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Jadoo : Ek Hansi, Ek Heroin
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जीवन की उदासियों के रंग इतने गाढ़े और प्रबल हैं कि वे असहनीय हैं। अकसर फ़िक्शन जीवन से अधिक दुर्दान्त रूप में उपस्थित होता है। उपस्थित होकर वह क्या करता है? ‘यह क्या’ रवीन्द्र आरोही की कहानियों का मूल सत्त्व है। इन कहानियों में उदासी, पीड़ा, छल और प्रेम यानी जीवन का सब कुछ है। पर वह इन रूपों में है कि सहनीय है और सहने का साहस भी देता है।
रवीन्द्र की कहानियाँ उदासियों से जीवन का सौन्दर्य शिल्प रचती हैं। इनमें एक नदी है जो लोक चेतना की ठसक के साथ क़स्बों, गाँवों और नगरों के बीच डोलती है और पिछले वक़्तों से किन्हीं अनाम बिन्दु तक की कथा यात्रा करती है। जिस प्रकार आँसू वेदना के अणुसूत्र हैं वैसे ही इन कहानियों में स्मृति के अणुसूत्र हैं। स्मृतिविहीन निचाट संसार के समानान्तर स्मृतिलोक रचती इन कहानियों में वैसा कोई पात्र नहीं है जिसके प्रेम में आप न पड़ जाएँ।
—उपासना Jivan ki udasiyon ke rang itne gadhe aur prbal hain ki ve asahniy hain. Aksar fikshan jivan se adhik durdant rup mein upasthit hota hai. Upasthit hokar vah kya karta hai? ‘yah kya’ ravindr aarohi ki kahaniyon ka mul sattv hai. In kahaniyon mein udasi, pida, chhal aur prem yani jivan ka sab kuchh hai. Par vah in rupon mein hai ki sahniy hai aur sahne ka sahas bhi deta hai. Ravindr ki kahaniyan udasiyon se jivan ka saundarya shilp rachti hain. Inmen ek nadi hai jo lok chetna ki thasak ke saath qasbon, ganvon aur nagron ke bich dolti hai aur pichhle vaqton se kinhin anam bindu tak ki katha yatra karti hai. Jis prkar aansu vedna ke anusutr hain vaise hi in kahaniyon mein smriti ke anusutr hain. Smritivihin nichat sansar ke samanantar smritilok rachti in kahaniyon mein vaisa koi patr nahin hai jiske prem mein aap na pad jayen.
—upasna

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क्रम


1.    कथा में एक नदी बहती थी - 9
2.    दिल हूम हूम करे... - 24
3.    बारिश की रात छुट्टी की रात - 51
4.    कुशलपूर्वक रहते हुए - 69
5.    ख़ाली दिनों में लोकबाबू की जंगल-गाथा - 95
6.    प्रश्न 1. (घ) नीचे दिए चित्र को ध्यान से देखो और एक कहानी लिखो - 114
7.    जादू : एक हँसी, एक हीरोइन - 123
8.    चित्रकथा - 147

कथा में एक नदी बहती थी

क़स्बे के छोर पर एक बहुत पुरानी नदी बहती थी। नदी इतनी पुरानी थी कि
कथाओं में उसके बहने का ज़िक्र आता था । नदी इतनी पतली थी कि उसमें
अब बस धूप से सनी थोड़ी नींद बहती थी । बहुत ज़माने पहले शहरों से लोग
वहाँ घूमने आते थे । विदेशी भी आते थे। कहते हैं कि उसी नदी को पार करते
हुए गौतम बुद्ध की तबीयत ख़राब हुई थी । और ढाई दिन में साढ़े पाँच कोस
चलकर बुद्ध ने शरीर त्याग दिया था। लोग-बाग उस नदी को देखने आते थे।
क़स्बे से होकर साधु-संन्यासियों की आवाजाही बनी रहती थी। यह किसी
पुराने ज़माने की बात हुई। अब नदी देखने कोई नहीं आता था। मैं और बबलू
नदी किनारे घण्टों बैठे रहते। बबलू घास पर चितान लेटा था और मैं दोनों पैर
पसारकर बैठा था। जहाँ हम थे वह कभी नदी का पेट था। भरते-भरते नदी अब
पतली हो गई थी। अब कहें कि हम मुहाने पर थे।
""
'सोचो तो कि हम नदी के पेट में बैठे हैं। " मैंने बबलू से कहा ।
“मैं बैठा नहीं, लेटा हूँ। मैं सोच रहा हूँ कि मैं नदी में बह रहा हूँ।" बबलू
ने कहा
'बहना ठीक नहीं। सोचो कि हम तैर रहे हैं।" मैं भी वहीं लेट गया।
“मैं तैर नहीं पा रहा। मुझमें ताकत नहीं है। मेरी तबीयत खराब हो रही
है। मैं गौतम बुद्ध होना सोच रहा हूँ।" वह दाँतों में एक दूब लिये लेटा रहा।

बारिश की रात छुट्टी की रात


यह कहानी को सच बनाने की कवायद नहीं, बस... कहानी को
कहानी बनाए रखने का दुस्साहस है।
यह सीधे-सीधे दुनियादारी की छौंक थी।
प्रोफ़ेसर दिल्ली के नहीं, दिल्ली जैसे ही एक शहर के रहनवार थे। जिस
तरह दिल्ली भारत की राजधानी है, वह शहर भी अपने राज्य की राजधानी था।

उस शहर में दिल्ली जैसी हर बात नहीं थी, मसलन कि उस शहर का नाम
दिल्ली नहीं था। मसलन कि उस शहर के लोग जब अपने सम्बन्धियों को पत्र
लिखते तब अपने पते में शहर का नाम दिल्ली नहीं लिखते। कुछ लोग पोस्ट-
कार्ड पर अपना पता भी नहीं लिखते। उस शहर का नाम भी नहीं लिखते ।
बावजूद इसके वे सब लोग उस शहर में रहने वालों की तरह रहते । चिट्ठी में
जिस तरह पता नहीं होता, उस तरह वे उस शहर में नहीं होते ।
प्रोफ़ेसर उसी शहर के एक महाविद्यालय में बच्चों को बायोकेमेस्ट्री पढ़ाते
थे। वे अपने विषय की गहराई में जिस ऊँचाई पर थे, कला की गूढ़ता वहाँ
महज एक परछाई थी। ईश्वर में विश्वास रखने वाले एक दार्शनिक ने ईश्वरीय
तिलिस्म को बचाए रखने की खातिर, ईश्वर को सूक्ष्म के रूप में पारिभाषित
कर, विज्ञान और साहित्य को यह कहकर अँगूठा दिखा दिया था कि तुम चाहे
जितना मुँह मार लो उस सूक्ष्म को पकड़ने में अन्ततः तुम्हारे हाथ जो लगेगा

जादू : एक हँसी, एक हीरोइन

(वैसे वहाँ कुछ नहीं था, जहाँ वे नहीं थे सिर्फ़ एक एहसास था
जो उनके लिए सब कुछ था। ज़िन्दगी के इस बदलते दौर में जहाँ
परिचय की शुरुआत किसी दुर्घटना की तरह होती थी। मृत्यु का
समाचार सुनकर पता चलता था कि यह आदमी अब तक ज़िन्दा
था। वहीं इस कहानी की सत्यता के पक्ष में कहीं कोई हलफ़नामा
दर्ज नहीं होना चाहिए था ।)
अन्ततः टीले की तलाश समाप्त हुई। नहीं तो पहले साइकिल पर चढ़ने के लिए
रोज़ ही एक टीले की तलाश करते थे अनिरुद्ध भाई। पूरा नाम अनिरुद्ध प्रसाद
सिंह। जाति के भूमिहार हैं। मित्र तो नहीं कहेंगे बस एक रागात्मक व्यवहार है।
औपचारिक बात-चीत। वे मुझे शरीफ़ समझते हैं और मैं उन्हें... ।

साइकिल पर चलते-चलते रोज नई-नई बात सोचते हैं अनिरुद्ध भाई ।
कभी रामायण सोचते हैं, कभी राजनीति सोचते हैं, फ़िल्म, नौकरी, लड़की,
कविता, कहानी, बचपन, जवानी, कमाई खर्च, दिन-रात, सुबह- शाम, हवा-
वर्षा-जाड़ा,
खेत-खलिहान -...
-... सब। यह सारी सोचें पहले अव्यवस्थित थीं।
अब एक निश्चित दिनचर्या के तहत पूरी होती हैं। यह बात भी इनके मिजाज में
कुछ सोचते वक़्त ही आई थी कि वे तो बहुत कुछ सोचते हैं। केवल इन्हें

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