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मीर तक़ी मीर भारतीय कविता के उन बड़े नामों में से हैं, जिन्होंने लोगों के दिलो-दिमाग़ में स्थान बनाया हुआ है। अपनी शायरी को दर्द और ग़म का मज़मूआ बताते हुए मीर ने यह भी कहा है कि मेरी शायरी ख़ास लोगों की पसन्द की ज़रूर है, लेकिन ‘मुझे गुफ़्तगू अवाम से है।’ और अवाम से उनकी यह गुफ़्तगू इश्क़ की हद तक है। इसलिए उनकी इश्क़ि‍या शायरी भी उर्दू शायरी के परम्परागत चौखटे में नहीं अँट पाती। इन्सानों से प्यार करके ही वे ख़ुदा तक पहुँचने की बात करते हैं, जिससे इस राह में मुल्ला-पंडितों की भी कोई भूमिका नज़र नहीं आती। यही नहीं, मीर की अनेक ग़ज़लों में उनके समय की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों तथा व्यक्ति और समाज की आपसी टकराहटों को भी साफ़ तौर पर रेखांकित किया जा सकता है, जो उन्हें आज और भी अधिक प्रासंगिक बनाती हैं।
दरअसल मीर की शायरी भारतीय कविता, ख़ास कर हिन्दी-उर्दू की साझी सांस्कृतिक विरासत का सबसे बड़ा सबूत है, जो उनकी रचनाओं के लोकोन्मुख कथ्य और आम-फहम गंगा-जमुनी भाषायी अन्‍दाज़ में अपनी पूरी कलात्मक ऊँचाई के साथ मौजूद है। Mir taqi mir bhartiy kavita ke un bade namon mein se hain, jinhonne logon ke dilo-dimag mein sthan banaya hua hai. Apni shayri ko dard aur gam ka mazmua batate hue mir ne ye bhi kaha hai ki meri shayri khas logon ki pasand ki zarur hai, lekin ‘mujhe guftgu avam se hai. ’ aur avam se unki ye guftgu ishq ki had tak hai. Isaliye unki ishqi‍ya shayri bhi urdu shayri ke parampragat chaukhte mein nahin ant pati. Insanon se pyar karke hi ve khuda tak pahunchane ki baat karte hain, jisse is raah mein mulla-panditon ki bhi koi bhumika nazar nahin aati. Yahi nahin, mir ki anek gazlon mein unke samay ki samajik, aarthik aur rajnitik sthitiyon tatha vyakti aur samaj ki aapsi takrahton ko bhi saaf taur par rekhankit kiya ja sakta hai, jo unhen aaj aur bhi adhik prasangik banati hain. Darasal mir ki shayri bhartiy kavita, khas kar hindi-urdu ki sajhi sanskritik virasat ka sabse bada sabut hai, jo unki rachnaon ke lokonmukh kathya aur aam-phaham ganga-jamuni bhashayi an‍daz mein apni puri kalatmak uunchai ke saath maujud hai.

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लिखावट और उच्चारण का नक़्शः


ज़ और श के बीच की आवाज़
लिखावट
नग़मः
नग़मः-ए-
नग़मः-ओ
जैन
'अ (पूरा) ' (आधा)
छोटी है [ : ]

अओ
अओ
उच्चारण
नग़मा
नग़मओ
नग़मओ
अत्फ़ [-ओ-]
(दो शब्दों का जोड़)
गुल-ओ-बुलबुल
लालः-ओ-गुल
अदा-ओ-नाज़

अओ
आओ
गुलो-बुलबुल
लालओ-गुल
अदाओ नाज़
इज़ाफ़त [-ए-]
(दो शब्दों का सम्बन्ध)
ग़म-ए-दिल
नग़मः-ए-दिल
हवाओ - दिल

अओ
अओ
ग़मे-दिल
नग़म-दिल
हवाओ - दिल

ज़मीमः
1

शब वह जो पिये शराव निकला
जाना यह, कि आफ़ताब निकला

क़ुरबान ए पियालः ए मै ए नाब
जिससे कि तिरा हिजाब निकला

था ग़ैरत-ए-बादः अक्स-ए-गुल से
जिस जू-ए-चमन से आब निकला
2
मौसम-ए-अब्र हो, सुबू भी हो गुल हो, गुलशन हो और तू भी हो
कब तक आईने का यह हुस्न-ए-क़ुबूल मुँह तिरा इस तरफ़ कभू भी हो
सरकशी गुल की ख़ुश नहीं आती नाज़ करने का वैसा रू भी हो
किसको, बुलबुल, है दमकशी का दिमाग़ हो तो गुल ही की गुफ़्तुगू भी हो
दिल तमन्नाकदः तो है, पर मीर हो तो उसकी ही आरज़ू भी हो

168
फूल गुल, शम्स-ओ-क़मर, सारे ही थे पर हमें उनमें, तुम्हीं भाये बहुत
वह जो निकला सुब्ह, जैसे आफ़ताब रश्क से गुल फूल, मुरझाये बहुत
मीर से पूछा जो मैं, 'आशिक़ हो तुम हो के कुछ चुपके से, शर्माये बहुत

169

मारना 'आशिक़ों का गर है सवाब तो हुआ है तुम्हें सवाब बहुत
394
गिरिये से दाग़-ए-सीनः, ताज़ः हुए हैं सारे यह किश्त-ए-ख़ुश्क तू ने, अय चश्म फिर हरी की
यह दौर तो मुवाफ़िक़ होता नहीं, मगर अब रखिये बिना-ए-ताज़ः, इस चर्ख़-ए- चम्बरी की
ख़ूबाँ, तुम्हारी ख़ूबी, ताचन्द नक़्ल करिये हम रंजःख़ातिरों की, क्या ख़ूब दिलबरी की

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