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Mohabbat Karke Dekho Na : "Kashka Khincha Dair Mein Baitha" ka Sanshipt Sanskaran
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फ़रहत एहसास अपने समकालीनों में एक मुमताज़ शाइर हैं। इससे पहले फ़रहत एहसास के एक-दो छोटे-छोटे संग्रह उर्दू लिपि में प्रकाशित हुए हैं जो किसी भी तरह उनकी कुल रचनात्मकता की नुमाइंदगी नहीं करते। मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि ‘रेख़्ता’ उनकी शाइरी के तमाम रंगों पर आधारित एक संचयन प्रकाशित करे। आज से तीन बरस पहले देखे गए इस ख़्वाब की ताबीर की शक्ल में ये किताब आपके हाथों में है। मैं इसे अपनी ख़ुशनसीबी समझता हूँ कि उनकी शाइरी को उसके हज़ारों पाठकों तक पहुँचाने का श्रेय मेरे हिस्से में आया। इस सफ़र में सबसे मुश्किल मर्हला फ़रहत एहसास को राजी करना था। उनकी तख़लीक़ी बेनियाज़ी उन्हें अपनी शाइरी बाज़ार तक लाने से रोकती रही है। उन्हीं का शे’र है—
एक के बाद एक मज्मूआ मिरा आता रहा
और मैं शाइर बिचारा ग़ैर-मत्‍बूआ रहा।
ऐसे महत्त्वपूर्ण शाइर के कलाम का इन्तिख़ाब करके हम ख़ुशी और फ़ख़्र महसूस करते हैं। फ़रहत एहसास की शाइरी की तरह उनकी ज़िन्दगी भी मेरे लिए उतनी ही पुरकशिश है। उनसे तआरुफ़ का अर्सा अगरचे अभी मुख़्तसर है लेकिन सोचने पर ऐसा लगता है कि हम बरसों के शनासा हैं। ऐसे हम-रंग और हम-मिज़ाज से मिलना मेरे लिए एक ख़ुशगवार अनुभव रहा।
फ़रहत एहसास के मिज़ाज की क़लन्दरी बेबाक़ी और बज़्लासन्जी, उन्हें हरदिल अज़ीज़ बनाती है। फ़रहत एहसास की दिलचस्पियाँ सिर्फ़ शाइरी तक सीमित नहीं हैं, बल्कि संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, धर्मशास्त्र, अध्यात्म, मौसीक़ी और फ़लसफ़े पर उनसे बातचीत एक रौशनी अता करती है। इसके अलावा उनका खुला-डला तर्ज़, व्यापकता और इनसान-दोस्ती का रवैया मेरे लिए ज़ाती तौर पर बहुत मुतास्सिर करनेवाला रहा।
ये मेरी ख़ुशबख़्ती है कि मुझे एक ऐसे शाइर और एक ऐसे इनसान से मिलने, उसके साथ वक़्त गुज़ारने और उनकी शाइरी और शख्स़ियत को इतने क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। उम्मीद है कि उर्दू शाइरी के बाज़ौक़ पाठकों में हमारी ये पेशकश भी मक़बूल होगी।


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फ़ेह्‍‌रिस्त


1 ख़ाक है मेरा बदन ख़ाक ही उस का होगा
2 दोनों का ला-शुऊ’र है इतना मिला हुआ
3 रात को दरकार था कुछ दास्तानी रंग का
4 एक दम दिल में उतर जाए जो ख़न्जर आप का
5 आ’म सा इक शख़्स है ये फ़रहत एहसास आप का
6 ये इ’श्क़ वो है कि जिस का नशा न उतरेगा
7 बाहर की क्या याद आए घर याद नहीं आता
8 मुझ को सरशार किए रखती है इक मानुस-गंध
9 मोहब्बत का सिला कार-ए-मोहब्बत से नहीं मिलता
10 तू मुझ को जो इस शह्र में लाया नहीं होता
11 हमें बनाते हुए ख़ुद बिगड़ गया है ख़ुदा
12 ख़लल आया न हक़ीक़त में न अफ़्साना बना
13 कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना
14 हमें अपने ही जैसा दूसरा होने का वक़्त आया
15 इस सलीक़े से वो मुझ में रात भर रह कर गया
16 शायद मैं अपने जिस्म से बाहर निकल गया
17 जब से हम ने बाज़ुओं में ज़ोर पैदा कर लिया
18 दबा पड़ा है कहीं दश्त में ख़ज़ाना मिरा
19 ईमाँ का लुत्फ़ पहलू-ए-तश्कीक में मिला
20 जो इ’श्क़ चाहता है वो होना नहीं है आज
21 इस तरह आता हूँ बाज़ारों के बीच
22 मुशाइ’रे नज़र आते हैं मंडियों की तरह
23 आँसुओं का एक हल्क़ा1 खींच कर
24 करनी पड़ेगी जिस्म से पहचान जान कर
25 मौत मेरा इक ज़रा सा काम कर
26 ख़ाना-साज़ उजाला मार
27 कैसे इन्सान हैं हम रीढ़ की हड्डी के बग़ैर
28 रात बहुत शराब पी रात बहुत पढ़ी नमाज़
29 किसी को कैसे दिखाऊँ मैं अपनी रात के खेल
30 इ’श्क़ में कितने हज़ार-इम्कान हो जाते हैं हम
31 तुम सोने चांदी की कान और लोहा-लक्कड़ हम
32 कभी थे हमसफ़र राह-ए-मोहब्बत में ख़ुदा और हम
33 रास्ता दे ऐ हुजूम-ए-शह्र घर जाएँगे हम
34 इ’श्क़ के काम को अन्जाम नहीं करते हम
35 खोलते हैं ज़ुल्फ़ उस की पूरी हुश्यारी से हम
36 जितने दरिया हैं समुन्दर की तरफ़ खुलते हैं
37 वो दिन भी आए कि हम ये अ’जीब खाना खाएँ
38 पैकर-ए-अ’क़्ल तिरे होश ठिकाने लग जाएँ
39 न ये मुम्किन कि अपने दर्द को तहलील कर दूँ
40 ख़िलाफ़-ए-गर्दिश-ए-मा’मूल होना चाहता हूँ
41 पहले दरिया से सहरा हो जाता हूँ
42 मैं बदन के अबद-आबाद का बाशिन्दा हूँ
43 हवा बहुत तेज़ चल रही है मैं ख़ुद को भी तेज़ कर रहा हूँ
44 रक़्स-ए-इल्हाम कर रहा हूँ
45 बे-रब्ती-ए-जिस्म-ओ-जाँ फ़ुज़ूँ-तर
46 मैं जो भी ज़िन्दगी सी कर रहा हूँ
47 मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ
48 मेरा तो कोई शे’र किसी बह्र में नहीं
49 अ’जब विसाल कि तक़्रीब-ए-रूनुमाई नहीं
50 सब ने’मतें हैं शह्र में इन्सान ही नहीं
51 जल्सा ये ता’ज़ियत का अभी मुल्तवी रखें
52 वो कह रहे हैं जो हम से ख़ुदा की हम्द लिखें
53 हमारा ख़्वाब कुछ, कुछ और है ता’बीर आँखों में
54 ये हुस्न आया है जब से हमारी बस्ती में

1

ख़ाक है मेरा बदन ख़ाक ही उस का होगा
दोनों मिल जाएँ तो क्या ज़ोर का सहरा होगा

फिर मिरा जिस्म मिरी जाँ से जुदा है देखो
तुम ने टाँका जो लगाया था वो कच्चा होगा

तुम को रोने से बहुत साफ़ हुई हैं आँखें
जो भी अब सामने आएगा वो अच्छा होगा

रोज़ ये सोच के सोता हूँ कि इस रात के बा’द
अब अगर आँख खुलेगी तो सवेरा होगा

क्या बदन है कि ठहरता ही नहीं आँखों में
बस यही देखता रहता हूँ कि अब क्या होगा


2

दोनों का ला-शुऊ’र1 है इतना मिला हुआ

उस ने जो पी शराब तो मुझ को नशा हुआ

1 अवचेतन

कैसा खटक रहा है तसव्वुफ़1 के पाँव में

इक जिस्म ख़ानक़ाह2 के दर पर पड़ा हुआ

1 अध्यात्म 2 सूफ़ियों का मठ

पैदा किया दोबारा मुझे उस के जिस्म ने

मैं जो बराए-वस्ल1 गया था मरा हुआ

1 मिलने के लिए

दुनिया की हर नमाज़ का मुझ को मिला सवाब1

मस्जिद का अन्दरून है मुझ पर खुला हुआ

1 पूण्य

ये भी मिरे चराग़-ए-ख़मोशी1 का फ़ैज़2 है

चारों तरफ़ है शोर हवा का मचा हुआ

1 ख़ामोशी का चराग़ 2 फ़ायदा

उस ने पढ़ी नमाज़ तो मैं ने शराब पी

दोनों को, लुत्फ़ ये है, बराबर नशा हुआ

देखा नहीं कभी न मुलाक़ात ही हुई

एहसास जी का नाम है लेकिन सुना हुआ


3

रात को दरकार था कुछ दास्तानी1 रंग का

हम चराग़-ए-ख़ामुशी लाए ज़बानी रंग का

1 काल्पनिक

उस ने पेशानी1 हमें दी है ज़मीनी रंग की

और सज्दा चाहता है आस्मानी रंग का

1 माथा

गेहुँवें-पन1 ने निकलवाया था जन्नत से हमें

जान-ए-मन अब के करेंगे इ’श्क़ धानी रंग का

1 गेहूँ जैसा होना

इ’श्क़ ने तो मेरा चेहरा ही बदल कर रख दिया

ऐसा आईना दिखाया उस ने सानी1 रंग का

1 दूसरा

हम मोहब्बत करने वालों की ज़िदें1 भी हैं अ’जीब

चाहिए इक वाक़िआ’2 लेकिन कहानी रंग का

1 ज़िद (हठ) का बहु 2 घटना

शायद अब उकता गए सहरा-नवर्दी1 से ग़ज़ाल2

चाहते हैं कोई वीराना मकानी रंग का

1 रेगिस्तान में घूमना 2 हिरण

फ़रहत एहसास उस की मिट्टी की समाअ’त1 खिल उठी

शे’र जब मैं ने सुनाया तेरा पानी रंग का

1 सुनने की क्षमता


4

एक दम दिल में उतर जाए जो ख़न्जर आप का

फ़रहत एहसास अपना बन जाए क़लन्दर1 आप का

1 संत, फ़क़ीर

हो के चकना-चूर फिर पुर-नूर1 होना है मुझे

कब मिरे शीशे से टकराएगा पत्थर आप का

1 रौशनी से भरा हुआ

रक़्स1 मेरा जिस्म चाहे जिस तसव्वुर2 में करे

रक़्स के पेश-ए-नज़र3 रहता है महवर4 आप का

1 नृत्य 2 कल्पना 3 आँखों के सामने 4 नृत्य का केंद्र

सख़्त हैरत में पड़े हैं शह्​र भर के अह्​ल-ए-वस्ल1

रात भर ख़ाली पड़ा रहता है बिस्तर आप का

1 मिलन वाले

भीड़ में से सर उठा कर इस क़दर मत देखिए

भीड़ वर्ना काट कर ले जाएगी सर आप का

आप तो बस एक शब आग़ोश1 में आ जाइए

सुब्ह होने तक निकल जाएगा सब डर आप का

1 आलिंगन

मुझ को अपनी एक क़त्रा हुक्मरानी1 चाहिए

और इस के बा’द फिर सारा समुन्दर आप का

1 सत्ता

बेचता है थोक में, तन्क़ीद1 का बाज़ार उसे

फ़रहत एहसास अपने शे’रों में है फुटकर आप का

1 आलोचना


5

आ’म सा इक शख़्स है ये फ़रहत एहसास आप का

इ’श्क़ ने इस को बनाया है मगर ख़ास आप का

आप तन्हाई में कब मिलते हैं कुछ तो बोलिए

ख़त्म कब होता है आईने में इज्लास1 आप का

1 सम्मेलन

और कितना पास आऊँ मैं कि पास आ जाएँ आप

कुछ तो कहिए और कितनी दूर है पास आप का

साहिबा1 हम को गले से भी लगा लीजे कभी

कब तलक क़दमों में ही बैठा रहे दास आप का

1 ऐ मित्र

गोश्त मेरे जिस्म का तारीक1 हो जाता है क्यों

शाम आते ही दमक उठता है क्यों मास आप का

1 अंधेरा

वो जो हैं इक जौहरी1 से फ़रहतुल्लह ख़ान हैं

ये लफ़ंगा जो है, वो है फ़रहत एहसास आप का

1 हीरे आदि परखने वाला


6

ये इ’श्क़ वो है कि जिस का नशा न उतरेगा

इस आस्मान से अब ये ख़ुदा न उतरेगा

ये रंग-ए-गिर्या1 रहेगा जो तेरे कूचे में

इधर से कोई भी हंसता हुआ न गुज़रेगा

1 विलाप का तौर

जो तेरे पाँव फ़लक1 पर धरे रहे यूँही

ज़मीं पे सब्ज़ा-ए-रंग-ए-हिना2 न उतरेगा

1 आकाश 2 मेंहदी के रंग की हरियाली

लगा दिया जो उसे मेरे ख़ून-ए-नाहक़1 ने

ज़बान-ए-शह्​र2 से अब ये मज़ा न उतरेगा

1 निर्दोष का ख़ून 2 शह्​र की ज़बान

उतार लाए किसी भी ग़ुबार-ए-राह1 का अ’क्स

अब इस क़दर भी मिरा आइना न उतरेगा

1 रास्ते की धूल

नदी पे मोह्​र लगा दी शनावरी1 ने मिरी

इस आब-ए-ख़ास2 में अब दूसरा न उतरेगा

1 तैराकी 2 ख़ास पानी

लज़ीज़ भी है रवाँ भी बहुत मगर एहसास

मिरे गले से तिरा ज़ाएक़ा1 न उतरेगा

1 स्वाद


7

बाहर की क्या याद आए घर याद नहीं आता

अब तो अपना जिस्म भी अक्सर याद नहीं आता

ज़ख़्मों की सारी तहरीरें1 यक्साँ2 लगती हैं

किस ने मारा पहला पत्थर याद नहीं आता

1 लिखावट 2 एक जैसी

कहाँ उठाया कहाँ झुकाया कहाँ कटाया था

इतने किर्दारों1 वाला सर याद नहीं आता

1 चरित्र

रूह कहाँ की जब जिस्म-ओ-जाँ पर बन आई हो

कोई क़लन्दर1 कोई पयम्बर2 याद नहीं आता

1 पीर-फ़क़ीर 2 देवदूत

करते करते रक़्स1 ठहर जाता हूँ घबरा कर

जब भी अपने रक़्स का महवर2 याद नहीं आता

1 नृत्य 2 केन्द्रबिन्दु, धुरी

अपनी शान-ए-नुज़ूल1 समझ में आने लगती है

जब कोई अपने से बरतर2 याद नहीं आता

1 आने का कारण 2 बड़ा, बेहतर

क़तरे1 ने आप अपनी शख़्सिय्यत2 हासिल कर ली

बाग़ी को अब मुल्क-ए-समुन्दर याद नहीं आता

1 बूँदें 2 व्यक्तित्व

तुझ को तो सब याद है जान-ए-मन1 फ़रहत एहसास

तू ही क्यों फिर आगे बढ़ कर याद नहीं आता

1 मेरी जान


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