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Sundar Ke Swapn
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यह किताब क्यों खरीदें?
'सुन्दर के स्वप्न' राजकमल प्रकाशन की महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध शृंखला 'भक्ति मीमांसा' की चौथी पुस्तक है।
प्रसिद्ध आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल भक्ति मीमांसा शृंखला के शृंखला सम्पादक हैं और शृंखला की इस चौथी प्रस्तुति 'सुन्दर के स्वप्न' के लेखक दलपत सिंह राजपुरोहित हैं।
इस पुस्तक में आधुनिक काल में विकसित निर्गुणी पंथों में महत्वपूर्ण दादूपंथी कवि सुन्दरदास का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है।
'सुन्दर के स्वप्न' में सुन्दरदास और उनके दादूपंथ को व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक सन्दर्भ में देखने का प्रयास किया गया है। भक्तिकाल के शोधार्थियों के लिए महत्त्वपूर्ण पुस्तक।
किताब के बारे में
सुन्दरदास आरम्भिक आधुनिक हिन्दी के ऐसे कवि थे जिन्होंने संस्कृत के सुभाषितों, वेदान्त की दार्शनिक उक्तियों, ब्रह्म-वाक्यों और उत्तर भारत में प्रचलित विभिन्न बोलियों की कहावतों और मुहावरों का व्यापक प्रयोग अपनी कविता में किया। संस्कृत की शास्त्रीय परम्परा के साथ-साथ उनकी पकड़ ब्रजभाषा की रीति-कविता पर भी साफ़ दिखाई देती है लेकिन उसका प्रयोग उन्होंने अलग ढंग से किया।
उनके लिए आत्मानुभव किसी भी दर्शन से अधिक महत्त्वपूर्ण था। उनकी कविता विश्वव्यापी ब्रह्म-सत्य की खोज की कविता है, और उनकी भक्ति एक सतत यात्रा।
उनकी कविता इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि उसमें मारवाड़ क्षेत्र की वणिक संस्कृति के अत्यन्त सजीव बिम्ब हमें मिलते हैं। अकसर अकाल की ज़द में रहने वाले और बंजर मरुस्थली क्षेत्र को उन्होंने आध्यात्मिक आधार पर एक नवीन और विशिष्ट अर्थ दिया। प्रमाण उपलब्ध हैं कि उनकी कविता की पहुँच संत समुदाय से बाहर व्यापारी और दरबारी वर्ग तक थी। जयपुर के सिटी पैलेस म्यूज़ियम में संरक्षित उनकी एक पांडुलिपि पर मुग़ल बादशाह औरंगजेब की मुहर भी मिलती है।
यह पुस्तक दादूपंथ के इतिहास और उसके सामाजिक-राजनीतिक परिप्रेक्ष्य के साथ-साथ सुन्दरदास के व्यक्तित्व और कृतित्व का विस्तृत और विचारोत्तेजक विवेचन करती है। उनके शिल्प, काव्य-दृष्टि और आध्यात्मिक विशिष्टताओं के विश्लेषण के अलावा इसमें भक्ति के लोकवृत्त और हिन्दी की आरम्भिक तथा अपनी आधुनिकता के तत्त्वों को भी रेखांकित किया गया है।
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