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Pratinidhi kavitayen : Gopal Singh Nepali
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गोपाल सिंह ‘नेपाली’ उत्तर छायावाद के प्रतिनिधि कवियों में कई कारणों से विशिष्ट हैं। उनमें प्रकृति के प्रति सहज और स्वाभाविक अनुराग है, देश के प्रति सच्ची श्रद्धा है, मनुष्य के प्रति सच्चा प्रेम है और सौन्दर्य के प्रति सहज आकर्षण है। उनकी काव्य-संवेदना के मूल में प्रेम और प्रकृति है।
ऐसा नहीं है कि ‘नेपाली’ के प्रेम में रूप का आकर्षण नहीं है। उनकी रचनाओं में रूप का आकर्षण भी है और मन की विह्वलता भी, समर्पण की भावना भी है और मिलन की कामना भी, प्रतीक्षा की पीड़ा भी है और स्मृतियों का दर्द भी।
‘नेपाली’ की राष्ट्रीय चेतना भी अत्यन्त प्रखर है। वे देश को दासता से मुक्त कराने के लिए रचनात्मक पहल करनेवाले कवि ही नहीं हैं, राष्ट्र के संकट की घड़ी में ‘वन मैन आर्मी’ की तरह पूरे देश को सजग करनेवाले और दुश्मनों को चुनौती देनेवाले कवि भी हैं।
‘नेपाली’ एक शोषणमुक्त समतामूलक समाज की स्थापना के पक्षधर कवि हैं—
वे आश्वस्त हैं कि समतामूलक समाज का निर्माण होगा। मनुष्य रूढ़ियों से मुक्त होकर विकास पथ पर अग्रसर होगा। प्रेम और बन्धुत्व विकसित होंगे और मनुष्य सामूहिक विकास की दिशा में अग्रसर होगा—
“सामाजिक पापों के सिर पर चढ़कर बोलेगा अब ख़तरा
बोलेगा पतितों-दलितों के गरम लहू का क़तरा-क़तरा
होंगे भस्म अग्नि में जलकर धरम-करम और पोथी-पत्रा
और पुतेगा व्यक्तिवाद के चिकने चेहरे पर अलकतरा
सड़ी-गली प्राचीन रूढ़ि के भवन गिरेंगे, दुर्ग ढहेंगे
युग-प्रवाह पर कटे वृक्ष से दुनिया भर के ढोंग बहेंगे
पतित-दलित मस्तक ऊँचा कर संघर्षों की कथा कहेंगे
और मनुज के लिए मनुज के द्वार खुले के खुले रहेंगे।” Gopal sinh ‘nepali’ uttar chhayavad ke pratinidhi kaviyon mein kai karnon se vishisht hain. Unmen prkriti ke prati sahaj aur svabhavik anurag hai, desh ke prati sachchi shraddha hai, manushya ke prati sachcha prem hai aur saundarya ke prati sahaj aakarshan hai. Unki kavya-sanvedna ke mul mein prem aur prkriti hai. Aisa nahin hai ki ‘nepali’ ke prem mein rup ka aakarshan nahin hai. Unki rachnaon mein rup ka aakarshan bhi hai aur man ki vihvalta bhi, samarpan ki bhavna bhi hai aur milan ki kamna bhi, prtiksha ki pida bhi hai aur smritiyon ka dard bhi.
‘nepali’ ki rashtriy chetna bhi atyant prkhar hai. Ve desh ko dasta se mukt karane ke liye rachnatmak pahal karnevale kavi hi nahin hain, rashtr ke sankat ki ghadi mein ‘van main aarmi’ ki tarah pure desh ko sajag karnevale aur dushmnon ko chunauti denevale kavi bhi hain.
‘nepali’ ek shoshanmukt samtamulak samaj ki sthapna ke pakshdhar kavi hain—
Ve aashvast hain ki samtamulak samaj ka nirman hoga. Manushya rudhiyon se mukt hokar vikas path par agrsar hoga. Prem aur bandhutv viksit honge aur manushya samuhik vikas ki disha mein agrsar hoga—
“samajik papon ke sir par chadhkar bolega ab khatra
Bolega patiton-daliton ke garam lahu ka qatra-qatra
Honge bhasm agni mein jalkar dharam-karam aur pothi-patra
Aur putega vyaktivad ke chikne chehre par alakatra
Sadi-gali prachin rudhi ke bhavan girenge, durg dhahenge
Yug-prvah par kate vriksh se duniya bhar ke dhong bahenge
Patit-dalit mastak uuncha kar sangharshon ki katha kahenge
Aur manuj ke liye manuj ke dvar khule ke khule rahenge. ”

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अनुक्रम

 

उमंग (1934) से विद्रोही

1. उमंग - 13

2. गीत - 14

3. चिह्न - 14

4. परिचय - 15

5. जीवन-संगीत - 17

6. पंछी - 19

7. हरी घास - 21

8. झलक - 22

9. हम - 23

10. सत्याग्रह - 24

11. स्वागत - 25

12. चित्र - 26

13. स्वतन्त्रता की ओर - 28

14. उद्गार - 29

 

रागिनी (1935) से

1. अन्तरा - 29

2. पावस और कवि - 30

3. टुकड़ी – 31

4. चाँदनी में – 31

5. विद्रोही -32

6. भाई-बहन – 33

7.  रैन बसेरा – 34

 

नीलिमा (1939) से

1. नीलिमा - 35

2. नूपुर आज बजाओ ना - 36

3. इस रिमझिम में चाँद हँसा है – 39

4. दबे पाँव तुम आई रानी - 43

5. गंगा किनारे – 45

6. देख रहे हैं महल तमाशा - 48

7. कोई - 55

 

पंचमी (1942) से

1. भोर - 57

2. छवि की जाल - 57

3. रूप-दीप - 59

4. पतझड़ में भी आना - 60

5. तीर लक्ष्य पर छूट चुका - 62

6. कवि - 67

7. विश्व सुन्दरी - 69

8. यह दिल खोल तुम्हारा हँसना - 71

9. तुम मेरी वन्दना मानो - 71

10. तुम और मैं - 75

11. मैं प्यार माँगता हूँ - 77

12. मैं प्रकाश से खेल रहा हूँ - 78

13. स्व. रवीन्द्रनाथ ठाकुर - 79

14. बीन पर सो जाऊँगा मौन - 81

 

नवीन (1944) से

 

1. नवीन - 83

2. दीपक जलता रहा रात-भर - 85

3. स्वतन्त्रता का दीपक - 87

4. कवि और कविता -882. नया संसार – 91

5. मैं गायक हूँ स्वच्छन्द हिमांचल का – 93

6. दे दो मुझको अपनी ज्वाला - 95

7. तुमने मेरा दर्द जाना - 97

8. दर्द में या प्यार में - 100

9. तुलसीदास - 102

10. आज जवानी के क्षण में - 104

11. मन का पंछी - 105

12. जिन्दगी – 107

 

हिमालय ने पुकारा (1963) से

 

1. है ताज हिमालय के सिर पर - 110

2. यह मेरा हिन्दुस्तान है - 111

3. मेरा देश बड़ा गर्वीला - 114

4. नवीन कल्पना करो - 115

5. अमर सेनानी गांधी – 118

6. शासन चलता तलवार से - 122

7. हिन्दी है भारत की बोली - 124

8. बापू, तुम्हारी प्रार्थना - 127

9. जवाहरलाल – 128

10. मेरा धन है स्वाधीन कलम - 131

11. इतिहास बदलने वाले हैं - 133

12. मनुष्य की समानता - 134

13. मनुष्य तोड़ता चला - 135

14. नजर है नई तो नजारे पुराने - 137

15. चाँदनी में झोपड़ी - 140

16. चल रहा है आदमी - 142

17. मुस्कान पुरानी कहाँ हुई - 144

18. नई उमरिया प्यासी है - 146

19. यहाँ शहीदं समय का ज्ञानी - 147

20. भारत अखंड, भारत विशाल - 149

 

 

उमंग

ऐसी मेरे मन की उमंग
रहती , कहाँ किसके संग
मेरे मानस का मुकुल मूल
था डाली पर रे रहा झूल
वन की सुषमा पर रीझ, भूल
खिल उठा तुरत, हो गया फूल
ये पीले, नीले, लाल रंग
जैसी मेरे मन की उमंग
उड़तीं पतंग पाँखें पसार
ऊपर, बयार में बार-बार.
पर बिना पवन, कुछ भी पार
बस उसी तरह रे आर-पार
उड़ सके गगन में जो पतंग
वैसी मेरे मन की उमंग
आती है जब मन में उमंग
लाती सपना छन में उमंग
तन में उमंग, धन में उमंग
यौवन में, जीवन में उमंग
करती है पुलकित अंग-अंग
कैसी मेरे मन की उमंग

  

लगती थी तुम प्यारी-प्यारी
अपनी नादानी सी !
तुमने हमने मिलकर जग में
अपने बाग लगाए
जीवन-मन्दिर में दोनों ने
यौवन- राग जगाए।
मन के भीतर मुझे छिपाए
बाहर पर्दा डाले
तुमने अपने प्रेम-नेम भी
खूब निराले पाले

 
गंगा किनारे


कुछ देर यहाँ दिल जमता है,
कुछ देर तबीयत लगती है !
आँखों का पानी गरम समझ
यह दुनिया आँसू कहती है,
हर सुबह-शाम को घासों पर
फिर ओस नरम पड़ रहती है;
लहरों में आँसू-ओस लिये
वैसे ही गंगा बहती है !
कुछ देर यहाँ दिल जमता है,
कुछ देर तबीयत लगती है!
उठकर पश्चिम से आती है,
चलकर पूरब को जाती है,
अपनी धुन में चल पड़ती है,
अपनी धुन में कुछ गाती है;
पर्वत का देश दिखाती है,
सागर की राह बताती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

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