Look Inside
Sabhi Rang Tumhare Nikle
Sabhi Rang Tumhare Nikle

Sabhi Rang Tumhare Nikle

Regular price ₹ 159
Sale price ₹ 159 Regular price ₹ 200
Unit price
Save 20%
20% off
Tax included.

Earn Popcoins

Size guide

Pay On Delivery Available

Rekhta Certified

7 Day Easy Return Policy

SabhiRangTumhareNikle

Sabhi Rang Tumhare Nikle

Cash-On-Delivery

Cash On Delivery available

Plus (F-Assured)

7-Days-Replacement

7 Day Replacement

Product description
Shipping & Return
Offers & Coupons
Read Sample
Product description

About Book

प्रस्तुत किताब 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा’ सिलसिले के तहत प्रकाशित उर्दू शाइर सालिम सलीम का ताज़ा काव्य-संग्रह है| यह किताब देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

About Author

सालिम सलीम उर्दू ग़ज़ल-गोयों की नई नस्ल के एक निहायत रौशन और प्रतिभावान दस्तख़त हैं। अस्तित्व और अर्थ की अध-रौशन गहराइयों में उतर कर मोती-मय होने में लगे हुए हैं। 1985 में बिलरियागंज, आ’ज़मगढ़ (उत्तर प्रदेश) में जन्मे सालिम सलीम ने मुस्लिम युनिवर्सिटी अलीगढ़ और जामिया मिल्लिया इस्लामिया युनिवर्सिटी, देहली से आ’ला शिक्षा हासिल की और अब दिल्ली विश्वद्यिालय में पी॰एच॰डी॰ के लिए काम कर रहे हैं। ‘रेख़्ता’ से भी संबंधित हैं।


Shipping & Return
  • Over 27,000 Pin Codes Served: Nationwide Delivery Across India!

  • Upon confirmation of your order, items are dispatched within 24-48 hours on business days.

  • Certain books may be delayed due to alternative publishers handling shipping.

  • Typically, orders are delivered within 5-7 days.

  • Delivery partner will contact before delivery. Ensure reachable number; not answering may lead to return.

  • Study the book description and any available samples before finalizing your order.

  • To request a replacement, reach out to customer service via phone or chat.

  • Replacement will only be provided in cases where the wrong books were sent. No replacements will be offered if you dislike the book or its language.

Note: Saturday, Sunday and Public Holidays may result in a delay in dispatching your order by 1-2 days.

Offers & Coupons

Use code FIRSTORDER to get 10% off your first order.


Use code REKHTA10 to get a discount of 10% on your next Order.


You can also Earn up to 20% Cashback with POP Coins and redeem it in your future orders.

Read Sample


फ़ेह्‍‌रिस्त


1 बदन बनाते हैं थोड़ी सी जाँ बनाते हैं
2 बिछड़ के तुझ से जो हम जान से जुदा हुए हैं
3 दश्त की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न होता हुआ
4 दालान में कभी, कभी छत पर खड़ा हूँ मैं
5 हर इक वजूद कोई हादसा वजूद का है
6 सहरा का हर बगूला मुझ पर लपक रहा था
7 हर तरफ़ घन्घोर तारीकी थी राह-ए-जिस्म में
8 हर एक सांस के पीछे कोई बला ही न हो
9 हवा से इस्तिफ़ादा कर लिया है
10 काम हर रोज़ ये होता है किस आसानी से
11 बदन सिमटा हुआ और दश्त-ए-जाँ फैला हुआ है
12 बदन के सारे जज़ीरे शुमार करते हुए
13 बुझी बुझी हुई आँखों में गोश्‍वारा-ए-ख़्वाब
14 ख़मोशी भाग निकली है मकाँ से
15 ख़ुद को अब कोई तमाशा नहीं होने देंगे
16 बड़ा मज़ा हो जो ये मो’जिज़ा भी हो जाए
17 हुदूद-ए-शह्‌र-ए-तिलिस्मात से नहीं निकला
18 जो बुझ गया उसी मन्ज़र पे रख के आया हूँ
19 हुजूम-ए-शह्‌र में आए बहुत थे
20 जिस्म पर हम कोई दीवार उठाने लग जाएँ
21 ख़ुद अपने वास्ते क्या क्या सुख़न बनाते हैं
22 ख़ुद अपनी ख़्वाहिशें ख़ाक-ए-बदन में बोने को
23 लुटा के बैठा हूँ मैं सारा ज़ौक़-ए-हुस्न अपना
24 रात आँखों के दरीचों में सजा दी गई है
25 इक नए शह्‌र-ए-ख़ुश-आसार की बीमारी है
26 इस्बात में भी है मिरा इन्कार हर तरफ़
27 ज़िन्दा रहने की अज़िय्यत ही नहीं है कुछ कम
28 भरा हुआ हूँ मैं पूरे वजूद से अपने
29 ज़मीं के होते हुए आस्माँ के होते हुए
30 कुछ तो ठहरे हुए दरिया में रवानी करें हम
31 नए जहानों का इक इस्तिआ’रा कर के लाओ
32 बड़ी फ़ुर्सतें हैं कहीं गुज़र नहीं कर रहा
33 सब लोग अपने आइनों के साथ थे वहाँ
34 उस को भी किसी रोज़ मिरा ध्यान रहेगा
35 हर एक पहलू-ए-ख़ुश-मन्ज़री बिखरता रहा
36 न छीन ले कहीं तन्हाई डर सा रहता है
37 पस-ए-निगाह कोई लौ भड़कती रहती है
38 रात उस बज़्म में तन्हाई के मारे गए हैं
39 मैं तो इस बात पे तय्यार नहीं हो सकता
40 उस के जैसा बनना है
41 वो कि ज़र्रों की तरह मुझ में सिमट कर फैला
42 ज़मीन थामे रहूँ सर पे आस्माँ ले जाऊँ
43 क्यों न इस क़ैद से आज़ाद किया जाए उसे
44 सुकूत-ए-अर्ज़-ओ-समा में ख़ूब इन्तिशार देखूँ
45 ज़माँ मकाँ से भी कुछ मावरा बनाने में
46 निकल कर आ ज़रा अपने मकान से बाहर
47 इ’श्क़ को कश्फ़ किया हुस्न का क़ाइल हुआ मैं
48 बदन था सोया हुआ रूह जागती हुई थी
49 एक हंगामा बपा है अ’र्सा-ए-अफ़्लाक पर
50 फैली हुई है रात चिमट जाना चाहिए
51 हमें तो नश्शा-ए-हिज्‍राँ निढ़ाल छोड़ गया
52 मिरे लहू ने मिरे जिस्म से बग़ावत की
53 ख़ामुशी फैलती जाती है तो गोयाई कर
54 कुछ रन्ज तो ग़ुबार-ए-सफ़र से निकल गया
55 मेरी आँखों में वो आया मुझ को तर करने लगा
56 कनार-ए-आब तिरे पैरहन बदलने का
57 किसी के इ’श्क़ में ये काम करना चाहते हैं
58 कुछ भी नहीं है बाक़ी बाज़ार चल रहा है
59 मेरे फैलाव को कुछ और भी वुस्‍अ’त दी जाए
60 रूह के ज़ख़्म से जाँ-बर ही नहीं होता मैं
61 ज़रा सी ख़ाक थे पर आस्माँ उठा लाए
62 उस का चेहरा है कि भूला हुआ मन्ज़र जैसे
63 सारी दुनिया को भुलाने लग जाएँ
64 घर की जानिब वो चल रहा होगा

1
बदन बनाते हैं थोड़ी सी जाँ बनाते हैं

हम उस के इश्क़ में कार-ए-जहाँ1 बनाते हैं

1 दुनिया के काम

बिगाड़ देता है कोई हमें किनारों से

कभी जो ख़ुद को तिरे दर्मियाँ बनाते हैं

जीब रक़्स में रहता है वो बगूला-सिफ़त1

तो हम भी उस के लिए आँधियाँ बनाते हैं

1 चक्रवात जैसी प्रवृति वाला

वो हाथ देते हैं तर्तीब मेरे अज्ज़ा1 को

फिर उस के बाद मुझे राएगाँ2 बनाते हैं

1 घटकों, 2 बेकार

सियाह1 पड़ता गया है वो लम्हा-ए-दीदार2

मिरे चराग़ भी कितना धुआँ बनाते हैं

1 काला, 2 देखने का पल

2
बिछड़ के तुझ से जो हम जान से जुदा हुए हैं

यक़ीन रख कि बड़ी शान से जुदा हुए हैं

ज़रूर मौसम-ए-वहशत1 की आमद आमद है

ये हम जो अपने गरेबान से जुदा हुए हैं

1 जुनून और पागलपन का मौसम

बुला रही है वो ना-मुम्किनात1 की दुनिया

इसी लिए हद-ए-इम्कान2 से जुदा हुए हैं

1 असंभव, 2 संभव

सभी ज़मान1-ओ-मकाँ2 हम से दूर जा पहुंचे

वो एक पल कि तिरे ध्यान से जुदा3 हुए हैं

1 काल, 2 स्थान, 3 अलग होना

विसाल चाहती हैं हम से मुश्किलें क्या क्या

बस एक लम्हा-ए-आसान1 से जुदा हुए हैं

1 आसान पल

ये फ़ैसला था कि जाएँगे रूह से मिलने

तो पहले जिस्म के सामान से जुदा हुए हैं

3
दश्त
1 की वीरानियों में ख़ेमा-ज़न2 होता हुआ

मुझ में उट्ठा है कोई बेपैरहन3 होता हुआ

1 वीराना, 2 कैंप लगाना, 3 निर्वस्त्र

अव्वल1 अव्वल कुछ सहारा दे रहा था एक ख़्वाब

आख़िर आख़िर वो भी आँखों की जलन होता हुआ

1 पहले, शुरूअ’ में

एक परछाईं मिरे क़दमों में बल खाती हुई

एक सूरज मेरे माथे की शिकन1 होता हुआ

1 सिलवट

एक कश्ती ग़र्क़1 मेरी आँख में होती हुई

इक समुन्दर मेरे अन्दर मौजज़न2 होता हुआ

1 डूबना, 2 बिफरा हुआ

जुज़1 हमारे कौन आख़िर आख़िर देखता इस काम को

रूह के अन्दर कोई कार-ए-बदन2 होता हुआ

1 सिवा 2 बदन का काम

मेरे सारे लफ़्ज़1 मेरी ज़ात2 में खोए हुए

ज़िक्‍र3 उस का अन्जुमन-दर-अन्जुमन4 होता हुआ

1 शब्द, 2 स्वयं, 3 चर्चा, 4 हर महफ़िल में

4
दालान में कभी
, कभी छत पर खड़ा हूँ मैं

सायों के इन्तिज़ार में शब भर खड़ा हूँ मैं

क्या हो गया कि बैठ गई ख़ाक भी मिरी

क्या बात है कि अपने ही ऊपर खड़ा हूँ मैं

फैला हुआ है सामने सहरा-ए-बेकनार1

आँखों में अपनी ले के समुन्दर खड़ा हूँ मैं

1 बेअंत सहरा

सन्नाटा मेरे चारों तरफ़ है बिछा हुआ

बस दिल की धड़कनों को पकड़ कर खड़ा हूँ मैं

सोया हुआ है मुझ में कोई शख़्स1 आज रात

लगता है अपने जिस्म से बाहर खड़ा हूँ मैं

1 व्यक्ति

इक हाथ में है आइना-ए-ज़ात-ओ-काएनात1

इक हाथ में लिए हुए पत्थर खड़ा हूँ मैं

1 अपना और दुनिया का आईना

5
हर इक वजूद
1 कोई हादसा वजूद का है

जो सच कहें तो यही फ़ल्सफ़ा2 वजूद का है

1 अस्तित्व, 2 दर्शन-शास्त्र

दिखाई देने लगा है ग़ुबार1 चारों तरफ़

यहाँ से आगे जो अब रास्ता वजूद का है

1 धूल

न जाने कब से पड़ा होगा यूँही गर्द-आलूद1

जो मेरे साथ मिरा आइना वजूद का है

1 घूल से अटा हुआ

कोई बताए कि बैनस्सुतूर1 क्या होगा

ये काएनात2 अगर हाशिया वजूद का है

1 निहितार्थ, 2 दुनिया, ब्रहमांड

उस इक बदन से हुए हैं मुकालमे1 क्या क्या

उस इक बदन से मिरा राब्ता2 वजूद का है

1 संवाद, 2 सम्पर्क

मैं अपनी ख़ाक1 में ज़िन्दा रहूँ रहूँ न रहूँ

दर-अस्ल2 मेरे लिए मस्‍अला3 वजूद का है

1 मिट्टी, 2 वास्तव में, 3 समस्या

ये तुम नहीं हो कोई धुंद है सराबों1 की

ये हम नहीं हैं कोई वाहिमा2 वजूद का है

1 मृगतृष्णा, 2 भ्रम

6
सहरा का हर बगूला
1 मुझ पर लपक रहा था

ख़ुद अपनी जुस्तजू2 थी सो मैं भटक रहा था

1 चकराती हुई हवा, 2 तलाश

कमरे में इक उदासी कैसी महक रही थी

आँखों से एक आँसू कैसा छलक रहा था

ये बार-ए-जिस्म1 आख़िर मैं ने उठा लिया है

ज़ा2 चटख़ रहे थे और मैं भी थक रहा था

1 बदन का बोझ, 2 अंग

मुझ में किसी की सूरत क्या गुल खिला रही थी

बाहर से हंस रहा था अन्दर सिसक रहा था

ये मेरी ख़ामुशी भी ले जाएगी कहाँ तक

मैं आज सिर्फ़ उस की आवाज़ तक रहा था

7
हर तरफ़ घन्घोर तारीकी थी राह-ए-जिस्म में

इक दिया जलता रहा बस बारगाह-ए-जिस्म1 में

1 बदन का दरबार

रूह मेरी पाक थी और सर-ब-सर1 आज़ाद थी

मैं कि आलूदा2 हुआ फिर भी गुनाह-ए-जिस्म3 में

1 पूरी तरह, 2 दूषित, 3 जिस्म का गुनाह

सुब्ह होने पर सभी हर्फ़-ए-दुआ1 गुम हो गए

रात भर बैठे रहे हम बारगाह-ए-जिस्म में

1 दुआ’ के बोल

यार अब तू ही रिहाई की कोई सूरत निकाल

घिर गया चारों तरफ़ से मैं सिपाह-ए-जिस्म1 में

1 जिस्म की फ़ौज

8
हर एक सांस के पीछे कोई बला
1 ही न हो

मैं जी रहा हूँ तो जीना मिरी सज़ा ही न हो

1 बुरी आत्मा, मुसीबत

जो इब्तिदा1 है किसी इन्तिहा2 में ज़म3 तो नहीं

जो इन्तिहा है कहीं वो भी इब्तिदा ही न हो

1 आरंभ, 2 अंत, 3 गुंबद

मिरी सदाएँ1 मुझी में पलट के आती हैं

वो मेरे गुंबद-ए-बे-दर2 में गूँजता ही न हो

1 आवाज़, 2 बग़ैर खिड़की का मीनार

Customer Reviews

Be the first to write a review
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)

Related Products

Recently Viewed Products