25 अक्तूवर 1925, फ्रांस का दक्षिणी इलाका । शरद ऋतु की थोड़ी गरम, सुहानी
सुबह। 33 वर्षीया अंग्रेज महिला मेडलिन स्लेड मार्सेलिस वन्दरगाह पर खड़े पी एंड
ओ पोत के जेट्टी तक आ जाती हैं । यह पोत दिन में बम्बई की ओर रवाना होनेवाला
है। यह जहाज तड़के सुबह से ही अपने इंजन को गरम कर रहा है। दोपहर से ठीक
पहले वह अपने विशाल लंगर को समेटता है और वन्दरगाह से बड़ी शान के साथ
सरकने लगता है। इसके साथ ही वह अपनी परिचित शैली में सलाम ठोंकने की मुद्रा
में अपने भोंपू से छह आवाज़ लगाता है। मेडलिन यूरोप की छूटती तटरेखा को देखने
के लिए जहाज की छत पर आकर लोहे की रेलिंग से अड़ कर खड़ी नहीं होतीं ।
अधिकतर दूसरे यात्रियों के विपरीत मेडलिन के लिए यह कोई विदाई का मौका नहीं
था। अधिकतर ब्रिटिश लोग या तो पहली बार किसी उपनिवेश की ओर जा रहे होते
थे या घर पर छुट्टी विताकर अपने श्वेत मित्रों का बोझ वाँटने के लिए काम पर
लौट रहे होते थे, लेकिन मेडलिन तो एक आदिम उम्मीद से भरी दुनिया की ओर जा
रही थीं ।
उनका सामान था-लोहे के दो नए सन्दूक और गाय के उम्दा चमड़े से बना
थैला, जिसके पीतल के वकलस और किनारों को मजबूती देनेवाली पीतल की पट्टियाँ
हाल में ही चमकाई गई थीं । सन्दूकें किताबों से भरी थीं। ये किताबें उनके निजी
पुस्तकालय से चुनी गई थीं। किशोरवय से इकट्ठा की गईं उनकी किताबों की संख्या
चार सौ से ऊपर पहुँच चुकी थी। वे खासतौर से दर्शन और इतिहास की पुस्तकें चुन
कर साथ ले जा रही थीं । निर्वैयक्तिक ज्ञान की भंडार ये पुस्तकें उन्हें उस अतीत
से जोड़ने में असमर्थ थीं जिससे वे पीछा छुड़ाना उतना नहीं चाहती थीं जितना उसे
यादों की सुरक्षित तिजोरी में बन्द कर देना चाहती थीं। अपनी समुद्री यात्रा के दौरान
उन्होंने जिन पुस्तकों में ध्यान केन्द्रित करने के लिए उन्हें हाल में खरीदा था वे उर्दू
व्याकरण, भागवत गीता और ऋग्वेद का फ्रांसीसी अनुवाद, फ्रांसीसी - अंग्रेजी का
विशाल शब्दकोप और हाल में प्रकाशित गांधी की दो जीवनियाँ थीं जिनमें से एक,
फ्रांसीसी भाषा में थी- रोमाँ रोलाँ की 'महात्मा गांधी' । कुछ समय के लिए मेडलिन
ने विचार किया था कि ज्याँ क्रिस्तॉफे साथ रखें या नहीं। संगीतकार बीथोवेन के
जीवन पर दस खंडों में लिखे रोला के इस उपन्यास को उन्होंने पिछले कुछ वर्षो में
तीन
सन् 1925 में साबरमती आश्रम छह वर्ष पुराना हो चुका था। गांधीजी ने इसके लिए
स्थान का चयन काफी सावधानी से किया था। उन्हें पता था कि प्रसिद्ध दधीचि मुनि
का आश्रम सावरमती के तट पर उसी स्थान पर था, या कम से कम काफी करीब
था । आधुनिक भारतीय इतिहास नहीं बल्कि हिन्दू पौराणिक कथा के दधीचि मुनि
के बारे में किंवदंती प्रचलित है कि उन्होंने अपनी हड्डियाँ इन्द्र देवता को दान दी
थीं। उनकी पसली की हड्डियों से इन्द्र ने वज्र का निर्माण किया था और दानवों को
पराजित किया था ।
आश्रम की ज़मीन पर गारा, ईंटों और लकड़ी से कई कुटियाएँ बनाई गई थीं
जिनकी खपरैल की छतों को अलकतरे से पोता गया था ताकि बारिश में उनसे पानी
न चुए। नदी तट के ठीक ऊपर गांधीजी की कुटिया में तीन कमरे, एक रसोईघर
और एक भंडारघर था । कस्तूरबा पीछे के दो में से एक कमरे में रहती थीं, एक कमरा
मेहमानों के लिए था। गांधीजी सामने वाले कमरे में रहते थे जिसके साथ एक बरामदा
था, जिसका रुख नदी की ओर था। 200 वर्ग फुट की इस छोटी-सी जगह से वे
आश्रम की गतिविधियों पर नज़र रखते थे, साथ ही भारत के स्वतन्त्रता संघर्ष का
भी संचालन करते थे। जहाँ तक उनकी बात थी, उनके लिए अहिंसा और सत्य के
उच्चतम आदर्शों का पालन करने और अपने भीतर महानतम आध्यात्मिक क्षमता का
विकास करने के लिए संघर्षरत स्त्रियों और पुरुषों के एक समुदाय का विकास देश
के लिए राजनैतिक आज़ादी हासिल करने के समान ही महत्त्वपूर्ण था। इसी कमरे
में वे हर दिन कम से कम एक घंटा चरखा कातते थे, 'नवजीवन' और 'यंग इंडिया'
का संपादन करते थे, ढेर सारी चिट्ठियों के जवाब देते थे, आश्रम में दैनन्दिन
उठनेवाली समस्याओं पर अपने भतीजे और आश्रम के प्रशासक मगनलाल गांधी को
सलाह देते थे, और कांग्रेस के नेताओं के साथ राजनैतिक रणनीतियों पर
विचार-विमर्श करते थे । इसी कमरे में वे निरन्तर आने वाले मेहमानों से मिलते थे।
उनमें से ज्यादातर लोग बस उनके साथ कुछ पल बिताना चाहते थे, इस महात्मा की
आध्यात्मिक ऊर्जा को आत्मसात करना चाहते थे