फ़ेह्रिस्त
1 दिल और मिरे ख़ून का दौरान ग़ज़ल है
2 फूल ख़ुशबू ग़ज़ल मिरी दुनिया
3 आ’लम-ए-वज्द में होती है दुआ’ रात के वक़्त
4 हर एहतियात का पहलू नज़र में रखता है
5 ज़वाल रात पर आया नहीं है ढल कर भी
6 तुम इन्तिज़ार के लम्हे शुमार मत करना
7 माना किसी ज़ालिम की हिमायत नहीं करते
8 या तो फ़लक से चाँद उतर कर तैर रहा है पानी में
9 मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ से होता है
10 दामन-ए-गुल में कहीं ख़ार छुपा देखते हैं
11 बैठ सकते हैं परिन्दे अब कहाँ दीवार पर
12 बच्चे की मा’सूम शरारत सारा बाग़ मलूल
13 तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र आ जाएगा
14 मिरी नज़र मिरा अपना मुशाहिदा है कहाँ
15 हर तरफ़ हद्द-ए-नज़र तक सिलसिला पानी का है
16 माना कि ‘ऐ’न, वाव’ हूँ और हाशिए में हूँ
17 है नींद अभी आँख में पल भर में नहीं है
18 नफ़रत का अगर आँख में जाला नहीं होता
19 मैंने आराम किया चैन तो हासिल न हुआ
20 होंठों को फूल आँख को बादा नहीं कहा
21 मिरे क़रीब था उठ कर अभी यहीं से गया
22 सामने रह कर न होना मस्अला मेरा भी है
23 इस सबब से मिरी तक़्दीर तिरे हाथ में है
24 कशिश ज़मीन की जाएगी राएगाँ कब तक
25 माना कोई चराग़ या मश्अ’ल नहीं हूँ मैं
26 क्या ख़बर थी कि सताइश में वो हद कर देगा
27 ये मेरा वाहिमा है या ख़ुदा महसूस होता है
28 ये दर्द ज़रा सा भी तो कम हो नहीं पाया
29 सोऊँ भी तो रहता कोई बेदार है मुझमें
30 है मुस्तक़िल यही एहसास कुछ कमी सी है
31 परिन्दे फूल जुगनू चाँद तारे रक़्स करते हैं
32 कुछ इस लिए मुझे लुटने का डर ज़ियादा है
33 चौधरियों के हवस-कदे में इक मुटयार अकेली है
34 घुटती हुए साँसों को उठा लाए गली में
35 दूर से देखा जो अपना घर खुला
36 गुज़िश्ता से कोई लम्हा भी पैवस्ता नहीं निकला
37 मैं जितना ख़ुश हूँ अपने आपसे उतना ख़फ़ा हूँ
38 मौजूद जो नहीं वही देखा बना हुआ
39 इस शह्र-ए-सद-नज़ाद में रह तो रहा हूँ मैं
40 ज़हीन शख़्स था उसने कमाल बातें कीं
41 ढलवान पे चलने का हुनर सीख लिया है
42 क्या ख़ूब शक्ल थी कि बहुत ख़ूब-तर बनी
43 अगर चुभती हुई बातों से डरना पड़ गया तो
44 ज़ेर-ए-पा जादा-ए-गुमाँ रक्खा
45 और तो कुछ नहीं मेरे दिल की है इक आरज़ू गुफ़्तुगू
46 गुमाँ तस्वीर करने लग गया हूँ
47 देर तक चन्द मुख़्तसर बातें
48 वो ख़ुद मिलने नहीं आया तो उसके घर गया मैं
49 पा कर उसे खोने के गुमाँ से भी गया मैं
50 इतना आहिस्ता कभी ख़्वाब-ए-सहर टूटता है
1
दिल और मिरे ख़ून का दौरान1 ग़ज़ल है
हर साँस तवाज़ुन2 है कि मीज़ान3 ग़ज़ल है
1 दौड़ना 2 संतुलन 3 तराज़ू
मुझ पे हैं कई और इ’नायात1 भी लेकिन
इल्हाम2 के मालिक तिरा एहसान ग़ज़ल है
1 कृपा 2 ख़ुदा की तरफ़ से दिल में आने वाली बात
इस वक़्त मुझे रक़्स1 की तर्ग़ीब2 मिली है
इस वक़्त मिरे वज्द3 का इम्कान4 ग़ज़ल है
1 नृत्य, नाच 2 प्रेरणा 3 बेख़ुदी 4 संभावना
टपकेगा लहू1 लफ़्ज़ कोई चीर के देखो
तुम लोग समझते हो कि बे-जान ग़ज़ल है
1 ख़ून
है जोश मगर दिल में तलातुम1 है बहुत कम
इस बह्र2 में सिमटा हुआ तूफ़ान ग़ज़ल है
1 बाढ़ 2 समुन्दर
मैं इ’श्क़ में राहत1 के तसव्वुर2 से हूँ वाक़िफ़3
बेचैन मिरा दिल है मिरा ध्यान ग़ज़ल है
1 आराम 2 विचार 3 जानना
वैसे तो कई और तआ’रुफ़1 भी हैं ‘आ’सिम’
हर बज़्म-ए-सुख़न2 में मिरी पहचान ग़ज़ल है
1 परिचय 2 अदब की महफ़िल
2
फूल ख़ुशबू ग़ज़ल मिरी दुनिया
ख़ूब है आज कल मिरी दुनिया
एक दम छोड़ के न जा मुझको
इस तरह मत बदल मिरी दुनिया
झील महताब1 चाँदनी ख़ुश्बू
झिलमिलाता कँवल मिरी दुनिया
1 चाँद
एक तक्रार1 का नतीजा हूँ
एक रद्द-ए-अ’मल2 मिरी दुनिया
1 बार बार होना, वाद-विवाद 2 प्रतिक्रिया
इस क़दर पास आ कि हो जाए
तेरी दुनिया में हल1 मिरी दुनिया
1 समा जाना
एक लम्हा मिरी गिरफ़्त1 में है
है यही एक पल मिरी दुनिया
1 पकड़
शाइ’री दोस्त रत-जगे ‘आ’सिम’
एक ताज़ा ग़ज़ल मिरी दुनिया
3
आ’लम-ए-वज्द1 में होती है दुआ’ रात के वक़्त
माँग! सुनता है फ़क़ीरों की ख़ुदा रात के वक़्त
1 आत्ममुग्ध की अवस्था
शम्अ’ की लौ से थिरकती हुई किरनें निकलीं
एक साया मिरा हम-रक़्स1 हुआ रात के वक़्त
1 साथ में नृत्य करने वाला
है ये उम्मीद मिरे ख़्वाब में आप आएँगे
एक दर आँख का रखता हूँ खुला रात के वक़्त
दिन गुज़रता है गुलाबों की किफ़ालत1 करते
चूमती है मिरे हाथों को सबा2 रात के वक़्त
1 देखभाल, हिफ़ाज़त 2 पुरवा हवा
आँख खोली तो बिखर जाएँगे ख़्वाबों के वरक़
तेज़ चलती है जज़ीरों में हवा रात के वक़्त
तीरगी1 में तो ज़ियादा नज़र आता है मुझे
मुझपे हर नूर2 का ए’जाज़3 खुला रात के वक़्त
1 अंधेरा 2 रौशनी 3 चमत्कार
ओढ़ लेता है बदन रूह की चादर ‘आ’सिम’
और होती है मिरे तन पे क़बा1 रात के वक़्त
1 लबादा, आवरण
4
हर एहतियात1 का पहलू नज़र में रखता है
छुपा छुपा के मुझे अपने घर में रखता है
1 सावधानी, बचाव
किया हुआ है मिरे गिर्द1 एक हल्क़ा2 सा
कहीं भी हो मुझे अपने असर में रखता है
1 चारों ओर 2 घेरा
वो इत्तिफ़ाक़1 से मिल जाए रास्ते में कहीं
मुझे ये शौक़ मुसलसल2 सफ़र में रखता है
1 संयोग 2 लगातार
अगरचे1 कोई उसे देखता नही फिर भी
तमाम शह्र की आँखें नज़र में रखता है
1 यद्दपि
कोई भी दाग़ मैं उससे छुपा नहीं सकता
वो ताबकार1 शुआ’एँ2 नज़र में रखता है
1 चमकदार 2 किरनें
लचक नहीं किसी बुनियाद में मगर भूचाल
किस ए’तिमाद1 से दीवार-ओ-दर में रखता है
1 विश्वास
वो अपने पास बुलाता भी है मुझे ‘आ’सिम’
रकावटें भी मिरी रहगुज़र1 में रखता है
1 रास्ता
5
ज़वाल1 रात पर आया नहीं है ढल कर भी
कहीं न रौशनी सूरज ने की निकल कर भी
1 पतन
ये लोग उ’ज्लत-ए-बे-फ़ाइदा1 में हैं मस्रूफ़2
कहीं पहुँचते नहीं तेज़ तेज़ चल कर भी
1 बेकार की जल्दी 2 व्यस्त
घिरी हुई हैं अंधेरे में इस तरह आँखें
चराग़ रौशनी करते नहीं हैं जल कर भी
अ’जीब बात है मन्ज़िल नई नहीं मिलती
सफ़र किया है कई रास्ते बदल कर भी
अ’रक़1 निचोड़ के रखता है बन्द रौशनी में
वो मुत्मइन2 नहीं होता है गुल3 मसल कर भी
1 रस 2 संतुष्ट 3 फूल
हर एक जिस्म ने मिट्टी का ढेर होना है
चले ज़मीन पे जितना संभल संभल कर भी
दरख़्त1 काटने का फ़ैसला हुआ ‘आ’सिम’
समर2 को छू न सके लोग जब उछल कर भी
1 पेड़ 2 फल
6
तुम इन्तिज़ार के लम्हे शुमार1 मत करना
दिए जलाए न रखना सिंघार मत करना
1 गिनना
मिरी ज़बान के मौसम बदलते रहते हैं
मैं आदमी हूँ मिरा ए’तबार1 मत करना
1 विश्वास
किरन से भी है ज़ियादा ज़रा मिरी रफ़्तार
नहीं है आँख से मुम्किन1 शिकार मत करना
1 संभव
तुम्हें ख़बर है कि ताक़त मिरा वसीला1 है
तुम अपने आपको बे-इख़्तियार2 मत करना
1 माध्यम 2 बेक़ाबू, अधिकाहीन
तुम्हारे साथ मिरे मुख़्तलिफ़ मरासिम1 हैं
मिरी वफ़ा पे कभी इन्हिसार2 मत करना
1 संबंध 2 निर्भरता
तुम्हें बताऊँ ये दुनिया ग़रज़1 की दुनिया है
ख़ुलूस2 दिल में अगर है तो प्यार मत करना
1 स्वार्थ 2 सच्चाई
सियाह-चश्म समझते नहीं हैं रौनक़-ए-रंग1
बहार आए तो जश्न-ए-बहार2 मत करना
1 रंग की रौनक़ 2 बहार का जश्न
हिसाब इ’श्क़ में ‘आ’सिम’ नहीं किया करते
अगर वो ज़ख़्म लगाए शुमार मत करना
7
माना किसी ज़ालिम1 की हिमायत2 नहीं करते
ये लोग मगर खुल के बग़ावत नहीं करते
1 अत्याचारी 2 साथ देना
करते हैं मुसलसल1 मिरे ईमान2 पे तन्क़ीद3
ख़ुद अपने अ’क़ीदों4 की वज़ाहत5 नहीं करते
1 लगातार 2 आस्था 3 आलोचना 4 आस्थाओं 5 स्पषटीकरण
कुछ वो भी तबीअ’त1 का सख़ी2 है नहीं ऐसा
कुछ हम भी मोहब्बत में क़नाअ’त3 नहीं करते
1 स्वभाव 2 उदार 3 संतोष
जो ज़ख़्म दिए आपने महफ़ूज़1 हैं अब तक
आ’दत है अमानत2 में ख़यानत3 नहीं करते
1 सुरक्षित 2 धरोहर 3 हेराफेरी
कुछ ऐसी बग़ावत है तबीअ’त में हमारी
जिस बात की होती है इजाज़त1 नहीं करते
1 आज्ञा
तन्ज़ीम1 का ये हाल है इस शह्र में ‘आ’सिम’
बेसाख़्ता2 बच्चे भी शरारत नहीं करते
1 व्यवस्था 2 अपने आप
8
या तो फ़लक1 से चाँद उतर कर तैर रहा है पानी में
या फिर उसका दिलकश चेहरा अ’क्स2 हुआ है पानी में
1 आस्मान 2 प्रतिबिंब
इ’श्क़ तो कब का मोती बन कर ताज-ए-वफ़ा में सज भी चुका
ढ़ूँढ़ने वालों को समझाओ सिर्फ़ घड़ा है पानी में
जाबिर1 मछली तुन्द2 भँवर सफ़्फ़ाक3 मगरमछ गहराई
सब मा’लूम था फिर भी हमने पाँव रखा है पानी में
1 अत्याचारी 2 तेज़ 3 निर्दयी
साँस का लेना क्या मुश्किल है जिस्म हुनर रखता हो अगर
ख़िल्क़त-ए-शह्र-ए-आब1 से पूछो कितनी हवा है पानी में
1 पानी के शह्र में रहने वाले
क्या मैं कोई जज़ीरा1 हूँ या आँखें हैं सैलाब-ज़दा2
मेरे गिर्द3 का हर मन्ज़र क्यों डूब गया है पानी में
1 द्वीप 2 बाढ़-ग्रस्त 3 चारों ओर
जब दिल के तालाब में ‘आ’सिम’ याद ने कंकर फेंका है
इक चेहरा तस्वीर बना इक फूल खिला है पानी में
9
मकाँ से दूर कहीं ला-मकाँ1 से होता है
सफ़र शुरू’2 यक़ीं3 का गुमाँ4 से होता है
1 शून्य 2 आरंभ 3 विश्वास 4 भ्रम
वहीं कहीं नज़र आता है आपका चेहरा
तुलू’1 चाँद फ़लक2 पर जहाँ से होता है
1 उदय होना 2 आकाश
हम अपने बाग़ के फूलों को नोच डालते हैं
जब इख़्तिलाफ़1 कोई बाग़बाँ से होता है
1 मतभेद
मुझे ख़बर ही नहीं थी कि इ’श्क़ का आग़ाज़1
अब इब्तिदा2 से नहीं दर्मियाँ3 से होता है
1,2 आरंभ 3 बीच
उ’रूज1 पर है चमन में बहार का मौसम
सफ़र शुरु’ ख़िज़ाँ2 का यहाँ से होता है
1 शिखर, ऊँचाई 2 पतझड़
ज़वाल-ए-मौसम-ए-ख़ुश-रंग1 का गिला2 ‘आ’सिम’
ज़मीन से तो नहीं आस्माँ से होता है
1 ख़ुशरंग मौसम का पतन 2 शिकायत
10
दामन-ए-गुल1 में कहीं ख़ार2 छुपा देखते हैं
आप अच्छा नहीं करते कि बुरा देखते हैं
1 फूल 2 काँटा
हमसे वो पूछ रहे हैं कि कहाँ है और हम
जिस तरफ़ आँख उठाते हैं ख़ुदा देखते हैं
कुछ नहीं है कि जो है वो भी नहीं है मौजूद
हम जो यूँ मह्व-ए-तमाशा1 हैं तो क्या देखते हैं
1 तमाशे में लीन
लोग कहते हैं कि वो शख़्स1 है ख़ुश्बू जैसा
साथ शायद उसे ले आए हवा देखते हैं
1 व्यक्ति
ज़ाविया1 धूप ने कुछ ऐसा बनाया है कि हम
साए को जिस्म की जुंबिश2 से जुदा देखते हैं
1 कोण 2 हिलना
इस क़दर ताज़गी रक्खी है नज़र में हमने
कोई मन्ज़र हो पुराना तो नया देखते हैं
अब कहीं शह्र में ‘आ’सिम’ है न ‘ग़ालिब’ कोई
किसके घर जाए ये सैलाब-ए-बला1 देखते हैं
1 मुसीबत की बाढ़
11
बैठ सकते हैं परिन्दे अब कहाँ दीवार पर
लोग कर देते हैं चस्पाँ1 किर्चियाँ दीवार पर
1 चिपकाना
घर के दरवाज़े पे इक टूटी हुई ज़न्जीर है
जा-ब-जा1 बैठे हुए हैं पास्बाँ2 दीवार पर
1 जगह-जगह 2 पहरेदार
रोज़ रख आता हूँ मैं जा कर वहाँ ताज़ा गुलाब
तुमने अपना नाम लिक्खा था जहाँ दीवार पर
सेह्न1 का बूढ़ा शजर2 कुछ और बूढ़ा हो गाया
जब परिन्दों ने बनाया आश्याँ3 दीवार पर
1 आँगन 2 पेड़ 3 घोंसला
नर्म बुनियादें छतों का बोझ उठा सकती नहीं
इस लिए रखना पड़ा है आस्माँ दीवार पर
नूर फैलाती हुई शम्ओं’ से जो उठता रहा
अब सियाही बन गया है वो धुआँ दीवार पर
तीरगी से तंग आँखों के लिए लिखते रहो
गीत किरनों के सहर की दास्ताँ दीवार पर
रोज़ ‘आ’सिम’ शह्र में होता है इक मे’मार1 क़त्ल
रोज़ लिख देता है कोई ‘अल-अमाँ’2 दीवार पर
1 बनाने वाला 2 ईश्वर की पनाह
12
बच्चे की मा’सूम शरारत सारा बाग़ मलूल1
इक मुट्ठी में बेबस तितली इक मुट्ठी में फूल
1 दुखी
मान लिया तिरे घर का रस्ता सीधा है लेकिन
घोर अंधेरा तेज़ हवाएँ कंकर काँटे धूल
मुझसे ये कहता है बदल लूँ जीने का अन्दाज़
और ज़रा तब्दील नहीं करता अपना मा’मूल1
1 नियमितता
हो ही नहीं सकता है मोहब्बत जीत सके ये बाज़ी
तेरी चन्द शराइत1 हैं और मेरे चन्द उसूल2
1 शर्तें 2 नियम
ढूँढ नहीं सकता हूँ ख़ुद को रख कर तिरे बग़ैर
तेरा काम है याद दिलाना मेरी आ’दत भूल
कब तक उससे बह्स करोगे बेमा’नी1 बेकार
उसकी तो आ’दत है ‘आ’सिम’ बात को देना तूल2
1 अर्थहीन 2 फैलाना
13
तुम भटक जाओ तो कुछ ज़ौक़-ए-सफ़र1 आ जाएगा
मुख़्तलिफ़2 रस्तों पे चलने का हुनर आ जाएगा
1 यात्रा की चाहत 2 अलग
मैं ख़ला1 में देखता रहता हूँ इस उम्मीद पर
एक दिन मुझको अचानक तू नज़र आ जाएगा
1 शून्य
तेज़ इतना ही अगर चलना है तन्हा1 जाओ तुम
बात पूरी भी न होगी और घर आ जाएगा
1 अकेला / अकेले
ये मकाँ गिरता हुआ जब छोड़ जाएँगे मकीं
इक परिन्दा बैठने दीवार पर आ जाएगा
कोई मेरी मुख़्बिरी1 करता रहेगा और फिर
जुर्म की तफ़्तीश2 करने बे-ख़बर आ जाएगा
1 ख़बर देना 2 छानबीन, खोज
हो गया मिट्टी अगर मेरा पसीना सूख कर
देखना मेरे दरख़्तों1 पर समर2 आ जाएगा
1 पेड़ों 2 फल
बन्दगी में इ’श्क़ सी दीवानगी पैदा करो
एक दम ‘आ’सिम’ दुआ’ओं में असर आ जाएगा
14
मिरी नज़र मिरा अपना मुशाहिदा1 है कहाँ
जो मुस्तआ’र2 नहीं है वो ज़ाविया3 है कहाँ
1 देखना, अनुभव 2 उधार 2 कोण, पहलू
अगर नहीं तिरे जैसा तो फ़र्क़1 कैसा है
अगर मैं अ’क्स2 हूँ तेरा तो आइना है कहाँ
1 अंतर 2 प्रतिबिंब, छाया
हुई है जिसमें वज़ाहत1 हमारे होने की
तिरी किताब में आख़िर वो हाशिया2 है कहाँ
1 स्पष्टीकरण 2 किनारा, हाशिया
ये हमसफ़र तो सभी अजनबी से लगते हैं
मैं जिसके साथ चला था वो क़ाफ़िला है कहाँ
मदार1 में हूँ अगर मैं तो है कशिश2 किसकी
अगर मैं ख़ुद ही कशिश हूँ तो दाइरा3 है कहाँ
1 धुरी 2 आकर्षण 3 घेरा, वृत्त
तिरी ज़मीन पे करता रहा हूँ मज़दूरी
है सूखने को पसीना मुआ’वज़ा1 है कहाँ
1 क्षतिपूर्ति
हुआ बहिश्त1 से बे-दख़्ल2 जिसके बाइ’स3 मैं
मिरी ज़बान पर उस फल का ज़ाइक़ा4 है कहाँ
1 स्वर्ग 2 निष्कासित 3 कारण 4 स्वाद
अगर्चे इससे गुज़र तो रहा हूँ मैं ‘आ’सिम’
ये तज्रबा भी मिरा अपना तज्रबा है कहाँ