Aag Aur Phoos
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    | Item Weight | 400 Grams | 
| ISBN | 818-8267104 | 
| Author | Anand Prakash Jain | 
| Language | Hindi | 
| Publisher | Prabhat Prakashan | 
| Book Type | Hardbound | 
| Publishing year | 2010 | 
| Edition | 1st | 
| Return Policy | 5 days Return and Exchange | 
 
  
  
Aag Aur Phoos
            Product description
          
        
        
          
          
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                     सौंदर्य की सराहना करने का, उसे अपने भीतर प्रतिबिंबित देखने का मेरा दर्पण इतना अधिक चितकबरा हो गया कि मुझे अब कहीं नारी का सौंदर्य ही दिखाई नहीं पड़ता। मुझे इससे मानसिक पीड़ा अनुभव होती है। मैं नरम और गीले फूस की तरह, चारों ओर फैली हुई आग के बीच निर्द्वंद्व घूमता फिरता और मन में इस अभिमान को सँजोए रहा कि आग मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। किंतु कुछ ही दूर चलने पर मैंने ठिठककर देखा कि मेरा मिथ्याभिमान चूर-चूर हो गया है। मैंने अपने को विरक्ति के पानी से गीला कर रखा था, इसलिए आग कभी मेरे शरीर को प्रज्वलित नहीं कर सकी; किंतु सहसा ही मुझे लगा कि मेरा सारा अंतर भीतर-ही-भीतर सीझकर कभी का झुलस गया है और मेरा तन आग के धुएँ से काला पड़ गया है। मैं इस आग को अब और अधिक सहने में असमर्थ हूँ। नर और नारी के बीच अवैध संबंधों के विरुद्ध जो प्रतिबंध हमारे सामाजिक विधि-विधान ने लागू किए हैं उनका इतनी अधिक सतर्कता से पालन किया जाता है कि घूरकर देखते-देखते समाज की आँखों में मोतियाबिंद पड़ गया है। उसके शरीर में वासना का कोढ़ फूट निकला है। जो लोग अपनी निर्दोषिता पर गर्व करते हैं वे ही उसके हाथ जल्दी आते हैं; क्योंकि निर्भय होकर विचरना ही उनका सबसे बड़ा दोष होता है। —इसी उपन्यास से
                                     
                      
                  
                      
                    
                  
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