GEELI MITTI PAR PANJON KE NISHAN
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Author | FARID KHAN |
Language | HINDI |
Publisher | Setu Prakashan |
Pages | 144 |
ISBN | 9789395160209 |
Book Type | Paperback |
Item Weight | 0.0 kg |
Edition | FIRST |
GEELI MITTI PAR PANJON KE NISHAN
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About The Book:
यह एक चकित करने वाला तथ्य है कि हिन्दी कविता में प्रस्थान बिन्दु या पैराडाइम शिफ्ट हमेशा हाशिये में प्रकट होने वाली आकस्मिक कविताओं के द्वारा हुआ है। चाहे मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में, राजकमल चौधरी की कविता मुक्ति प्रसंग, धूमिल की पटकथा, सौमित्र मोहन की लुकमान अली, आलोकधन्वा की गोली दागो पोस्टर आदि कविताएँ हाशिये में अचानक कौंधने वाली ऐसी कविताएँ थीं, जिन्होंने मुख्यधारा की तत्कालीन स्वीकृत कविताओं की दिशा बदल दी। फ़रीद की कविता एक और बाघ ऐसी ही अकस्मात् कविता थी, जिसने एक दशक पहले, अँधेरे में किसी कंदील की तरह मेरा ध्यान खींचा था। इस कविता को पढ़कर मेरे प्रिय और अँग्रेज़ी के विख्यात लेखक अमिताव कुमार ने टिप्पणी की थी कि बाघ कविता के पोस्टर्स छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों के हर पेड़ पर टाँग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयाँ... कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है! यह कविता जब आयी थी तब छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम चल रहा था, फ़िल्म कांतारा में जिसकी परिणति दिखाई पड़ती है, यह उसी मार्मिकता की कविता है। इसके बाघ की आँखों में हरियाली का स्वप्न है जिसे चारों तरफ़ से घेरकर मारा जाता है। असल में कविता ने फ़ासिज्म की आहट को भी पहचाना था। इस सन्दर्भ में यह कविता अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।
यह एक चकित करने वाला तथ्य है कि हिन्दी कविता में प्रस्थान बिन्दु या पैराडाइम शिफ्ट हमेशा हाशिये में प्रकट होने वाली आकस्मिक कविताओं के द्वारा हुआ है। चाहे मुक्तिबोध की कविता अँधेरे में, राजकमल चौधरी की कविता मुक्ति प्रसंग, धूमिल की पटकथा, सौमित्र मोहन की लुकमान अली, आलोकधन्वा की गोली दागो पोस्टर आदि कविताएँ हाशिये में अचानक कौंधने वाली ऐसी कविताएँ थीं, जिन्होंने मुख्यधारा की तत्कालीन स्वीकृत कविताओं की दिशा बदल दी। फ़रीद की कविता एक और बाघ ऐसी ही अकस्मात् कविता थी, जिसने एक दशक पहले, अँधेरे में किसी कंदील की तरह मेरा ध्यान खींचा था। इस कविता को पढ़कर मेरे प्रिय और अँग्रेज़ी के विख्यात लेखक अमिताव कुमार ने टिप्पणी की थी कि बाघ कविता के पोस्टर्स छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के जंगलों के हर पेड़ पर टाँग देना चाहिए। जिससे लोग समझ सकें अपने समय की सच्चाइयाँ... कि उन्हें भी अब संग्रहालय या चिड़ियाघरों में रखने की परियोजना ज़ोरों से चल रही है! यह कविता जब आयी थी तब छत्तीसगढ़ में सलवाजुडूम चल रहा था, फ़िल्म कांतारा में जिसकी परिणति दिखाई पड़ती है, यह उसी मार्मिकता की कविता है। इसके बाघ की आँखों में हरियाली का स्वप्न है जिसे चारों तरफ़ से घेरकर मारा जाता है। असल में कविता ने फ़ासिज्म की आहट को भी पहचाना था। इस सन्दर्भ में यह कविता अपनी अर्थव्यापकता में बहुत दूर तक जाती है।
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