Look Inside
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma
Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma

Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma

Regular price ₹ 69
Sale price ₹ 69 Regular price ₹ 75
Unit price
Save 8%
8% off
Tax included.
Size guide

Pay On Delivery Available

Rekhta Certified

7 Day Easy Return Policy

Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma

Pratinidhi Kavitayen : Srikant Verma

Cash-On-Delivery

Cash On Delivery available

Plus (F-Assured)

7-Days-Replacement

7 Day Replacement

Product description
Shipping & Return
Offers & Coupons
Read Sample
Product description

श्रीकान्त वर्मा का कविता-संसार उनके पाँच कविता-संग्रहों—‘भटका मेघ’ (1957), ‘दिनारम्भ’ (1967), ‘माया दर्पण’ (1967), ‘जलसाघर’ (1973) और ‘मगध’ (1984) में फैला हुआ है। यहाँ इन्हीं से इन कविताओं का चयन किया गया है। इन कविताओं से गुजरते हुए लगेगा कि कवि में आद्यन्त अपने परिवेश और उसे झेलते मनुष्य के प्रति गहरा लगाव है। उसके आत्मगौरव और भविष्य को लेकर वह लगातार चिन्तित है। उसमें यदि परम्परा का स्वीकार है तो उसे तोड़ने और बदलने की बेचैनी भी कम नहीं है। शुरू में उसकी कविताएँ अपनी ज़मीन और ग्राम्य जीवन की जिस गन्ध को अभिव्यक्त करती हैं, ‘जलसाघर’ तक आते-आते महानगरीय बोध का प्रक्षेपण करने लगती हैं या कहना चाहिए, शहरीकृत अमानवीयता के ख़िलाफ़ एक संवेदनात्मक बयान में बदल जाती हैं। इतना ही नहीं, उनके दायरे में शोषित-उत्पीड़ित और बर्बरता के आतंक में जीती पूरी-की-पूरी दुनिया सिमट आती है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि श्रीकान्त वर्मा की कविताओं से अभिव्यक्त होता हुआ यथार्थ हमें अनेक स्तरों पर प्रभावित करता है और उनके अन्तिम कविता-संग्रह ‘मगध’ तक पहुँचकर वर्तमान शासकवर्ग के त्रास और उसके तमाच्छन्न भविष्य को भी रेखांकित कर जाता है। Shrikant varma ka kavita-sansar unke panch kavita-sangrhon—‘bhatka megh’ (1957), ‘dinarambh’ (1967), ‘maya darpan’ (1967), ‘jalsaghar’ (1973) aur ‘magadh’ (1984) mein phaila hua hai. Yahan inhin se in kavitaon ka chayan kiya gaya hai. In kavitaon se gujarte hue lagega ki kavi mein aadyant apne parivesh aur use jhelte manushya ke prati gahra lagav hai. Uske aatmgaurav aur bhavishya ko lekar vah lagatar chintit hai. Usmen yadi parampra ka svikar hai to use todne aur badalne ki bechaini bhi kam nahin hai. Shuru mein uski kavitayen apni zamin aur gramya jivan ki jis gandh ko abhivyakt karti hain, ‘jalsaghar’ tak aate-ate mahanagriy bodh ka prakshepan karne lagti hain ya kahna chahiye, shahrikrit amanviyta ke khilaf ek sanvednatmak bayan mein badal jati hain. Itna hi nahin, unke dayre mein shoshit-utpidit aur barbarta ke aatank mein jiti puri-ki-puri duniya simat aati hai. Kahne ki zarurat nahin ki shrikant varma ki kavitaon se abhivyakt hota hua yatharth hamein anek stron par prbhavit karta hai aur unke antim kavita-sangrah ‘magadh’ tak pahunchakar vartman shasakvarg ke tras aur uske tamachchhann bhavishya ko bhi rekhankit kar jata hai.

Shipping & Return
  • Sabr– Your order is usually dispatched within 24 hours of placing the order.
  • Raftaar– We offer express delivery, typically arriving in 2-5 days. Please keep your phone reachable.
  • Sukoon– Easy returns and replacements within 7 days.
  • Dastoor– COD and shipping charges may apply to certain items.

Offers & Coupons

Use code FIRSTORDER to get 10% off your first order.


Use code REKHTA10 to get a discount of 10% on your next Order.


You can also Earn up to 20% Cashback with POP Coins and redeem it in your future orders.

Read Sample

क्रम

1.भटका मेघ - 9

2. सूर्य के लिए -12

3. स्वरों का समर्पण -14

4. आभास -15

5. मेरे मन -15

6. पुत्र का निवेदन -17

7. डगमग दो पाँव कहीं -19

8. दो चिड़ियों का गान -20

9. प्रतीक्षा -22

10. नगर निवासी -22

11. स्व-धन -23

12. घास -23

13. मैं -23

14. दिनारम्भ -24

15. प्रीति-भेंट -24

16. माँ की आँखें -24

17. एक मुर्दे का बयान -25

18. धुंध -26

19. माया-दर्पण -28

20. दिनचर्या -33

21. एक दिन -35

22. घर-धाम -38

23. नकली कवियों की वसुन्धरा -40

24. दिनारम्भ -44

25. वापसी -45

26. मेरी नियति थी -49

27. एक और ढंग -51

28. प्रेस वक्तव्य -52

29. फिर जन्म लेता है नगर -53

30. दूसरे का डर -53

31. समाधि लेख -55

32. बुखार में कविता -60

34. अन्तिम व्यक्तव्य -64

35.जलसाघर- 66

36. आध घण्टे की बहस - 71

37. विजेता - 74

38. चेकोस्लोवाकिया - 77

39. ढाका बेतार केन्द्र - 81

40. युद्ध नायक - 83

41. प्रजापति - 87

42. प्रक्रिया - 91

43. महामहिम - 92

44. स्तालिन पर्दे में रहता है - 93

45. जो - 93

46. जोसेफ अब्रु कुआ - 94

47. बाबर और समरकंद - 98

48. ट्रॉय का घोड़ा - 99

49. कलिंग - 102

50. मगध - 103

51. काशी में शव - 104

52. काशी का न्याय - 105

53. कोसाम्बी - 106

54. हस्तिनापुर का रिवाज - 107

55. चिल्लाता कपिलवस्तु - 107

56. उज्जयिनी - 109

57. कोसल गणराज्य - 110

58. कोसल में विचारों की कमी है - 111

59. वसन्तसेना - 112

60. अम्बपाली - 114

61. मित्रों के सवाल - 115

62. हवन - 116

63. कृपा है, महाकाल की - 116

64. जड़ - 118

65. जो युवा या - 119

66. मणिकर्णिका का डोम - 120

67. हस्तक्षेप - 121

68. तीसरा रास्ता - 123

69. रोहिताश्व - 125

70. दीवार पर नाम - 126

 

भटका मेघ

 

भटक गया हूँ-

मैं असाढ़ का पहला बादल !

श्वेत फूल-सी अलका की

मैं पंखुरियाँ तक छू सका हूँ

किसी शाप से शप्त हुआ

दिग्भ्रमित हुआ हूँ

शताब्दियों के अन्तराल में घुमड़ रहा हूँ, घूम रहा हूँ

कालिदास ! मैं भटक गया हूँ,

मोती के कमलों पर बैठी

अलका का पथ भूल गया हूँ

 

मेरी पलकों में अलका के सपने जैसे डूब गये हैं

मुझमें बिजली बन आदेश तुम्हारा

अब तक कड़क रहा है

आँसू धुला रामगिरी काले हाथी जैसा मुझे याद है

लेकिन मैं निरपेक्ष नहीं, निरपेक्ष नहीं हूँ

मुझे मालवा के कछार से

साथ उड़ाती हुई हवाएँ

कहाँ जाने छोड़ गयी हैं !

अगर कहीं अलका बादल बन सकती

मैं अलका बन सकता !

मुझे मालवा के कछार से

साथ उड़ाती हुई हवाएँ

 

आध घण्टे की बहस


दफ्तर में पिटने, दुनिया में जाकर चित होने, अथवा निकाले
जाने के बाद

क्या होता है, पिटकर आने के बाद, मैं सोचता हूं, मुझको
मतलब नहीं जहान से, मुझ को बनना है वह, जो मुझसे
पहले हो गये हैं, पिटने, चित होने, निकाले
जाने के बाद
मुझको लिखना है, बस,
पर मैं
उठता हूँ, भृकुटि -
लिखने का मतलब है नरक से गुज़रना
क्यों गुजरूं ?
तो जाओ,
उतरो वैतरणी अपने से पहले की पूँछ पकड़ पूँछ अभी
बाकी है।
अथवा गऊदान करो  अनुसंधान करो जाकर किसी
विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में,
साग में नमक, राजनीति में ईमान,
जीने में मज़ा
नहीं रहा नहीं रहा वह सब जिसे होना चाहिए था
ईसा की बीसवीं शताब्दी के अड़सठवें.
वर्ष में

हर्ष में भर कर देखती है कन्या दुनिया में चित होकर लगातार
घर की तरफ आते हुए
पिता को
चिता को
बुझाओ मत साध्वियां चली रही हैं, हया और बेशर्मी
फली और फूली

 

Customer Reviews

Be the first to write a review
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)
0%
(0)

Related Products

Recently Viewed Products