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मैं ही इस कहानी का उनवान भी हूँ और कहानी भी ... मैं नीम का बूढ़ा
पेड़... गाँव के बच्चे मेरे नीचे बैठकर मेरी निमकौलियों के हार गूँथते हैं... खिलौने
बनाते हैं मेरे तिनकों से... माँओं की रसीली डाँटें घरों से यहाँ तक दौड़-दौड़कर
आती रहती हैं कि बच्चों को पकड़कर ले जाएँ मगर बच्चे अपनी हँसी की
डोरियों से बाँधकर उन डाँटों को मेरी छाँव में बिठला देते हैं... मगर सच पूछिए
तो मैं घटाएँ ओढ़कर आनेवाले इस मौसम का इन्तजार किया करता हूँ... बादल
मुझे देखकर ठट्ठा लगाते हैं कि लो भई नीम के पेड़ हम आ गए...इस मौसम
की बात ही और होती है क्योंकि यह मौसम नौजवानों का भी होता है.... मेरे
गिर्द भीड़-सी लग जाती है... मेरी शाखों में झूले पड़ जाते हैं... लड़कियाँ सावन
गाने लगती हैं...
मुझे ऐसी-ऐसी कितनी बातें याद हैं जो सुनाना शुरू करूँ तो रात खत्म
हो जाए मगर बात रह जाए... आज जब मैं उस दिन को याद करता हूँ जिस
दिन बुधई ने मुझे लगाया था तो लगता है कि वह दिन तो जैसे समय की
नदी के उस पार है... मगर दरअसल ऐसा है नहीं । मेरी और बुधई के बेटे
सुखई की उम्र एक ही है.... ।
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जो कुछ हिन्दुस्तान पर गुजरी, उसमें मैं एक मामूली नीम का पेड़। मैं तो खुद
अपनी कहानी भी भूल गया। कहने को तो सियासत ने एक लकीर खींची,
मगर वह लकीर आग और खून का एक दरिया बन गई और हजारों-हजार
लोग अपनी जड़ों समेत वह गए उस दरिया में... और मैं यहाँ अकेला खड़ा
देखता रहा और सुनता रहा...उस बरस बरसात तो आई मगर झूले नहीं पड़े,
गाने नहीं गाए गए क्योंकि गाने गलों में अटक गए थे ! मगर ख़ून बहुत
बहा... लकीर के इधर भी बहा और लकीर के उधर भी बहा... लेकिन उसके
बाद क्या हुआ सारे लीडर धुले-धुलाए कपड़े पहनकर बाहर आ गए और मेरी
कहानी को पहला झटका लगा ।
ज़ामिन मियाँ तो सोच रहे थे कि चलो पाकिस्तान बन गया तो मुसलिम
मियाँ पाकिस्तान चले जाएँगे और कुबरा बीबी की दुखतरी का किस्सा साथ
खैरियत के खत्म हो जाएगा... मगर मुसलिम मियाँ तो पाकिस्तान नहीं गए।
वह तो लखनऊ चले गए और डिप्टी मिनिस्टर बन गए...
वज़ीर हो गए मुसलिम मियाँ । जामिन मियाँ जिन्हें एक दफा राजा साहब
महमूदाबाद ने खुद ही मुस्लिम लीग में शामिल हो जाने का न्यौता दिया था
और उन्होंने ठुकरा दिया था ।... मुसलिम मियाँ अपने कमरे में जिन्ना साहब
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सत्ता का अपना एक नशा होता है और अपनी जात भी । जो भी उस तक
पहुँचता है उसकी जात का ही हो जाता है। जो उसकी रंगत में नहीं रँगना
जानता है वह उस तक कभी नहीं पहुँच सकता। कभी नहीं पहुँच पाता। उस
तक पहुँचने के लिए उसकी ताकत को ही सलाम करना पड़ता है ।
अब कौन समझाए बुधीराम वालिद सुखीराम एम.पी. को ! कहते हैं न.
ताकतवरों के ऐव नहीं होते, उनके शौक होते हैं। अवाम जिसे गुनाह समझती
है वो तो इनके शौक हुआ करते हैं।
कभी जो लाला ज़ामिन मियाँ के हुक्के की चिलम भरा करते थे। भले
ही ज़ामिन मियाँ की ज़मींदारी चली गई पर उनकी ही ज़मीन से लाला ज़मींदार
बन बैठे और मौका मिलते ही सुखीराम के राज़दार बन बैठे । सामिन मियाँ
कभी सुखीराम का दाहिना हाथ होता था पर उसमें एक ही ऐब थी कि हराम
के पैसे के लेन-देन में नहीं पड़ता था । अब सियासत मेहनत और ईमानदारी
का खेल तो रह नहीं गया। गाँधीजी का जमाना तो रहा नहीं और गाँधी को
भी जो घनश्यामदास बिड़ला और सेठ जमनालाल बजाज का पैसा न मिला
होता तो क्या खाक सियासत कर पाते। लेकिन सामिन मियाँ तो दूसरी ही
मिट्टी का बना था ।
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जीवन आज़ादी के बाद की उस पीढ़ी की नुमाइन्दगी करता था जिन्होंने दूसरों
के सहारे सत्ता को साधना सीख लिया था । यानी हर सरकार में उनका सिक्का
उससे नेताओं चलता था। जितनी उनको नेताओं की ज़रूरत होती थी,
को उनकी ज़रूरत होती थी। जो भी सत्तानशीन होता था, उसके आस-पास
ज़्यादा घूमनेवाली पौध। यह एक ऐसी जमात थी जिनका रंग समाज में जमा रहता
था। किसी का भी काम कराने को तत्पर रहते थे । ये अलग बात थी कि
किसी सेवा-भाव से नहीं करते थे, बल्कि मेवा देखकर ही काम करते थे। इतनी
ख़ूबी उनकी और जोड़ लीजिए कि जिसके साथ होते थे तब उनकी वफादारी
सिर्फ़ उसी के लिए होती थी ।
तो यह काम जीवन के मत्थे था कि ऐसी कोई नायाब चाल ढूँढ़ें कि इलाके
में सामिन मियाँ-सामिन मियाँ की जगह रामखिलावन भाई - रामखिलावन भाई
की धूम मच जाए। कोई ऐसी तरकीब ! जीवन इसी की तो कमाई खाता था ।.
अपने नेता की हर मुश्किल आसान करना ही उसका कर्त्तव्य था । वह इसकी
जुगत भिड़ाने में जुट गया। सियासत भी कमाल की शै है । मैंने तो पीढ़ियाँ देख लीं यहाँ खड़े-खड़े । नीम