अनुक्रम
1. सन् 1978 : भारत में फ़ैज़ का चतुर्दिक स्वागत - 5
2. फ़ैज़ : प्रतिभा की विकास-रेखा – 8
ग़ज़लें
नक्शे-फ़रियादी से
3 - फिर लौटा है, ख़ुरशीदे-जहाँताब सफ़र से – 19
दस्ते-सवा से
4 - कभी-कभी याद में उभरते हैं नक़्शे-माजी मिटे मिटे से - 20
5 - तुम आये हो न शबे-इन्तिज़ार गुज़री है - 21
6 - रंग पैराहन का, ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का नाम - 22
7- दिल में अब यों तिरे भूले हुए ग़म आते हैं - 23
8- यादे-ग़िज़ालचश्माँ, ज़िक्रे-समन-इ'ज़ाराँ – 24
ज़िन्दाँनामा से
9 - सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आये हैं - 26
10- कुछ मुहूतसिबों की ख़िल्वत में, कुछ वाइज़ के घर जाती है - 27
11 - गर्मि-ए-शौके-नज़ारा का असर तो देखो - 28
दस्ते तहे- संग से
12.तिरे ग़म को जाँ की तलाश थी, तिरे जाँ निसार चले गये - 29
13.न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा-रेज़ा गँवा दिया - 30
सरे- वादिए - सीना से
14.शर्हे-बेदर्दिए-हालात न होने पायी - 31
15.आशोबे-नज़र से की हमने चमन्-आराई - 33
16.कहीं तो कारवाने-दर्द की मंज़िल ठहर जाये - 34
शामे-शहूरे याराँ से
17.हमने सब शे'र में सँवारे थे - 35
18.न अब रक़ीब, न नासेह, न ग़मगुसार कोई - 36
19.ये मौसमे-गुल गर्चे तरबख़ेज़ बहुत है - 37
20.हमीं से अपनी नवा हमकलाम होती रही - 38
21.हसरते-दीद में गुज़राँ हैं ज़माने कब से - 39
22.ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया - 40
23.ग़ज़ल के तीन शे'र - 41
24.हैराँ है जबीं आज किधर सज्दा रखा है – 42
नज़्में
नक्शे - फ़रियादी से
25.सुरू- शबाना – 45
26.तहे-नुजूम - 46
27.मुझसे पहली-सी मुहब्बत मिरी महबूब न माँग – 47
28.रक़ीब से – 49
29.तनहाई - 51
30.चन्द रोज़ और मिरी जान - 52
फिर लौटा है, ख़ुरशीदे-जहाँताब सफ़र से
फिर लौटा है ख़ुरशीदे - जहाँताब' सफ़र से
फिर नूरे सहर दस्त-ओ-गिरेबाँ है सहर से
फिर आग भड़कने लगी है साज़े- तस्व में
फिर शो'ले लपकने लगे हर दीदए - तर' से
फिर निकला है दीवाना कोई फूँक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर इक राहगुज़र से
वो रंग है इमसाल गुलिस्ताँ की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवारे-क़फ़स हद्दे-नज़र से
साग़र तो खनकते हैं शराब आये न आये
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे
पापोश' की क्या फ़िक्र है, दस्तार सँभालो
पायाब' है जो मौज गुज़र जायेगी सर से
निसार मैं तिरी गलियों पे
निसार मैं तिरी गलियों पे ऐ वतन, कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठाके चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़' को निकले
नज़र चुराके चले, जिस्म-ओ-जाँ बचाके चले
है अह्ले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद'
कि संग-ओ-ख़िश्त' मुक़य्यद' हैं और सग' आज़ाद
बहुत है जुल्म के दस्ते-बहाना-जू' के लिए
जो चन्द अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं
बने हैं अह्ले-हवस, मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें
मगर गुज़ारने वालों के दिन गुज़रते हैं
तिरे फ़िराक़ में यूँ सुव्ह-ओ- शाम करते हैं
बुझा जो रौज़ने-ज़िन्दाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गयी होगी
चमक उठे हैं सलासिल' तो हमने जाना है
कि अब सहर तिरे रुख़ पर बिखर गयी होगी
ग़रज़ तसव्वुरे-शाम-ओ- सहर में जीते हैं
गिरिफ़्ते-सायए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं