क्रम
1. कथा में एक नदी बहती थी - 9
2. दिल हूम हूम करे... - 24
3. बारिश की रात छुट्टी की रात - 51
4. कुशलपूर्वक रहते हुए - 69
5. ख़ाली दिनों में लोकबाबू की जंगल-गाथा - 95
6. प्रश्न 1. (घ) नीचे दिए चित्र को ध्यान से देखो और एक कहानी लिखो - 114
7. जादू : एक हँसी, एक हीरोइन - 123
8. चित्रकथा - 147
कथा में एक नदी बहती थी
क़स्बे के छोर पर एक बहुत पुरानी नदी बहती थी। नदी इतनी पुरानी थी कि
कथाओं में उसके बहने का ज़िक्र आता था । नदी इतनी पतली थी कि उसमें
अब बस धूप से सनी थोड़ी नींद बहती थी । बहुत ज़माने पहले शहरों से लोग
वहाँ घूमने आते थे । विदेशी भी आते थे। कहते हैं कि उसी नदी को पार करते
हुए गौतम बुद्ध की तबीयत ख़राब हुई थी । और ढाई दिन में साढ़े पाँच कोस
चलकर बुद्ध ने शरीर त्याग दिया था। लोग-बाग उस नदी को देखने आते थे।
क़स्बे से होकर साधु-संन्यासियों की आवाजाही बनी रहती थी। यह किसी
पुराने ज़माने की बात हुई। अब नदी देखने कोई नहीं आता था। मैं और बबलू
नदी किनारे घण्टों बैठे रहते। बबलू घास पर चितान लेटा था और मैं दोनों पैर
पसारकर बैठा था। जहाँ हम थे वह कभी नदी का पेट था। भरते-भरते नदी अब
पतली हो गई थी। अब कहें कि हम मुहाने पर थे।
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'सोचो तो कि हम नदी के पेट में बैठे हैं। " मैंने बबलू से कहा ।
“मैं बैठा नहीं, लेटा हूँ। मैं सोच रहा हूँ कि मैं नदी में बह रहा हूँ।" बबलू
ने कहा
'बहना ठीक नहीं। सोचो कि हम तैर रहे हैं।" मैं भी वहीं लेट गया।
“मैं तैर नहीं पा रहा। मुझमें ताकत नहीं है। मेरी तबीयत खराब हो रही
है। मैं गौतम बुद्ध होना सोच रहा हूँ।" वह दाँतों में एक दूब लिये लेटा रहा।
बारिश की रात छुट्टी की रात
यह कहानी को सच बनाने की कवायद नहीं, बस... कहानी को
कहानी बनाए रखने का दुस्साहस है।
यह सीधे-सीधे दुनियादारी की छौंक थी।
प्रोफ़ेसर दिल्ली के नहीं, दिल्ली जैसे ही एक शहर के रहनवार थे। जिस
तरह दिल्ली भारत की राजधानी है, वह शहर भी अपने राज्य की राजधानी था।
उस शहर में दिल्ली जैसी हर बात नहीं थी, मसलन कि उस शहर का नाम
दिल्ली नहीं था। मसलन कि उस शहर के लोग जब अपने सम्बन्धियों को पत्र
लिखते तब अपने पते में शहर का नाम दिल्ली नहीं लिखते। कुछ लोग पोस्ट-
कार्ड पर अपना पता भी नहीं लिखते। उस शहर का नाम भी नहीं लिखते ।
बावजूद इसके वे सब लोग उस शहर में रहने वालों की तरह रहते । चिट्ठी में
जिस तरह पता नहीं होता, उस तरह वे उस शहर में नहीं होते ।
प्रोफ़ेसर उसी शहर के एक महाविद्यालय में बच्चों को बायोकेमेस्ट्री पढ़ाते
थे। वे अपने विषय की गहराई में जिस ऊँचाई पर थे, कला की गूढ़ता वहाँ
महज एक परछाई थी। ईश्वर में विश्वास रखने वाले एक दार्शनिक ने ईश्वरीय
तिलिस्म को बचाए रखने की खातिर, ईश्वर को सूक्ष्म के रूप में पारिभाषित
कर, विज्ञान और साहित्य को यह कहकर अँगूठा दिखा दिया था कि तुम चाहे
जितना मुँह मार लो उस सूक्ष्म को पकड़ने में अन्ततः तुम्हारे हाथ जो लगेगा
जादू : एक हँसी, एक हीरोइन
(वैसे वहाँ कुछ नहीं था, जहाँ वे नहीं थे सिर्फ़ एक एहसास था
जो उनके लिए सब कुछ था। ज़िन्दगी के इस बदलते दौर में जहाँ
परिचय की शुरुआत किसी दुर्घटना की तरह होती थी। मृत्यु का
समाचार सुनकर पता चलता था कि यह आदमी अब तक ज़िन्दा
था। वहीं इस कहानी की सत्यता के पक्ष में कहीं कोई हलफ़नामा
दर्ज नहीं होना चाहिए था ।)
अन्ततः टीले की तलाश समाप्त हुई। नहीं तो पहले साइकिल पर चढ़ने के लिए
रोज़ ही एक टीले की तलाश करते थे अनिरुद्ध भाई। पूरा नाम अनिरुद्ध प्रसाद
सिंह। जाति के भूमिहार हैं। मित्र तो नहीं कहेंगे बस एक रागात्मक व्यवहार है।
औपचारिक बात-चीत। वे मुझे शरीफ़ समझते हैं और मैं उन्हें... ।
साइकिल पर चलते-चलते रोज नई-नई बात सोचते हैं अनिरुद्ध भाई ।
कभी रामायण सोचते हैं, कभी राजनीति सोचते हैं, फ़िल्म, नौकरी, लड़की,
कविता, कहानी, बचपन, जवानी, कमाई खर्च, दिन-रात, सुबह- शाम, हवा-
वर्षा-जाड़ा,
खेत-खलिहान -...
-... सब। यह सारी सोचें पहले अव्यवस्थित थीं।
अब एक निश्चित दिनचर्या के तहत पूरी होती हैं। यह बात भी इनके मिजाज में
कुछ सोचते वक़्त ही आई थी कि वे तो बहुत कुछ सोचते हैं। केवल इन्हें