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Qaafila-e-Nau-Bahaar
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About Book

'क़ाफ़िला-ए-नौ-बहार' उर्दू की नई नस्ल के पुर-उम्मीद शोअरा के चुनिंदा कलाम का संग्रह है|प्रस्तुत किताब 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा’ सिलसिले के तहत प्रकाशित की गई है| इस किताब में हिंदुस्तान के कुल 17 नौ-जवान शोअरा का कलाम शामिल है जिनका संकलन जनाब विकास शर्मा 'राज़' ने किया है| इन शोअरा की अबतक कोई किताब प्रकाशित नहीं हुई है और ये इनका पहला काव्य-संग्रह है|यह किताब देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और पाठकों के बीच ख़ूब पसंद की गई है

About Author

इस किताब का संकलन लोकप्रिय उर्दू शाइर विकास शर्मा 'राज़' ने किया है| इस किताब में शामिल शाइर हैं: कुलदीप कुमार, अभिनंदन पांडे, इम्तियाज़ ख़ान, आफ़्ताब शकील, राहुल झा, नईम सरमद, आशु मिश्रा, विपुल कुमार, अंकित गौतम, अब्बास क़मर, आक़िब साबिर, निवेश साहू, शहबाज़ रिज़वी, विजय शर्मा 'अर्श', अज़हर नवाज़ और पल्लव मिश्रा|

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फ़ेह्रिस्त

1.कुलदीप कुमार (1987)
2. अभिनदन पांडे (1988)
3. इम्तियाज़ ख़ान (1989)
4. आफ़्ताब शकील (1990)
5. राहुल झा (1991)
6. नई’म सरमद (1992)
7. आशु मिश्रा (1992)
8. विपुल कुमार (1993)
9. अंकित गौतम (1993)
10. अ’ब्बास क़मर (1994)
11. आ’क़िब साबिर (1994)
12. निवेश साहू (1994)
13. शहबाज़ रिज़्वी (1995)
14. विजय शर्मा अ’र्श (1995)
15. अज़हर नवाज़ (1995)
16. पल्लव मिश्रा(1998)

1

कुलदीप कुमार (1987)

राह-ए-इ’श्क़ में इतने तो बेदार1 थे हम
हिज्र2 आएगा पहले ही तय्यार थे हम
1.जाग्रत 2.जुदाई

शह्र बसे थे मीलों तक उसकी जानिब1
एक मुसल्सल2 जंगल था जिस पार थे हम
1.तरफ़ 2.निरंतर

हम पे रंग-ओ-रोग़न क्या तस्वीरें क्या
घर के पिछले हिस्से की दीवार थे हम

शाम से कोई भीड़ उतरती जाती थी
इक कमरे के अंदर भी बाज़ार थे हम

एक कहानी ख़ुद ही हमसे आ लिपटी
क्या मा'लूम कि कब इसके किर्दार थे हम

आज हमारे मातम में ये चर्चा था
इक मुद्दत से तन्हा थे बीमार थे हम

क्या अब इ’श्क़ में वैसी वहशत मुम्किन है
जैसे पागल इ’श्क़ में पहली बार थे हम
1.दीवानगी

2

अभिनदन पांडे (1988)

ख़ुशनुमा धुन पे रक़म1 दर्द के नग़्मात2-सा था 
वक़्त-ए-रुख़्सत3 भी जुनूँ4 पहली मुलाक़ात-सा था
1.अंकित 2.गीत 3.विदाई के समय 4.उन्माद

जिस्म के दश्त1 में रक़्साँ2 थे महकते हुए ज़ख़्म
कल शब-ए-हिज्र3 का आ’लम शब-ए-बारात-सा4 था
1.जंगल 2.नाचते 3.जुदाई की रात 4.बारात की रात

दिल के दरिया में थिरकता था तिरी याद का चाँद
शब के होंटों पे तिरा ज़िक्र मुनाजात-सा था 
1.स्तुति-गान

मैं तो इक उ’म्र फ़क़त1 उसके तआ'क़ुब2 में रहा
जो मिरी ज़ात में मौजूद तिरी ज़ात-सा था
1.केवल 2.पीछा करना

लम्स-ए-आख़िर1 मिरे कश्कोल-ए-बदन2 की ख़ातिर
एक मुफ़्लिस3 को मयस्सर4 हुई ख़ैरात5-सा था
1.अंतिम स्पर्श 2.शरीर रूपी भिक्षा-पात्र 3.ग़रीब 4.प्राप्त 5.दान

मैं तिरे शोख़ लबों पर तो अभी आया हूँ
इस से पहले तिरी आँखों में सवालात-सा था

जगमगाते हुए जुगनू न ज़ियाँ1 होता चराग़ 
रात में कुछ भी न था जिस को कहें रात-सा था
1.नुक़्सान, कम होना

3

इम्तियाज़ ख़ान (1989)

साँसों का ज़ह्​र है कि पिए जा रहे हैं हम

मन तो नहीं है फिर भी जिए जा रहे हैं हम


तुम दिन की सल्तनत1 पे करो हुक्मरानियाँ2

रातें तो अपने साथ लिए जा रहे हैं हम

1.राज्य 2.शासन


तुझको हमारे इ’श्क़ पे कब आएगा यक़ीं

सदियों से इम्तिहान दिए जा रहे हैं हम


जिसका था इन्तिज़ार वो आकर चला गया

अब किसका इन्तिज़ार किए जा रहे हैं हम


पहला किसी का इ’श्क़ था, दूजा है शाइ’री

दो हादसों को एक किए जा रहे हैं हम


ऐ शह्​र-ए-नामुराद1! मुबारक कि अबकी बार

वापस न लौटने के लिए जा रहे  हैं हम

1.बदनसीब शह्​र

 

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