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नई व पुरानी कहानियों का यह संकलन गीतांजलि श्री की लगभग एक दशक की
साहित्यिक यात्रा का परिचय देता है। इसमें वैविध्य है विषय का, अन्दाज़ का। प्रयोग है
शिल्प का, भाषा का। और हमेशा ही एक सृजनात्मक साहस है कि यथातथ्यता—‘लिटरैलिटी
को लाँघते हुए पथ, दृश्य, अनुभव, ज़मीन तलाशें। अलग-अलग बिन्दुओं की टोह लेने की
लालसा में नतीजा फटाफट समझाने की कोई हड़बड़ी नहीं। कहीं हमारी जटिल आधुनिकता
के आयाम हैं, कहीं मानव-सम्बन्धों की अनुभूतियाँ। कहानियाँ हमारे शाश्वत मुद्‌दों पर भी हैं
मृत्युबोध, जीवन की आस, आत्मीयता की चाह-पर ताज़ी संवेदना से भरपूर। कभी ‘नज़र’
में हास्य है, कभी फ़लसफ़ाना दुःख। भाषा की ध्वनियाँ ऐसी हैं कि शायद बहुतों को यहाँ
कविता का रस भी मिलेगा। साहित्य-प्रेमियों के लिए एक सार्थक प्रयास।


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क्रम

चौक - 9
दहलीज़ -19
दिशाशूल - 28
पंख - 43
नाम - 55
भीतराग - 62
मैरी-गो-राउंड - 75
अरे गोपीनाथ ! - 91
पिलाकी माने फय - 107
रिश्ता - 120
भार - 135
जड़ें - 143
वे तीन - 153
शांति-पाठ - 159
वैराग्य - 168

चौक

ठीक-ठीक कह नहीं सकती कि क्या खास बात थी उन दिनों की, क्यों वे
मुझे बार-बार याद आ जाते हैं ? कोई अजीब घटना या खयाल नहीं कि
उसे एक संकेत मान के उस ट्रिप को लैंडमार्क क़रार कर दूँ । न कोई सत्य
मिल गया था कि जिस पर उँगली रखकर कहूँ, उसके बाद से कुछ पहले
जैसा न रहा। न तभी से यहाँ की घुटन से निजात मिल गई कि भागने की
चाह पर उसे याद करूँ। बिलकुल मामूली सा वह ट्रिप, अनेक और मेरे ट्रिपों
के बीच से अनायास ही अलग से झाँकने लगता है ।
उस बार भी झूठ बोलकर भागी थी । यहाँ के हालात से, घिर-घिर्र जंग
खायी घिर्री-सी घूमती दिनचर्या से । कुछ इतनी आस से देखती थीं अम्मा,
जहाँ उनके सामने पड़ो कि झूठ कहे बग़ैर मुझसे वहाँ से निकला न जाता ।
पापा भी देखते ही उठ बैठते और कहते क्यों आशू मुझे कहीं ले चल सकती
हो ? एनी व्हेयर ? जस्ट फ़ॉर अ ड्राइव ? आई जस्ट वॉन्ट टू गेट आउट ।
वही इने-गिने जवाब मुझे देने पड़ते इस वक़्त ? इतनी धूप में ? शाम तो
होने दीजिए। जिस पर वे कहते अरे शाम कभी नहीं होगी और फिर पेट
में पलते बच्चे की तरह सिकुड़कर लेट जाते और आँखें बंद कर लेते । या
मैं कहती, कक्कू दी और शंभू भइया को लौट आने दीजिए, उन्हें गाड़ी न
चाहिए हो कहीं ! जिस पर वे कहते, अरे वो कभी नहीं लौटेंगे और लेट
जाते। या फिर मैं कक्कू दी, भाभी, शंभू भइया से पूछ लेती और लात
पापा को कहीं, जिस पर शंभू भइया दिमाग़ पे ज़ोर डाल के कोई-न-कोई
काम, बाज़ार, पावर हाउस, पोस्ट ऑफ़िस का सोच लेते कि गाड़ी जा रही
है तो कुछ निपटा आओ, यों ही क्यों पैट्रोल फुंके ! लौटने में मंदिर के
सामने पापा हाथ जोड़ लेते, फिर हम घर आ जाते ।जब मैं झूठ बोलती
कि किसी राइटर्स वर्कशॉप में जाना है तो लगता

पंख

मैं घूर नहीं रही थी। मेरी आँखें घुमड़ रही थीं । आसमान की तरह जो काले
बादलों में घुमड़ रहा था। रेस्तराँ के शीशे के बाहर पेड़-बाँस, नीम,
ताड़-बरसात के आने के पहले ही मटकने लगे थे। ऊपर ढेरों पंछी, वक़्त
से ठौर पाने की सुध में, झुंड-के-झुंड, बादलों को रोक रहे थे। कौवे होंगे।
या कबूतर । और दोनों में कौन ज़्यादा गलीज़ और हमारे शहर में इन दो
के अलावा कौन बचे हैं मैंने सोचा ?
पर दुख से नहीं। क्योंकि मैं तो पेड़ों को देख रही थी जो इस शहर
में भी बजने की तैयारी में थे ।
और घूर नहीं रही थी। यों ही आँखें इधर-उधर फिसला रही थी रेस्तराँ
के शीशे के पार, जहाँ से भागकर हम रोज़ की तरह क्विक लंच लेने चले
आए थे, फिर वापस ऑफ़िस की अनंत इमारतों में चींटियों की तरह लौटने
के पहले। पर जैसे बच्चे खेलते हैं 'स्टैचू' और जो जहाँ, जिस बेहूदी मुद्रा
में हो वहीं 'स्टैचू' हो जाता है वैसे ही रवि ने कहा, घूर क्यों रही हो, और
मेरी आँखें उस पल जहाँ से फिसलनेवाली थीं, वहीं 'स्टैचू' हो गईं !
वहाँ एक जोड़ा बैठा था । पारदर्शी शीशे की दीवार के पास, उसके
बाहर झूमते हरे के फ्रेम में जैसे। लड़की बर्फ़ के रंग की थी (उत्तर भारत !)
लड़का गरमी का तपता गोला (ज़ाहिर है दक्षिण !) उसने कुछ कहते-कहते
बढ़ाया जो मेज़ के नीचे टकराया। लड़की के पैर से, उसने सोचा होगा,
जिस तरह अदबदाकर वह पीछे हुआ 'सॉरी' का उच्चारण होंठों को देता ।
लड़की ने अन्यमनस्क नज़रों से देखा। तो लड़के ने मेज़ के नीचे झाँका जहाँ
उसका पैर कालीन में पड़ी सलवट से जा लगा था । वह मुसकराया ।
कालीन हरा था। लड़के की कमीज़ भी हरी थी । आधी बाँह की ।
इतना हरा देखकर मेरा मन बचाव की कोशिश में आ गया और मैंने

नाम

मुझे पता था वह जग गया है। उसके तन में उठती प्यार की अँगड़ाई नींद
की चौहद्दी को पार करके अचानक गायब हो गई । बढ़ा हुआ हाथ ठिठक
गया। मेरा भी ।
उसने भी सुन लिया।
वह ऐसे सवाल नहीं करता कि क्या उसकी याद आ रही है ? इसलिए
मैं चाहकर भी जवाब नहीं दे पाई कि पंद्रह साल से होंठों पर चढ़ा बस एक
शब्द है वह नाम, यों इसलिए मेरे मुँह से निकल गया । मैं तो यहीं हूँ,
सोती-जागती, तुम्हारे संग, पूरी तरह तुम्हारे पास ।
अँधेरा था। और लिहाफ़ के बाहर ठंड की प्रतीति। मैं जग चुकी थी।
छिटककर निकले ग़ैर इरादी लफ़्ज़ को वापस सोई चेतना की परिसीमा में
ढकेलना चाह रही थी ।
सहसा मुँह खोलने से डर लगने लगा। सोचने लगी, क्या नाम है
तुम्हारा ? घबरा के उलटी-पलटी यादआवरी में वक़्त और जगह का
तालमेल बिठाने लगी ।
वह सोने का नाटक कर रहा था। उसके सीने पर स्थिर पड़े मेरे हाथ
हटना चाह रहे थे, पर मैं भी सोने का नाटक कर रही थी ।
उसने सोचा होगा, नाटक बेमानी है । आँखें 'पक' से खोलकर घड़ी के
चमकते ‘डायल' पर निगाह डाली ।
यह ऐन वही पल था जब मेरे वहाँ होने पर वह हर दफ़ा आँख खोलता
था। इतने बरसों में उसके साथ मुझे कभी घड़ी के 'अलार्म' ने नहीं जगाया।
हर बार उसके ज़ेहन का अलार्म घड़ी के बजने के पाँच मिनट पहले ही
टंकार देता और वह आँखें खोल देता और हाथ बढ़ाकर घड़ी पर नज़र
डालकर उसके अलार्म का बटन दबा देता । घड़ी के अलार्म से ठीक पाँच


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