क्रम
1. भूमिका - 9
2. हजारीप्रसाद द्विवेदी का पत्र - 11
3. राजेन्द्र यादव का पत्र - 12
4. द्वितीय संस्करण की भूमिका - 13
5. तुलसी के राम - 15
6. तुलसी का देश - 40
7. कलियुग और रामराज्य - 85
8. तुलसी की कबिताई - 108
हजारीप्रसाद द्विवेदी का पत्र
तुम्हारी पुस्तक 'लोकवादी तुलसी' आद्योपांत पढ़ गया। बहुत अच्छी लगी । तुमने
‘कबिताई' वाले अध्याय को पहले पढ़ने के लिए कहा था, सो वही पढ़ा। तुम्हारी
स्थापनाएँ सही जान पड़ीं। इसमें बहुत-सी नई बातें हैं। पर ऐसा लगा कि कुछ रह
गया है। क्या रह गया है, यह बात देर से स्पष्ट हुई। मुझे सबसे अच्छा लगा कलियुग
और रामराज्य वाला अंश। मैंने भी एक पुस्तक लिखना शुरू किया है - 'मानस का
षट्सन्दर्भ' । उसमें एक अध्याय 'कलिकाल' पर है । तुम्हारी पुस्तक से उसमें कुछ
और जोड़ सकूँगा। ‘तुलसीदास का देश' शीर्षक बहुत अच्छा लगा, पर शीर्षक कुछ
भ्रामक जान पड़ा। देश की परिधि में बहुत-कुछ घसीट लिया गया है।
तुम्हारे विचार बहुत सुलझे हुए और तर्क-सम्मत हैं; पर वे पूरे तुलसीदास को
नहीं उभारते। ‘लोकवादी’ शब्द भी कुछ जँचा नहीं । तुलसीदास लोक-रीतियों आदि
के जानकार थे पर लोकवादी नहीं थे । इस शब्द से यह ध्वनि निकलती है कि
तुलसीदास लोक को ही चरम और परम सत्य मानते थे । परन्तु यह शब्द पर ही
कह रहा हूँ। तुमने तुलसीदास को लोक-मर्मज्ञ के रूप में बहुत उत्तम रूप में
उजागर किया है और इस दृष्टि से जो चित्रण किया है, वह कमाल का है । मेरी
पुस्तक में 'जन-रंजन' पर एक सन्दर्भ है। उसकी अब कोई जरूरत नहीं रह गई
है। तुमने इस पक्ष को बहुत अच्छी तरह प्रकाशित कर दिया है।
यह पुस्तक बहुत सन्तुलित और सुसंगत लगी है। मेरी हार्दिक बधाई
स्वीकार करो ।
‘बसन' का अर्थ वस्त्र नहीं, सौभाग्य होना चाहिए। - 'सोह न बसन बिना
वर नारी।' ‘गाल’ करना शायद अनुचित करना है। भोजपुरी में इसका प्रयोग होता
है-गालु करब केहि कर बलु पाई । खेल में जबर्दस्त लड़के 'गालु' करते हैं। मगर
यह विचारणीय मात्र है ।
परमात्मा तुम्हें शक्ति देते रहें। तुमसे बहुत आशा है। हार्दिक आशीर्वाद ।
तुलसी के राम
तुलसीदास हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । इस अपार लोकप्रियता का
कारण क्या है ? कोई कवि किसी एक ही गुण के कारण इतना लोकप्रिय नहीं
हो सकता । तुलसीदास ने अपनी कविता के विषय में लिखते हुए बताया कि
इसका सबसे बड़ा गुण है राम का गुणगान । उनके अनुसार सार्थक कविता वही
है जो राम से सम्बन्धित हो । रामोन्मुखता तुलसी का सबसे बड़ा जीवन-मूल्य है,
" जरि जाउ सो जीवन जानकीनाथ! जियइ जग में तुम्हरो विनु है ।” यहाँ किसी
से भी किसी प्रकार के समझौते की गुंजाइश नहीं। जिस प्रकार राम-रहित जीवन
और व्यक्तित्व की कोई सार्थकता नहीं उसी प्रकार राम-रहित कविता की भी कोई
सार्थकता नहीं। यदि राम का गुणगान है तो चाहे जैसी होने पर भी कविता सार्थक
है । 'मेरी कविता सभी गुणों से रहित है, उसमें एक ही विश्वविदित गुण है, उसी
का विचार करके सुमति वाले और विमल विवेकयुक्त व्यक्ति इसे सुनेंगे। इसमें
रघुपति का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र और वेदों का सार है। यह नाम मंगल
का निवास और अमंगल को दूर करने वाला है, इसे पार्वती समेत शंकर जपते
हैं। सुकवि की विलक्षण कविता भी राम के नाम के बिना शोभा नहीं पाती, सभी
प्रकार से सँवारी हुई चन्द्रमुखी स्त्री भी बिना वस्त्र के शोभित नहीं होती'-
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक ।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्हकें बिमल बिबेक ॥
येहि महुँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा ॥
मंगल भवन अमंगल हारी । उमा सहित जेहि जपत पुरारी ॥
भनिति बिचित्र सुकवि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ ॥
बिधुबनी सब भाँति सँवारी । सोहन बसन बिना बर नारी ॥
कविता रूपी स्त्री के लिए 'राम नाम' वस्त्र के समान है। यह उपमा कफी
असामान्य है। यहाँ वसन या वस्त्र 'राम नाम' का ही नहीं, मर्यादा और विवेक
का भी प्रतीक है। राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं ही। रामचरितमानस में 'विवेक'
और ‘मंगल’ शब्द इतनी बार प्रयुक्त हुए हैं कि ये तुलसी की जीवन-दृष्टि के