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Raushni Jaari Karo
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About Book

प्रस्तुत किताब 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा’ सिलसिले के तहत प्रकाशित उर्दू शाइर मनीष शुक्ला का ताज़ा काव्य-संग्रह है| यह किताब देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है|

 

About Author

मनीष शुक्ला सीतापुर (उत्तर प्रदेश) में 1971 में पैदा हुए। ता’लीम सहारनपुर और लखनऊ में हुई जहाँ उन्होंने लखनऊ युनिवर्सिटी से एम़ ए़ (ऐंथ्रोपालजी) किया। 1997 में प्रँत्रीय सिविल सर्विस के लिए चुने गए। मुलाज़िमत के दौरान ही उर्दू लिपि सीखी। शाइ’री का सिलसिला बचपन में घर के माहौल और ख़ून में उठने वाली भाव-विचारों की उथल-पुथल से शुरूअ’ हुआ। पहला ग़ज़ल-संग्रह ‘ख़्वाब पत्थर हो गए’ 2012 और दूसरा ‘रौशनी जारी करो’ 2017 में प्रकाशित। आजकल लखनऊ में कार्यरत।

 


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फ़ेह्‍‌रिस्त

1 ख़्वाब का चेहरा पीला पड़ते देखा है
2 तिरी रौशनी में नहाने लगे हैं
3 सिर्फ़ अश्कों को परेशानी रही
4 दिल का सारा दर्द भरा तस्वीरों में
5 हमें कुछ गर्दिश-ए-अय्याम से शिक्वा नहीं है
6 आख़िरी कोशिश भी कर के देखते
7 गए मौसम का डर बाँधे हुए है
8 हर इक चेहरा बहुत सहमा हुआ है
9 ज़ब्त-ए-ग़म से सिवा मलाल हुआ
10 बहुत बेसम्त होता जा रहा है
11 छाने ख़ूब समन्दर सारे
12 रात के दर्द का मारा निकला
13 एक ही बार में ख़्वाबों से किनारा कर के
14 आहटें आ रही हैं सीने से
15 मुख़ालिफ़ीन को हैरान करने वाला हूँ
16 तू मुझको सुन रहा है तो सुनाई क्यों नहीं देता
17 बड़ी मुश्किल थी दुनिया से हमें दो-चार होना था
18 जीने से इन्कार किया जाता है क्या
19 बहलने लगी है ज़रा सी नमी से
20 रात को अब बरी किया जाए
21 घबरा कर अफ़्लाक की दहशत-गर्दी से
22 हमसफ़र तू मिरा ख़याल न कर
23 आओ हम तुम दोनों मिल कर दुनिया को ठुकराते हैं
24 मोहब्बत की फ़रावानी मुबारक
25 हर सलाह दुनिया की दरकिनार की हमने
26 दिल में जाने क्या क्या आने लगता है
27 एक कोहराम सा हर वक़्त उठाए रक्खें
28 गर इधर चले आते तुम किसी बहाने से
29 हसीं ख़्वाबों के बिस्तर से उठाने आ गए शायद
30 हमने अपने ग़म को दोहराया नहीं
31 हर मन्ज़र का मोल चुकाना पड़ता है
32 हर किसी के सामने तिश्ना-लबी खुलती नहीं
33 जब आस्मान का समझे नहीं इशारा तुम
34 जाने किस शय के तलबगार हुए जाते हैं
35 आँखों को पुरनम हसरत का दरवाज़ा वा रक्खा है
36 इतनी जल्दी न मान जाया कर
37 अगर सच हो गयी मेरी दुआ’ तो
38 इन्हीं हाथों से अपनी ज़िन्दगी को छू के देखा था
39 दिल-ए-बर्हम की ख़ातिर मुद्दआ’ कुछ भी नहीं होता
40 दिन का लावा पीते पीते आख़िर जलने लगता है
41 बात कहने की छुपानी थी हमें
42 अचानक आज भला क्या दिखा इन्हें तुम में
43 आख़िरी बयानों में और न पेशख़्वानी में
44 काम बेकार के किये होते
45 जाने किस रंग ने लिखा है मुझे
46 किसी के इ’श्क़ में बर्बाद होना
47 कितनी शिद्दत से तलब करते हैं हम
48 कितनी उ'ज्लत में मिटा डाला गया
49 नेकी बदी में पड़ के परेशान हो गया
50 रौशनी और रंग के रक़्साँ सराबों की तरफ़
51 सबको उलझन में डाल रक्खा है

1

ख़्वाब का चेहरा पीला पड़ते देखा है

इक ता’बीर1 को सूली चढ़ते देखा है

1 स्वप्नफल

 

इक तस्वीर जो आईने में देखी थी

उसका इक इक नक़्श1 बिगड़ते देखा है

1 निशान

 

सुब्ह से लेकर शाम तलक इन आँखों ने

अपने ही साए को बढ़ते देखा है

 

उससे हाल छुपाना तो है नामुम्किन1

हमने उसको आँखें पढ़ते देखा है

1 असंभव

 

अश्क रवाँ1 रखना ही अच्छा है वर्ना

तालाबों का पानी सड़ते देखा है

1 जारी

 

इक उम्मीद को हमने अक्सर ख़ल्वत1 में

एक अधूरी मूरत गढ़ते देखा है

1 एकांत

 

दिल में कोई है जिसको अक्सर हमने

हर इल्ज़ाम हमीं पर मढ़ते देखा है


 

2

तिरी रौशनी में नहाने लगे हैं

मिरे लफ़्ज़1 अब जगमगाने लगे हैं

1 शब्द

 

मिरे रतजगों से परेशान हो कर

सितारे कहानी सुनाने लगे हैं

 

ख़यालों की पर्वाज़1 बढ़ने लगी है

ख़लाओं2 से पैग़ाम आने लगे हैं

1 उड़ान 2 शून्य

 

क़मर1 ने ख़ुदा जाने क्या कह दिया है

समुन्दर के लब थरथराने लगे हैं

1 चाँद

 

तिरा दर्द अब जाविदाँ1 हो चला है

कि दिन रात हम मुस्कराने लगे हैं

1 स्थायी

 

सफ़र ख़ाक में मिलने वाला है शायद

मुसाफ़िर बगूले उड़ाने लगे हैं

 

तमाशे की अब इन्तिहा1 हो रही है

तमाशाई उठ उठ के जाने लगे हैं

1 अन्त, आ​ख़िर


 

3

सिर्फ़ अश्कों1 को परेशानी रही

ग़म बयाँ करने में आसानी रही

1 आँसू

 

दूर तक कुछ भी नहीं आया नज़र

देर तक पलकों पे तुग़्यानी1 रही

1 पानी का चढ़ाव, ज़ियादती

 

और तो सबसे तआ’रुफ़1 हो गया

पर तबीअ’त2 ख़ुद से बेगानी3 रही

1 परिचय 2 स्वभाव, आ’दत 3 अजनबी, अनजान

 

चाँद ने चूमा नहीं झुक कर कभी

मुन्तज़िर1 पैहम2 ये पेशानी रही

1 इन्तिज़ार करना 2 हमेशा

 

ज़िन्दगी भर अ’क़्ल के हामी1 रहे

अब समझते हैं कि नादानी रही

1 समर्थन करने वाले

 

रफ़्ता रफ़्ता ख़ुद के आ’दी हो गए

कुछ दिनों तक तो परेशानी रही

 

हैफ़1 है उसको ही पहचाना नहीं

उ’म्‍र भर जिसकी निगहबानी2 रही

1 अफ़्सोस 2 संरक्षण


 

4

दिल का सारा दर्द भरा तस्वीरों में

एक मुसव्विर1 नक़्श2 हुआ तस्वीरों में

1 तस्वीर बनाने वाला 2 प्रतिबिम्बित

 

चन्द लकीरें तो इस दर्जा गहरी थीं

देखने वाला डूब गया तस्वीरों में

 

एक अ’जब सा जादू बिखरा रंगों का

सबको अपना अ’क्स1 दिखा तस्वीरों में

1 प्रतिबिम्बित

 

एक पुराने ज़ख़्म के टाँके टूट गए

एक पुराना दर्द मिला तस्वीरों में

 

भूली-बिसरी यादों के मन्ज़र चमके

माज़ी1 का इक बाब2 खुला तस्वीरों में

1 अतीत 2 अध्याय

 

हर चेहरे के पीछे सौ चेहरे उभरे

सबका पर्दा फ़ाश1 हुआ तस्वीरों में

1 व्यक्त, प्रकट

 

वक़्त कहाँ मुठ्ठी में आने वाला था

लेकिन हमने बाँध लिया तस्वीरों में


 

5

हमें कुछ गर्दिश-ए-अय्याम1 से शिक्वा नहीं है

मगर ये भी हक़ीक़त2 है कि जी अच्छा नहीं है

1 काल चक्र 2 वास्तविकता

 

भला किसको दिखाएँ जा के दिल के आब्ले1 हम

सभी जल्दी में हैं कोई ज़रा रुकता नहीं है

1 छाले

 

सभी ने तल्ख़ियों1 की गर्द इस चेहरे पे मल दी

और उस पर ये शिकायत भी कि अब हंसता नहीं है

1 कड़वाहट

 

न परियाँ हैं न शहज़ादा न लम्बी नींद इसमें

हमारी आपबीती है कोई क़िस्सा नहीं है

 

अ’बस1 शह्​र-ए-बयाबाँ2 में ये बातें छेड़ बैठे

यहाँ दिल की कहानी अब कोई सुनता नहीं है

1 बेकार 2 वीरान शहर

 

बहुत ही जानलेवा है ये हस्ती1 का मुअ’म्मा2

निकल जाने का भी लेकिन कोई रस्ता नहीं है

1 अस्तित्व, ज़िन्दगी 2 पहेली

 

सुना करते थे रो रो कर गुज़र जाती हैं रातें

मगर इस रात का कोई सिरा दिखता नहीं है


 

6

आख़िरी कोशिश भी कर के देखते

फिर उसी दर से गुज़र के देखते

 

गुफ़्तुग1 का कोई तो मिलता सिरा

फिर उसे नाराज़ कर के देखते

1 संवाद, बात-चीत

 

काश जुड़ जाता वो टूटा आइना

हम भी कुछ दिन बन-संवर के देखते

 

रास्ते को ही ठिकाना कर लिया

कब तलक हम ख़्वाब घर के देखते

 

काश मिल जाता कहीं साहिल कोई

हम भी कश्ती से उतर के देखते

 

हो गया तारी1 संवरने का नशा

वर्ना ख़्वाहिश थी बिखर के देखते

1 छाया हुआ

 

दर्द ही गर हासिल-ए-हस्ती1 है तो

दर्द की हद से गुज़र के देखते

1 ज़िन्दगी का हासिल


 

7

गए मौसम का डर बाँधे हुए है

परिन्दा अब भी पर बांधे हुए है

 

बुलाती हैं चमकती शाहराहें1

मगर कच्ची डगर बांधे हुए है

1 राजमार्ग

 

बिखर जाता कभी का मैं ख़ला1 में

दुआ’ओं का असर बांधे हुए है

1 शून्य

 

हक़ीक़त1 का पता कैसे चलेगा

नज़ारा2 ही नज़र बांधे हुए है

1 वास्तविकता 2 दृश्य

 

चला जाऊँ जुनूँ के जंगलों में

ये रिश्तों का नगर बांधे हुए है

 

निभाए किस तरह साहिल से वा’दा

सफ़ीने1 को भंवर बांधे हुए है

1 कश्ती

 

गए लम्हों की इक ज़न्जीर यारब

मिरे शाम-ओ-सहर बांधे हुए है


 

8

हर इक चेहरा बहुत सहमा हुआ है

तिरी बस्ती को आख़िर क्या हुआ है

 

बहुत ग़मगीन लौटे हैं परिन्दे

फ़लक1 पर आज क्या ऐसा हुआ है

1 आस्मान

 

ज़रा सोचो कोई तो बात होगी

कोई रस्ते पे क्यों बैठा हुआ है

 

हुई जाती है क्यों बेरब्त1 धड़कन

ये अब किस बात का धड़का हुआ है

1 बिखरी हुई

 

बहुत प्यारे हैं ये कूचे ये गलियाँ

कभी अपना यहाँ चर्चा हुआ है

 

सुना है रात पूरे चाँद की है

समुन्दर शाम से बहका हुआ है

 

मिरे दिल में कोई मा’सूम बच्चा

किसी से आज तक रूठा हुआ है


 

9

ज़ब्त-ए-ग़म1 से सिवा मलाल2 हुआ

अश्क3 आए तो जी बहाल हुआ

1 दुख सहना 2 ज़ियादा अफ़सोस 3 आँसू

 

फिर से बुझने लगी है बीनाई1

फिर तिरी दीद2 का सवाल हुआ

1 आँखों की रौशनी 2 दर्शन

 

कितने लोगों से मिलना-जुलना था

ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल1 हुआ

1 असंभव

 

हमने माज़ी का हर वरक़ पलटा

हमको हर बात पर मलाल1 हुआ

1 अफ़सोस

 

हम तो टुक देखते रहे उसको

रायगाँ1 लम्हा-ए-विसाल2 हुआ

1 बेकार 2 मिलन का क्षण


 

10

बहुत बेसम्त होता जा रहा है

सफ़र अब लुत्फ़1 खोता जा रहा है

1 आनन्द

 

ज़रा समझाए कोई नाख़ुदा1 को

सफ़ीने2 को डुबोता जा रहा है

1 मल्लाह, कश्ती चलाने वाला 2 कश्ती

 

नहीं कोई दिलासा देने वाला

मगर दिल है कि रोता जा रहा है

 

बहुत भारी हुआ साँसों का धागा

कोई आँसू पिरोता जा रहा है

 

किसी ने रख दिया है बार-ए-हस्ती1

कोई चुपचाप ढोता जा रहा है

1 ज़िन्दगी का बोझ

 

मिरे माज़ी का इक नमनाक1 लम्हा

मिरा दामन भिगोता जा रहा है

1 गीला, सीला हुआ


 

11

छाने ख़ूब समन्दर सारे

ख़ुद में निकले गौहर1 सारे

1 मोती

 

बेहिस जिस्म किनारे उतरा

डूबे देख शनावर1 सारे

1 तैराक

 

एक हवा का झोंका आया

रह गए ख़्वाब बिखर कर सारे

 

कोई बरसों फूट के रोया

ख़त इक रात जला कर सारे

 

कहाँ गई वो मेरी दुनिया

रूठ गए क्यों मन्ज़र1 सारे

1 दृश्य

 

उफ़ ये क्या कह बैठा मैं भी

तड़प रहे हैं ख़न्जर सारे


 

12

रात के दर्द का मारा निकला

चाँद भी पारा-पारा1 निकला

1 टुकड़े-टुकड़े

 

आप समुन्दर की कहते हैं

दरिया तक तो खारा निकला

 

ऊबा दुनिया की हर शय1 से

दिल आख़िर बंजारा निकला

1 चीज़

 

सूरज के आने तक चमका

बाग़ी1 एक सितारा निकला

1 बग़ावत करने वाला

 

आग न दरबारों तक पहुंची

मुख़बिर1 एक शरारा2 निकला

1 ख़बर देने वाला, जासूस 2 चिंगारी, पतिंगा

 

पलटे दिल के सफ़्हे सारे

सब पर नाम तुम्हारा निकला


 

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