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लज्जा - एक नयी कथाभूमि 'लज्जा' बांग्लादेश की बहुचर्चित लेखिका तसलीमा नसरीन का पाँचवा उपन्यास है। इस उपन्यास ने न केवल बांग्लादेश में हलचल मचा दी है, बल्कि भारत में भी व्यापक उत्ताप की सृष्टि की है। यही वह उत्तेजक कृति है, जिसके लिए लेखिका को बांग्लादेश की कट्टरवादी साम्प्रदायिक ताक़तों ने सज़ा-ए-मौत की घोषणा की है। दिलचस्प यह है कि सीमा के इस पार की साम्प्रदायिक ताक़तों ने इसे ही सिर-माथे लगाया। कारण? क्योंकि यह उपन्यास बहुत ही शक्तिशाली ढंग से बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करता है और उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण करता है जो एक लम्बे अरसे से बांग्लादेशी हिन्दुओं की नियति बन चुका है। हमारे देश की हिन्दूवादी शक्तियों ने 'लज्जा' को मुस्लिम आक्रामकता के प्रमाण के रूप में पेश करना चाहा है, लेकिन वस्तुतः 'लज्जा' एक दुधारी तलवार है। यह मुस्लिम साम्प्रदायिकता पर जितनी तालखी से आक्रमण करता है उतनी ही तीव्रता से हिन्दू साम्प्रदायिकता की परतें भी उघाड़ता है। वस्तुतः यह पुस्तक साम्प्रदायिकता मात्र के विरुद्ध है और यही उसकी ख़ूबसूरती है। 'लज्जा' की शुरुआत होती है 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से वे अपने हिन्दू भाई-बहनों पर टूट पड़ते हैं और उनके सैकड़ों धर्मस्थलों को नष्ट कर देते हैं। लेकिन इस अत्याचार, लूट, बलात्कार और मन्दिर ध्वंस के लिए वस्तुतः ज़िम्मेदार कौन है? कहना न कि भारत के वे हिन्दूवादी संगठन जिन्होंने बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर प्रतिशोध की राजनीति का खूँखार चेहरा दुनिया के सामने रखा। वे भूल गये कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं। लेखिका ने ठीक ही पहचाना है कि भारत कोई विच्छिन्न 'जम्बूद्वीप' नहीं है। भारत में यदि विष फोड़े का जन्म होता है, तो उसका दर्द सिर्फ़ भारत को ही नहीं भोगना पड़ेगा, बल्कि वह दर्द समूची दुनिया में, कम-से-कम पड़ोसी देशों में तो सबसे पहले फैल जायेगा। क्यों? क्योंकि इस पूरे उपमहादेश की आत्मा एक है, यहाँ के नागरिकों का एक साझा इतिहास और एक साझा भविष्य है। अतः एक जगह की घटनाओं का असर दूसरी जगह पर पड़ेगा ही। अतः हम सभी को एक-दूसरे की संवेदनशीलता का खयाल रखना चाहिए और एक प्रेम तथा सौहार्दपूर्ण समाज की रचना करनी चाहिए। ऐसे समाज में ही हिन्दू, मुसलमान तथा अन्य सभी समुदायों के लोग सुख और शान्ति से रह सकते हैं। प्रेम घृणा से अधिक संक्रामक होता है। लेकिन बांग्लादेश का यह ताजा उन्माद क्या सिर्फ़ बाबरी मस्जिद टूटने की प्रतिक्रिया भर थी? नहीं। तसलीमा की विवेक दृष्टि और दूर तक जाती है। ये यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि इसका सम्बन्ध मूलतः धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल से है। यद्यपि पाकिस्तान का निर्माण होने के बाद क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने घोषणा की थी कि धर्म नहीं जातीयता ही किसी समुदाय को एक रख सकती है, लेकिन पाकिस्तान के दृष्टिहीन शासकों ने इस आदर्श को तिलांजलि दे दी और वे पाकिस्तान को एक मुस्लिम राष्ट्र बनाने पर तुल गये लेकिन क्या धर्म का बन्धन पाकिस्तान को एक रख सका? बांग्लादेश का मुक्ति संग्राम एक सर्वथा सेकुलर संघर्ष था किन्तु सेकुलरवाद का यही आदर्श स्वतन्त्र बांग्लादेश में भी ज़्यादा दिन टिक नहीं सका। वहाँ भी, पाकिस्तान की तरह ही धर्मतान्त्रिक राज्य बनाने की आधार्मिक कोशिश की गयी। नतीजा यह हुआ कि बांग्लादेश में एक बदसूरत आग फिर सुलग उठी, जिसके कारण पहले के दशकों में लाखों हिन्दुओं को देश-त्याग करना पड़ा था। संकेत स्पष्ट है जब भी धर्म और राजनीति का अनुचित सम्मिश्रण होगा, समाज में तरह-तरह की बर्बरताएँ फैलेंगी। तसलीमा नसरीन मूलतः नारीवादी लेखिका हैं। वे स्त्री की पूर्ण स्वाधीनता की प्रखर पक्षधर हैं। अपने अनुभवों से वे यह अच्छी तरह जानती हैं कि स्त्री के साथ होने वाला अन्याय व्यापक अन्याय का ही अंग है। इसीलिए वे यह भी देख सकीं कि कट्टरतावाद सिर्फ़ अल्पसंख्यकों का ही विनाश नहीं करता, बल्कि बहुसंख्यकों का जीवन भी दूषित कर देता है। कठमुल्ले पंडित और मोलवी जीवन के हर क्षेत्र को विकृत करना चाहते हैं। सुरंजन और परवीन एक-दूसरे को प्यार करते हुए भी विवाह के बन्धन में नहीं बँध सके, क्योंकि दोनों के बीच धर्म की दीवार थी और माहौल धर्मोन्माद से भरा हुआ था। धर्मोन्माद के माहौल में सबसे ज़्यादा कहर स्त्री पर ही टूटता है, उसे तरह-तरह से सीमित और प्रताड़ित किया जाता है। सुरंजन बहन माया का अपहरण करने वाले क्या किसी धार्मिक आदर्श पर चल रहे थे? उपन्यास का अन्त एक तरह की हताशा से भरा हुआ है और यह हताशा सिर्फ सुरंजन के आस्थावान पिता सुधामय की नहीं, हम सबकी लज्जा है, क्योंकि हम अब भी इस उपमहादेश में एक मानवीय समाज नहीं बना पाये हैं। यह एक नये ढंग का उपन्यास है। कथा के साथ रिपोर्ताज़ और टिप्पणी का सिलसिला भी चलता रहता है। इसीलिए यह हमें सिर्फ़ भिगोता नहीं, सोचने-विचारने की पर्याप्त सामग्री भी मुहैया करता है। कहानी और तथ्य उपन्यास में उसी तरह घुले-मिले हुए हैं, जिस तरह कल्पना और यथार्थ जीवन में आशा है, तसलीमा की यह विचारोत्तेजक कृति हिन्दी पाठक को न केवल एक नयी कथाभूमि से परिचित करायेगी, बल्कि उसे एक नया •विचार संस्कार भी देगी। -राजकिशोर "बहुसंख्यकों के आतंक के नीचे अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की समस्या है 'लज्जा', जिसे बांग्लादेश के ही सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं।" -राजेन्द्र यादव "'लज्जा' को जो सिर्फ़ एक उपन्यास या साहित्यिक कृति मान कर पढ़ेंगे, वे यह समझ पाने से चूक जायेंगे कि 'लज्जा' भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित दक्षिण एशियाई देशों की राजनीतिक और धार्मिक सत्ताओं के सामने एक विचलित और अपनी अन्तरात्मा तक विचलित अकेली स्त्री की गहरी मानवीय, आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और निडर आवाज़ है। किसी ईश्वर, पैगम्बर, धर्म या पुरानी आस्थाओं और मिथकों के नाम पर आज तक चलाये जा रहे मध्यकालीन निरंकुश सत्ताओं के किसी दुःस्वप्न जैसे अमानवीय कारनामों के बरक्स यह उस उपमहाद्वीप की उत्पीड़ित मानवीय नागरिकता की एक विकल और ग़ुस्से में भरी चीख़ है। 'लज्जा' कुफ़्र नहीं, करुणा का मार्मिक और निर्भय दस्तावेज़ है।" -उदय प्रकाश lajjaek nayi kathabhumi lajja bangladesh ki bahucharchit lekhika taslima nasrin ka panchava upanyas hai. is upanyas ne na keval bangladesh mein halchal macha di hai, balki bharat mein bhi vyapak uttap ki srishti ki hai. yahi vah uttejak kriti hai, jiske liye lekhika ko bangladesh ki kattarvadi samprdayik taqton ne saza e maut ki ghoshna ki hai. dilchasp ye hai ki sima ke is paar ki samprdayik taqton ne ise hi sir mathe lagaya. karan? kyonki ye upanyas bahut hi shaktishali Dhang se bangladesh ki hindu virodhi samprdayikta par prhaar karta hai aur us narak ka atyant marmik chitran karta hai jo ek lambe arse se bangladeshi hinduon ki niyati ban chuka hai. hamare desh ki hinduvadi shaktiyon ne lajja ko muslim akramakta ke prmaan ke roop mein pesh karna chaha hai, lekin vastutः lajja ek dudhari talvar hai. ye muslim samprdayikta par jitni talkhi se akrman karta hai utni hi tivrta se hindu samprdayikta ki parten bhi ughaDta hai. vastutः ye pustak samprdayikta maatr ke viruddh hai aur yahi uski khubsurti hai.
lajja ki shuruat hoti hai 6 disambar, 1992 ko babri masjid toDe jane par bangladesh ke musalmanon ki akramak prtikriya se ve apne hindu bhai bahnon par toot paDte hain aur unke saikDon dharmasthlon ko nasht kar dete hain. lekin is atyachar, loot, balatkar aur mandir dhvans ke liye vastutः zimmedar kaun hai? kahna na ki bharat ke ve hinduvadi sangthan jinhonne babri masjid ka dhvans kar pratishodh ki rajniti ka khunkhar chehra duniya ke samne rakha. ve bhool gaye ki jis tarah bharat mein musalman alpsankhyak hain, usi tarah pakistan aur bangladesh mein hindu alpsankhyak hain. lekhika ne theek hi pahchana hai ki bharat koi vichchhinn jambudvip nahin hai. bharat mein yadi vish phoDe ka janm hota hai, to uska dard sirf bharat ko hi nahin bhogna paDega, balki vah dard samuchi duniya mein, kam se kam paDosi deshon mein to sabse pahle phail jayega. kyon? kyonki is pure upamhadesh ki aatma ek hai, yahan ke nagarikon ka ek sajha itihas aur ek sajha bhavishya hai. atः ek jagah ki ghatnaon ka asar dusri jagah par paDega hi. atः hum sabhi ko ek dusre ki sanvedanshilta ka khayal rakhna chahiye aur ek prem tatha sauhardpurn samaj ki rachna karni chahiye. aise samaj mein hi hindu, musalman tatha anya sabhi samudayon ke log sukh aur shanti se rah sakte hain. prem ghrina se adhik sankramak hota hai. lekin bangladesh ka ye taja unmad kya sirf babri masjid tutne ki prtikriya bhar thee?
nahin. taslima ki vivek drishti aur door tak jati hai. ye ye dikhane ki koshish karti hain ki iska sambandh mulatः dharm ke rajnitik istemal se hai. yadyapi pakistan ka nirman hone ke baad qayde aazam muhammad ali jinna ne ghoshna ki thi ki dharm nahin jatiyta hi kisi samuday ko ek rakh sakti hai, lekin pakistan ke drishtihin shaskon ne is adarsh ko tilanjali de di aur ve pakistan ko ek muslim raashtr banane par tul gaye lekin kya dharm ka bandhan pakistan ko ek rakh saka? bangladesh ka mukti sangram ek sarvtha sekular sangharsh tha kintu sekularvad ka yahi adarsh svtantr bangladesh mein bhi zyada din tik nahin saka. vahan bhi, pakistan ki tarah hi dharmtantrik rajya banane ki adharmik koshish ki gayi. natija ye hua ki bangladesh mein ek badsurat aag phir sulag uthi, jiske karan pahle ke dashkon mein lakhon hinduon ko desh tyaag karna paDa tha. sanket spasht hai jab bhi dharm aur rajniti ka anuchit sammishran hoga, samaj mein tarah tarah ki barbartayen phailengi.

taslima nasrin mulatः narivadi lekhika hain. ve stri ki poorn svadhinta ki prkhar pakshdhar hain. apne anubhvon se ve ye achchhi tarah janti hain ki stri ke saath hone vala anyay vyapak anyay ka hi ang hai. isiliye ve ye bhi dekh sakin ki kattartavad sirf alpsankhykon ka hi vinash nahin karta, balki bahusankhykon ka jivan bhi dushit kar deta hai. kathmulle panDit aur molvi jivan ke har kshetr ko vikrit karna chahte hain. suranjan aur parvin ek dusre ko pyaar karte hue bhi vivah ke bandhan mein nahin bandh sake, kyonki donon ke beech dharm ki divar thi aur mahaul dharmonmad se bhara hua tha. dharmonmad ke mahaul mein sabse zyada kahar stri par hi tutta hai, use tarah tarah se simit aur prtaDit kiya jata hai. suranjan bahan maya ka apahran karne vale kya kisi dharmik adarsh par chal rahe the? upanyas ka ant ek tarah ki hatasha se bhara hua hai aur ye hatasha sirph suranjan ke asthavan pita sudhamay ki nahin, hum sabki lajja hai, kyonki hum ab bhi is upamhadesh mein ek manviy samaj nahin bana paye hain. ye ek naye Dhang ka upanyas hai. katha ke saath riportaz aur tippni ka silasila bhi chalta rahta hai. isiliye ye hamein sirf bhigota nahin, sochne vicharne ki paryapt samagri bhi muhaiya karta hai. kahani aur tathya upanyas mein usi tarah ghule mile hue hain, jis tarah kalpna aur yatharth jivan mein aasha hai, taslima ki ye vicharottejak kriti hindi pathak ko na keval ek nayi kathabhumi se parichit karayegi, balki use ek naya •vichar sanskar bhi degi.
rajakishor

"bahusankhykon ke atank ke niche alpsankhykon ki suraksha ki samasya hai lajja, jise bangladesh ke hi sandarbh mein dekha jana chahiye jahan muslim alpsankhyak hain. "
rajendr yadav

"lajja ko jo sirf ek upanyas ya sahityik kriti maan kar paDhenge, ve ye samajh pane se chook jayenge ki lajja bharat, pakistan aur bangladesh sahit dakshin eshiyai deshon ki rajnitik aur dharmik sattaon ke samne ek vichlit aur apni antratma tak vichlit akeli stri ki gahri manviy, adhunik, dharmanirpeksh aur niDar avaz hai. kisi iishvar, paigambar, dharm ya purani asthaon aur mithkon ke naam par aaj tak chalaye ja rahe madhykalin nirankush sattaon ke kisi duःsvapn jaise amanviy karnamon ke baraks ye us upamhadvip ki utpiDit manviy nagarikta ki ek vikal aur ghusse mein bhari cheekh hai. lajja kufr nahin, karuna ka marmik aur nirbhay dastavez hai. " uday prkaash


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