क्रम
भूमिका . . . . . . . . . . . . . . . . . . 9
डायरी का पन्ना . . . . . . . . . . 11
अ पर ओ की मात्रा . . . . . . . . 13
स . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 24
क पर ई मी मात्रा . . . . . . . . 51
ब पर ऊ की मात्रा . . . . . . . . 76
चन्द्र बिन्दु . . . . . . . . . . . . 89
द . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 138
बयान-ए-तहरीरी . . . . . . . . . 151
भूमिका
बड़े-बूढ़ों ने कई बार कहा कि गालियाँ न लिखो। जो 'आधा गाँव' में इतनी गालियाँ न होतीं तो तुम्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य मिल गया होता। परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि क्या मैं उपन्यास इसलिए लिखता हूँ कि मुझे साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिले? पुरस्कार मिलने में कोई नुक़सान नहीं, फ़ायदा ही है। परन्तु मैं साहित्यकार हूँ। मेरे पात्र यदि गीता बोलेंगे तो मैं गीता के श्लोक लिखूँगा। और वे गालियाँ बकेंगे तो मैं अवश्य उनकी गालियाँ भी लिखूँगा। मैं कोई नाज़ी साहित्यकार नहीं हूँ कि अपने उपन्यास के शहरों पर अपना हुक्म चलाऊँ और हर पात्र को एक शब्दकोश थमाकर हुक्म दे दूँ कि जो एक शब्द भी अपनी तरफ़ से बोले तो गोली मार दूँगा। कोई बड़ा-बूढ़ा यह बताए कि जहाँ मेरे पात्र गाली बकते हैं, वहाँ मैं गालियाँ हटाकर क्या लिखूँ? डॉट-डॉट-डॉट? तब तो लोग अपनी तरफ़ से गालियाँ गढ़ने लगेंगे! और मुझे गालियों के सिलसिले में अपने पात्रों के सिवा किसी पर भरोसा नहीं है।
क पर ई की मात्रा
शहरनाज़ तो पढ़ने के लिए अलीगढ़ चली गई। और यहाँ शहला अपनी पागल दादी, कुढ़ते हुए दादा, उदास माँ और साँय-साँय करते हुए घर के साथ अकेली रह गई। अब जी घबराए तो वहशत के घर भी नहीं जा सकती थी। क्योंकि अब वहाँ जाने का कोई बहाना-वहाना नहीं था। वह वहाँ जाकर यह तो नहीं कह सकती थी न कि वहशत की एक झलक देखने या उसकी आवाज़ सुनने या उस पलंग पर लेट जाने के लिए आई है, जिस पर वहशत लेटता है।
शहला का प्यार बिलकुल पर्दे की बूबू था। वह उसे दुनिया भर के ख़यालों के गूदड़ में छिपाकर रखती थी। बस, जब आसपास कोई न होता तो दिमाग़ के तमाम दरवाज़े और दरीचे ख़ूब जमका के बन्द करने के बाद वह गुदड़ी की पोटली निकालती और उसमें से अपने प्यार के टुकड़े अलग करती और अपनी उँगलियों से सहला-सहलाकर उनकी शिकनें दूर करती...
वह, उन्होंने शेर पढ़ते-पढ़ते माथे पर आए हुए बालों को ऊपर उठाया...। वह, उन्होंने अन्दर आने से पहले अम्माँ को आवाज़ दी...
ब पर ऊ की मात्रा
ठाकुर शिवनारायण सिंह वकील ने शहला की तरफ़ से इस्तिगासा दायर कर दिया। यह ख़बर शहर में आग की तरह फैल गई। ठाकुर साहब का ख़याल भी यही था। बेचारों की वकालत चलती नहीं थी। इसलिए जब उन्हें पता चला कि शहला एक हिन्दू वकील तलाश कर रही है और हिन्दू वकील मिल नहीं रहा है तो उन्होंने कोशिश की कि वह मुक़दमा उन्हें मिल जाए। उनका ख़याल था कि यह मुक़दमा लेते ही मुसलमानों के सारे मुक़दमे उनके पास आ जाएँगे। उनका यह ख़याल ग़लत भी नहीं था। वकालतनामे पर दस्तख़त करते ही वह शहर के मुसलमानों के लीडर हो गए और हयातुल्लाह अंसारी बड़ी मुश्किल में फँस गए।
"इ मुसलमान वकील तो साले पैदाइशी गाँडू हैं।" बद्रुद्दीन 'मुफ़लिस' ग़ाज़ीपुरी ने रफ़ी बीड़ी सुलगाते हुए कहा।
"ठाकुर फिरो ठाकुर है।" मजीन रिक्शेवाले ने कहा।
"अउर का। इ लोग तो बात पर जान देवे में कानी कब से मशहूर चले आ रहें।" कोई और बोला।