने जाएँगे तो कुछ ऐसे शब्द आएँगे जिनका 
पहले से अर्थ तय नहीं है। आप उनके अर्थ तय करने के लिए, अन्दाज़ लगाने के लिए पूरी पंक्ति या पूरी कविता
पर निर्भर हो जाएँगे। तब एक खूबसूरत बात एकदम सामने आ जाएगी कि एक शब्द का अर्थ एक ही शब्द में
कैद नहीं रहता। खासतौर पर कविता में। उस शब्द के अर्थ की जड़ें, उसकी शाखें, उसकी छाया जाने कहाँ कहाँ पड़ती है। 
अगर आपको इस कविता का एक सुन्दर अर्थ पाने की बैचेनी है तो वह भी इसमें है। कि जिसका अपना पक्का पता है यानी
जो कहीं मिलता है यानी किसी एक पते से बँधा है वो कुछ ही पते जान सकता है। लेकिन एक अता है। जिसका अपना कुछ भी 
पता नहीं है वह तो किसी ऐसे व्यक्ति यानी ला पता को ही मिल सकता है जो अकसर शायद घूमता फिरता रहता है। अता 
का पता शायद उसे ही मिल सकता है। यह अता कुछ भी हो सकता है। वह शायद अपने ही शहर की किसी कोने की एक 
दुकान हो जिसका पता ही कम चलता है। आप खुद चलकर जाएँगे तो पता चलेगा। 
एक कविता आपसे अपने सम्वाद के कितने मौके पैदा करती है। एक उधेड़बुन। और तब जीवन में समझकर पक्की कर ली गई
कितनी ही चीज़ों की पकड़ ढीली भी करती है। कि उनमें समझने की कितनी ही और गलियाँ भी हैं। 
इस किताब की लाइन ड्राइँग चित्रकार कनक ने बनाई हैं। इन कविताओं की तरह ये चित्र भी सुलझे हैं। ये कविताओं के पते की 
बात की तरह हैं। 


ISBN- 9788197063893
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