Jag Janani Janaki
Author | Rajendra Arun |
Language | Hindi |
Publisher | Prabhat Prakashan Pvt Ltd |
ISBN | 978-8173150180 |
Book Type | Hardbound |
Item Weight | 0.345 kg |
Edition | 1st |
Jag Janani Janaki
जग जननि जानकी मानस के दोहों-चौपाइयों का अर्थ बताते समय धर्म-दर्शन के गूढ़ तत्त्वों और जीवन के सहज किन्तु विस्मृत सत्यों को अपनी मृदु-मधुर शैली में हमारे हृदय की गहराइयों तक उतारते जाना अरुणजी की प्रमुख विशेषता है। सीता के पावन चरित्र को तुलसी ने बड़ी श्रद्धा और आस्था से सँवारा है। सीता के जीवन में दो कटु प्रसंग आते हैं—अग्नि-परीक्षा और निर्वासन। दोनों प्रसंगों को तुलसी ने अपनी कालजयी काव्य-प्रतिभा के बल पर निष्प्रभावी कर दिया है। उन्होंने लंकावासिनी सीता को छाया सीता बना दिया। लंका-विजय के बाद राम उन्हें पुन: पाने के लिए 'कछुक दुर्वाद' कहते हैं। छाया सीता अग्नि में प्रवेश करती हैं और उसमें से वास्तविक सीता निकलती हैं जो न लंका में गयी थीं, न कलंकित ही हुई थीं। सीता के निर्वासन के प्रसंग को तुलसी ने छुआ तक नहीं है। रामराज्य के वर्णन में उन्होंने लिखा— एक नारी ब्रत रत सब झारी। ते मन बच क्रम पति हितकारी।। ऐसे रामराज्य में धोबी का कलुषित प्रकरण कैसे स्थान पा सकता था! प्रस्तुत पुस्तक में सीता के त्यागमय और प्रेरणादायी चरित्र का लुभावना अंकन किया गया है।______________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________________अनुक्रमआभार : जनकसुता जग जननि जानकी — Pgs. 9दूसरे संस्करण की भूमिका : सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं — Pgs. 191. देखि सीय सोभा सुखु पावा — Pgs. 252. देखि रूप लोचन ललचाने — Pgs. 693. सिय सोभा नहिं जाइ बखानी — Pgs. 994. अति परिताप सीय मन माहीं — Pgs. 1145. प्रेम पिआसे नैन — Pgs. 13०6. पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं — Pgs. 1427. पिय हिय की सिय जाननिहारी — Pgs. 1848. तापस बेष जानकी देखी — Pgs. 2०59. सुनि जानकी परम सुखु पावा — Pgs. 2161०. प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी — Pgs. 22311. सीता कै अति बिपति बिसाला — Pgs. 24412. राम बिरहँ जानकी दुखारी — Pgs. 26413. पति अनुकूल सदा रह सीता — Pgs. 279
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