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यहाँ अपनी भी बात कहना ज़रूरी हो आया है। सन् 1946 के 16 अगस्त का दिन! उन दिनों मैं, उस ज़माने के धुर दक्षिण कलकत्ते में रहती थी। उन दिनों दक्षिण कलकत्ता, लेक की सीमा तक आकर ख़त्म हो जाता था। हिन्दू मुहल्ले में रहती थी। वह किसी के विवाह की तारीख़ थी। विवाह के घर में मुस्लिम शहनाई वाले रौशनचौकी बनाकर, शहनाई बजाने आये थे। लेकिन, सब लौट नहीं सके, सब क़त्ल भी नहीं हुए उनमें से। बहुतेरों को शरण भी मिली थी। वे लोग बच गये। हालाँकि उत्तेजना महा भयंकर थी। मैंने दक्षिण कलकत्ता को ख़ून मंश नहाते देखा है। साथ ही इन्सानों को बचाने के लिए, इन्सानों को प्रबल साहस के साथ सड़क पर उतरते हुए भी देखा है। सन् 1964 में, मैं गड़िया में थी। उस वक़्त का तजुर्बा भी भयावह था। उन्होंने सपना देखा। उस सपने को सबमें बिखेर देने का काम, उन्होंने नियमनिष्ठ सिपाही की तरह किया। इसके अलावा भी कितना कुछ किया है, उस बारे में, मैं भला कितना-सा जानती हूँ। हाँ, जितना कुछ मुझे याद है, उन छोटी-छोटी बातों की ही बात करू। मुझे याद है, विजयादशमी की सुबह, वे हमारे यहाँ मिठाई लेकर आ पहुँचते थे। वे मेरे बाबू जी को किस निगाह से देखते थे, वह मैं कैसे बताऊँ ? माँ के निधन के बाद, हम जब बहरामपुर गये थे। अपने सहारे की लाठी, खाज़िम अहमद को साथ लेकर, वे हमारे यहाँ आ पहुँचे । दक्षिणी बरामदे में उजाला बिखेरते हुए, वे बैठ गये और उन्हें घेरकर हम सब वह तस्वीर देखते रहते थे, देखते रह जाते थे। ऐसी शिशुवत् हँसी, ऐसी । स्नेह-मधुर बातें! जाते-जाते उन्होंने हमें दिलासा दिया- मैं हूँ न! जब मन करे, तुम लोग यहाँ चले आना। सच्ची, वे जहाँ बैठे होते थे, उजाला कर देते थे। उनके चरणों में बैठते ही, मन में भरोसा बँधता था। ऐसे सभी इन्सान तो, एक-एक करके, मेरी ज़िन्दगी से विदा लेते जा रहे हैं। बाबू जी ने लिखा था- 'एक विशाल पेड़, जिसकी फुनगी आकाश छूती है। करीम साहब ऐसे ही पेड़ थे। बड़े-बड़े महीरुह के दिन तो अब रहे नहीं! विज्ञान कहता है. आज बरगद या साल का पेड़ लगाओ, तो सौ साल में बड़ा तो हो जायेगा, मगर पहले के पेड़ों की तरह। महीरुह, अब नहीं होगा। जो मिट्टी, बाताश, जल वगैरह पेड़ को महीरुह बनाती थी, वह सब अब नहीं रही। करीम साहब जैसे बड़ी माप के इन्सानों की भी अब पुनरावृत्ति नहीं होगी।
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