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अस्सी की होने चली दादी ने विधवा होकर परिवार से पीठ कर खटिया पकड़ ली। परिवार उसे वापस अपने बीच खींचने में लगा। प्रेम, वैर, आपसी नोकझोंक में खदबदाता संयुक्त परिवार। दादी बज़िद कि अब नहीं उठूँगी।
फिर इन्हीं शब्दों की ध्वनि बदलकर हो जाती है अब तो नई ही उठूँगी। दादी उठती है। बिलकुल नई। नया बचपन, नई जवानी, सामाजिक वर्जनाओं-निषेधों से मुक्त, नए रिश्तों और नए तेवरों में पूर्ण स्वच्छन्द।
कथा लेखन की एक नई छटा है इस उपन्यास में। इसकी कथा, इसका कालक्रम, इसकी संवेदना, इसका कहन, सब अपने निराले अन्दाज़ में चलते हैं। हमारी चिर-परिचित हदों-सरहदों को नकारते लाँघते। जाना-पहचाना भी बिलकुल अनोखा और नया है यहाँ। इसका संसार परिचित भी है और जादुई भी, दोनों के अन्तर को मिटाता। काल भी यहाँ अपनी निरन्तरता में आता है। हर होना विगत के होनों को समेटे रहता है, और हर क्षण सुषुप्त सदियाँ। मसलन, वाघा बार्डर पर हर शाम होनेवाले आक्रामक हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी राष्ट्रवादी प्रदर्शन में ध्वनित होते हैं ‘क़त्लेआम के माज़ी से लौटे स्वर’, और संयुक्त परिवार के रोज़मर्रा में सिमटे रहते हैं काल के लम्बे साए।
और सरहदें भी हैं जिन्हें लाँघकर यह कृति अनूठी बन जाती है, जैसे स्त्री और पुरुष, युवक और बूढ़ा, तन व मन, प्यार और द्वेष, सोना और जागना, संयुक्त और एकल परिवार, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान, मानव और अन्य जीव-जन्तु (अकारण नहीं कि यह कहानी कई बार तितली या कौवे या तीतर या सड़क या पुश्तैनी दरवाज़े की आवाज़ में बयान होती है) या गद्य और काव्य : ‘धम्म से आँसू गिरते हैं जैसे पत्थर। बरसात की बूँद।’ Assi ki hone chali dadi ne vidhva hokar parivar se pith kar khatiya pakad li. Parivar use vapas apne bich khinchne mein laga. Prem, vair, aapsi nokjhonk mein khadabdata sanyukt parivar. Dadi bazid ki ab nahin uthungi. Phir inhin shabdon ki dhvani badalkar ho jati hai ab to nai hi uthungi. Dadi uthti hai. Bilkul nai. Naya bachpan, nai javani, samajik varjnaon-nishedhon se mukt, ne rishton aur ne tevron mein purn svachchhand.
Katha lekhan ki ek nai chhata hai is upanyas mein. Iski katha, iska kalakram, iski sanvedna, iska kahan, sab apne nirale andaz mein chalte hain. Hamari chir-parichit hadon-sarahdon ko nakarte langhate. Jana-pahchana bhi bilkul anokha aur naya hai yahan. Iska sansar parichit bhi hai aur jadui bhi, donon ke antar ko mitata. Kaal bhi yahan apni nirantarta mein aata hai. Har hona vigat ke honon ko samete rahta hai, aur har kshan sushupt sadiyan. Maslan, vagha bardar par har sham honevale aakramak hindustani aur pakistani rashtrvadi prdarshan mein dhvnit hote hain ‘qatleam ke mazi se laute svar’, aur sanyukt parivar ke rozmarra mein simte rahte hain kaal ke lambe saye.
Aur sarahden bhi hain jinhen langhakar ye kriti anuthi ban jati hai, jaise stri aur purush, yuvak aur budha, tan va man, pyar aur dvesh, sona aur jagna, sanyukt aur ekal parivar, hindustan aur pakistan, manav aur anya jiv-jantu (akaran nahin ki ye kahani kai baar titli ya kauve ya titar ya sadak ya pushtaini darvaze ki aavaz mein bayan hoti hai) ya gadya aur kavya : ‘dhamm se aansu girte hain jaise patthar. Barsat ki bund. ’

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एक कहानी अपने आप को कहेगी। मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी। भी, जैसा कहानियों का चलन है। दिलचस्प कहानी है। उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं, आरम्पार । औरत और सरहद का साथ हो तो खुदबखुद कहानी बन जाती है। बल्कि औरत भर भी। कहानी है। सुगबुगी से भरी। फिर जो हवा चलती है उसमें कहानी उड़ती है। जो घास उगती है, हवा की दिशा में देह को उकसाती, उसमें भी, और डूबता सूरज भी कहानी के ढेरों कंदील जलाकर बादलों पर टाँग देता है और ये सब गाथा में जुड़ते जाते हैं। राह आगे यों बढ़ती है, दायें बायें होती, घुमावती बनी, जैसे होश नहीं कि कहाँ रुके, और सब कुछ और कुछ भी किस्से सुनाने लग पड़ते हैं। ज्वालामुखी के अन्तर्घट से निकलता, चुप चुप भरता, भाप और अंगारों और धुएँ से फूटता अतीत ।

इस किस्से में दो औरतें थीं । उन औरों के अलावा जो आयीं और चली गयीं, या वे जो बराबर आती जाती रहीं, और वे भी जो लगभग लगातार रहीं पर बहुत अहम नहीं थीं और उनका तो अभी ज़िक्र ही क्या जो औरतें नहीं थीं। अभी ऐसा कि दो औरतें अहम थीं और उनमें से एक छोटी होती गयी और एक बड़ी ।
दो औरतें थीं और एक मौत ।

दो औरतें, एक मौत, क्या खूब जमेगी मिल बैठेंगे जब साथ हम और वे ! दो औरतें, एक माँ, एक बेटी, एक छोटी होती, एक बड़ी होती, एक हँ कर कहती कि मैं दिन प्रतिदिन छोटिया रही हूँ, दूसरी दुखी होती पर न कहती कि वो देख रही है वो रोज़ बुढ़ा रही है। माँ ने साड़ी पहननी छोड़ दी कि से अधिक कमर में खोंसनी पड़ती है और पेटीकोट रोज़ ऊँचे कराने पड़ते हैं। पर क्या छोटे होने में बिल्लियों वाली सिफ़त आ जाती है कि आप ज़रा से सुराख़ खुद को घसा लें और निकल जाएँ ? सरहद छेद दें और फिसल लें बीच से ?
अदृश्य हो पाने के करीब तक की क्षमता दिखा डालें ? में ये ही कारण रहा होगा कि माँ उस सरहद के पार निकलने की भी ठान सकी जब कि बेटी बस बुढ़ाऊ चिन्ता में ग्रसित हुई कि बुरे फँसे । मगर हो

 

मरने को कि वो मर जाती और फिर कहते मैंने मार दिया और उसने वास्कट की जेब से मोबाइल निकाल कर ठीक उसी तरह पकड़ा जैसे बचपन में बड़े की दी हुई चिड़िया कि न गिरा पाए न थाम पाए और चिड़िया फड़फड़ किये जा रही है, बिना रुके फड़ फड़ । उसका फ़ोन बजे जा रहा था, वाइब्रेशन मोड में। जूँजूँ करता ही जा रहा था। उठाओ । हैलो करो । कैसे करते हैं हैलो, एक पल को वो भूल गयी ।

कहना चाहिये परिवार को जब कि कहते हैं महाभारत को । कि जो दुनिया में वो उसमें, और जो उसमें नहीं, वो कहीं नहीं । कवि तसव्वुर में भी नहीं । यानी भूला भटका आतंकवादी, गरमा भरमा वामपंथी, नारीवाद और नारी, हर-वादी और जीती हारी, सब परिवार में। या महाभारत में, जिसे जैसे रुचे पचे । महाभारत में दुनिया, दुनिया परिवार में, और इसलिए परिवार में महाभारत। जो रोज़ रोज़ के हंगाम, हरेक एक महाभारत । इसलिए परिवार के हर सदस्य को पता है कि जो मुझमें वह किसी में नहीं और जो मुझमें नहीं वह होने लायक नहीं । और ये कि मेरे पास दिमाग है, औरों के पास पैसा । और ये कि मेरा फायदा उठाया सबने, अब हम नहीं, बाकी करें। और ये कि हम दूर रहके भी रहमदिल, तुम वहीं हो पर कितने बेरुखे। और ये कि हमेशा हम ही देते हैं, और आप हमेशा लेते हैं। और वाह आपकी सूझ जिसमें आप तो मिलन सार, हम वही तो मतलबी यार। आप चुप तो विनयशील, हम चुप तो काईयाँ । आप करें सो शिष्टाचार, वही हम करें तो लल्लोचप्पो । आप कहें तो साफगोई, हम कहें वही तो बदतमीज़ । हम पूछ लें तो अश्लील जिज्ञासा, आप पूछें तो हमदर्दी । हम करें तो हमारी सुविधा, आप करें तो आपकी कृपा । हम करें तो कंजूस, आप करें तो किफ़ायती ।

तो हर बात उसकी हाँ, और नहीं है तो हर बात उसकी ना । और कोई कहता है ये समझने वाली बात है, पर कोई बोल देता है ये तो मन की बात है, जो दोनों अलग होती हैं।

नहीं डॉक्टर बोले। उनके हर सवाल का जवाब बेटी मुस्तैदी से देती और हर सवाल पर और डर जाती ।
डरे हुए को डराना आसान । क्या उससे कोताही हो गयी ? माँ को एकदम स्वस्थ समझने की भूल, उनकी बढ़ती उम्र से बेपरवाह ? गेस्ट रूम से कभी कभार उठ के आती कि अम्मा पे झाँक ले। कभी चूड़ी की खनक दूर से आ जाती, कभी बाथरूम की बत्ती सुनाई दे जाती । माँ देख लेती तो उफ्फो जाओ करती, मैं ठीक हूँ। न देखती तो कभी बेटी ही देखती माँ का पूरे बिस्तर पर घेराव। बेटी मुस्का लेती मेरे संग देखो कैसी मगन । पर आज क्या हुआ कि जैसे डर ने सबक सिखाने की ठानी कि बड़ी निडर हो रही हैं आप।सुबह बेटी चाय बना कर खड़ी थी कि दोनों बैल्कनी में बैठें और माँ बेसबब बेवजह आगे के बजाय पीछे को घिसटने लगी। अरे अरे अरे कुछ गाती सी हँसती हुई, पानी का जहाज़ बनी पीछे को बहती, फट फट करती
अपनी चप्पलों के चप्पू चलाती । सेकंड दो सेकंड का मामला दीर्घकालिक हो गया। बेटी ने ट्रे कहीं रखी और उछली कि माँ की काया को घेरे पर तब तक काया पीछे को लुढ़की, दीवार पे घिसटी और ज़मीन पर । कमर में बेटी का हाथ पहुँचा सा, तो शायद सर दीवार पे कस के नहीं टकराया, मगर बाकी तो सदमा ही सदमा, क्योंकि माँ नीचे पड़ी है, हैरत से तकती ये क्या हुआ, हैरत से उत्तर देती अरे मैं गिर पड़ी। बेटी सहम गयी। पकड़ा भी और पकड़ न पाई। सिर पे लगी क्या ? माँ को कैसे उठाये ? मानो मनो वज़न। बेटी ने उसे ज़मीन पर ही घसीटा कि कुछ उठाने में कारगर चीज़ मिले। फ़र्श पर गीला गीला छाप माँ के तन से रिसता। पसीना क्या ? सूसू ? उस पर और फिसलेगी। डर का आर पार न था। वो माँ को उठा ही नहीं पा रही थी। माँ की हँसी अब अपराधियों की। तुम हटो मैं खुद उठती

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a
ankit
Ret Samadhi

super

y
yogesh
Ret Samadhi - Geetanjali Shree

ret samadhi ye book bahut pasand ki gyi aur mujhe bahut achhi bhi lgi .

N
Nitin

Ret Samadhi

S
Shazia's Poetry
The best packaging I received so far with an amazing bookmark.

Rekhta is my all time favourite but now Rekhta books are too. I bought Ret Samadhi by Gitanjali Shree Ma'am and I loved the book as well as an amazing bookmark with it. The way you people pack the books with so much care is fabulous. Keep going and keep growing and I have many other books coming my way from Rekhta books. Thank you 💜

V
V.S.
Ret Samadhi - Geetanjali Shree

Ret Samadhi - Assi ki hone chali dadi ne vidhva hokar parivar se pith kar khatiya pakad li. Parivar use vapas apne bich khinchne mein laga. Prem, vair, aapsi nokjhonk mein khadabdata sanyukt parivar. Dadi bazid ki ab nahin uthungi. Phir inhin shabdon ki dhvani badalkar ho jati hai ab to nai hi uthungi. Dadi uthti hai. Bilkul nai. Naya bachpan, nai javani, samajik varjnaon-nishedhon se mukt, ne rishton aur ne tevron mein purn svachchhand.
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Aur sarahden bhi hain jinhen langhakar ye kriti anuthi ban jati hai, jaise stri aur purush, yuvak aur budha, tan va man, pyar aur dvesh, sona aur jagna, sanyukt aur ekal parivar, hindustan aur pakistan, manav aur anya jiv-jantu (akaran nahin ki ye kahani kai baar titli ya kauve ya titar ya sadak ya pushtaini darvaze ki aavaz mein bayan hoti hai) ya gadya aur kavya : ‘dhamm se aansu girte hain jaise patthar. Barsat ki bund. ’ Ret Samadhi. Geetanjali Shree novel is very good and I am very Happy about your delivery

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