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इस्मत चुग़ताई उर्दू की सम्पूर्ण गद्यकार हैं। उन्होंने न सिर्फ़ अफ़साने और उपन्यास लिखे, बल्कि अन्य कई विधाओं में भी अपनी क़लम के हुनर का लोहा मनवाया। उनके आत्मकथात्मक लेखन का पैनापन देखते ही बनता है। समाज के साथ अपने ऊपर हँसने की ख़ूबी, गहरा व्यंग्य और सुथरा हास्यबोध उन्हें अपने दौर के बाक़ी कथाकारों से विशिष्ट बनाता है। फिर अपने स्त्री होने का उनका अहसास और सो भी एक ऐसी स्त्री जिसे बनी बनाई लकीरों से अलग हटकर चलने का कुछ चस्का-सा है, उन्हें अपने समय से भी आगे का विजनरी साबित करता है।
आज वे जितनी उर्दू की हैं उतनी ही हिन्दी की भी हो चुकी हैं। उनकी ज़्यादातर रचनाएँ हिन्दी में उपलब्ध हैं। हिन्दी में उनकी उर्दू रचनाओं का आना हमेशा पाठकों को उत्तेजित करता रहा है। ख़ास तौर से उनकी कहानियाँ जो आज भी लोकप्रियता के उसी शिखर पर हैं, जैसी वे उनके ज़माने में थीं। इस किताब में उनकी कुछ चर्चित कहानियों के अलावा उनके कुछ छोटे ड्रामों को भी शामिल किया गया उनका एक लेख भी इसमें रखा गया है जो उनके उत्कृष्ट संस्मरणात्मक गद्य का नमूना है। Ismat chugtai urdu ki sampurn gadykar hain. Unhonne na sirf afsane aur upanyas likhe, balki anya kai vidhaon mein bhi apni qalam ke hunar ka loha manvaya. Unke aatmakthatmak lekhan ka painapan dekhte hi banta hai. Samaj ke saath apne uupar hansane ki khubi, gahra vyangya aur suthra hasybodh unhen apne daur ke baqi kathakaron se vishisht banata hai. Phir apne stri hone ka unka ahsas aur so bhi ek aisi stri jise bani banai lakiron se alag hatkar chalne ka kuchh chaska-sa hai, unhen apne samay se bhi aage ka vijanri sabit karta hai. Aaj ve jitni urdu ki hain utni hi hindi ki bhi ho chuki hain. Unki zyadatar rachnayen hindi mein uplabdh hain. Hindi mein unki urdu rachnaon ka aana hamesha pathkon ko uttejit karta raha hai. Khas taur se unki kahaniyan jo aaj bhi lokapriyta ke usi shikhar par hain, jaisi ve unke zamane mein thin. Is kitab mein unki kuchh charchit kahaniyon ke alava unke kuchh chhote dramon ko bhi shamil kiya gaya unka ek lekh bhi ismen rakha gaya hai jo unke utkrisht sansmarnatmak gadya ka namuna hai.

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क्रम

कहानी

1. पर्दे के पीछे -9

2. गेन्दा -18 

3. शादी -29

4. जवानी -38 

5. डायन -44 

6. ख़िदमतगार -57 

7. तारीकी -74 

8. काफ़िर -79

9. 'नेरा' -87

 

लेख

1. बचपन -99

 

ड्रामा
 1. इन्तिख़ाब -109 

2. साँप -134

3. फ़सादी -163

4. ढीठ -187

5. बन्ने -194 

 

पर्दे के पीछे
" देखें.. देखें... जरा हटो तो  जुहरा ने मुझे क़रीब क़रीब पीछे हटाते हुए कहा
और अपनी ज़बरदस्त नाक नेमतखाने' जैसी बारीक जाली से चिपका दी
और देखती की देखती रह गई, बिल्कुल हक्का-बक्का, लेकिन फ़ौरन सँभली "ऊँह ! कोई भी नहीं, ऐसा तो कोई हसीन भी नहीं, सूखा मारा।" जुहरा
ऐनक फड़काकर कहा
'सूखा ! ये सूखा है ? ज़रा देखना अज़रा !" मैंने अज़रा को अपने ऊपर लिटाया
"कोई भी नहीं, मगर वह उधर ज़रा उधर " अज़रा ने बिल्कुल दूसरी तरफ़
हम लोगों को मुतवज्जेह किया
"कौन वह दाढ़ी ? लानत !" जुहरा हट गई। मैंने भी देखने की ज़रूरत
समझी।
सकी।
'अरे नहीं वह एक-दो-तीन वह चौथे नम्बर पर है जुहरा !"
अज़रा ने तड़पकर कहा और जुहरा की गर्दन बिल्कुल दाएँ तरफ़ को मरोड़ दी
"क्या मज़ाक़ है ?" जुहरा बिगड़ गई।
अरे वह नहीं वह पिछली लाइन में वह दूर - वह..." अज़रा ने बताया।
'अच्छा वह सामने, कल ही देखा था।" तुफ़ैल नोटबुक उलटकर बोली
'अरे वह कल था भी हुँह " अज़रा को बुरा लगा कि कल वह कुछ देख
"लो, कल था कैसे नहीं।" सईदा भी बोल ही दी।
"लो और लो।" हम सब जल गए- " ये दोनों कल ही से देख रही थीं और
हमें ज़रा जो पता हो। अच्छा ख़ैर "
जुहरा नम्बर 2 हमारी मजलिस' से बाहर दूर कोने से नाक उठाए एक सफ़ेद
हाथ को तेज़ी से क़लम चलाते देख रही थी। हमने मुस्कराकर एक दूसरे को टहोके'
दिए और सूँ-सूँ नाकें बजाने लगे।

 

डायन
हामिद ने जो क़मीज सन्दूक से निकाली, उसके बटन टूटे हुए थे। किसी में
आधा बटन लटक रहा था, किसी में पौन और बाक़ी एक सिरे से ग़ायब जी
जलकर ख़ाक हो गया, बेइख़्तियार' जी चाहा कि जाकर धोबन को कस-कस के
ऐसी ठोकरें मारे कि बस याद ही करे। मगर क्लब का वक़्त क़रीब था, दूसरे सिर्फ़
धोबन को ठोंकने के लिए उसके घर इतनी दूर जाना महज़ हिमाक़त थी। सामने
उसकी तन्दुरुस्त बीवी रफ़ीक़ा सोने के लिए तैयार पलंग पर चढ़ी लेटी थी उसने
सोचा, लाओ ख़ुद ही टाँक लूँ, ये बस दो ही तो बटन हैं, गिरेबान में और... एक कफ़
में। मगर अरे! तीरे पर से तो ज़रा मसक गया था कपड़ा आख़िर, हक्के-शौहर भी
कोई चीज़ है, क्यों रज़िया ही को तकलीफ़ दी जाए, लिहाज़ा उसने पुकारा
" रज़िया ... रज़िया, ज़रा उठो तो।"
" क्या है भई।" रज़िया ठिनककर बोली।
अरे भई ज़रा....ये देखो धोबन चुड़ैल सारे बटन तोड़ लाई, यानी ये भी कोई
बात है कि एक बटन भी नहीं छोड़ती। उठो ज़रा बटन लगा दो और हाँ ये तीरे के
पास ज़रा मसक गई है, ज़रा उसे भी सी दो "
अच्छा सी देती हूँ।" रज़िया ने करवट बदलकर फिर सोने के लिए कुंडली मार ली।
" तो फिर उठो ना। भई मुझे क्लब जाना है।" वह उसका कन्धा हिलाने लगा
अम्माँ जान से कहिए ना, वह सी देंगी। अब इस वक़्त मेरे पास सूई धागा भी
तो नहीं।'' यह कहकर वह मक्खियों से बचने के लिए दुपट्टे में छुप गई।
अम्माँ जान का नाम सुनकर हामिद का मुँह इतना-सा निकल आया भला ये
भी कोई इंसाफ़ है, दुनिया जहान की बीवियाँ अपने मियाँओं की क़मीज़ों में बटन
टाँकती हैं, आख़िर रज़िया कौन-सी निराली है जो बटन भी टाँक सके। आख़िर
हर काम के लिए वह अम्माँ जान से क्यों कहे। आख़िर बीवी रखने का फिर फ़ायदा
ही क्या जब कि हर काम अम्माँ जान वक़्त से पहले ही करके रख देती हैं। और जो
ज़रा-सा काम करने को कहो, रज़िया पर सुस्ती सवार हो जाती है, वह ज़रा-सा मुँह

 

 

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