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Dada Kamred
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‘दादा कामरेड’...यह उपन्यास लेखक की पहली रचना थी जिसने हिन्दी में रोमांस और राजनीति के मिश्रण का आरम्भ किया। यह उपन्यास बांग्ला उपन्यास सम्राट शरत् बाबू के प्रमुख राजनैतिक उपन्यास ‘पथेरदावी’ द्वारा क्रान्तिकारियों के जीवन और आदर्श के सम्बन्ध में उत्पन्न हुई भ्रामक धारणाओं का निराकरण करने के लिए लिखा गया था, परन्तु इतना ही नहीं यह श्री जैनेन्द्र की आदर्श नारी पुरुष की खिलौना ‘सुनीता’ का भी उत्तर है।
यशपाल के इस उपन्यास से चुटिया कर रूढ़िवाद के अन्ध अनुयायियों ने लेखक को क़त्ल की धमकी दी थी, परन्तु देश की प्रगतिशील जनता की रुचि के कारण ‘दादा कामरेड’ के न केवल हिन्दी में कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं बल्कि गुजराती, मराठी, सिन्धी और मलयालम में भी यह उपन्यास अनुवादित हो चुका है। ‘dada kamred’. . . Ye upanyas lekhak ki pahli rachna thi jisne hindi mein romans aur rajniti ke mishran ka aarambh kiya. Ye upanyas bangla upanyas samrat sharat babu ke prmukh rajanaitik upanyas ‘patherdavi’ dvara krantikariyon ke jivan aur aadarsh ke sambandh mein utpann hui bhramak dharnaon ka nirakran karne ke liye likha gaya tha, parantu itna hi nahin ye shri jainendr ki aadarsh nari purush ki khilauna ‘sunita’ ka bhi uttar hai. Yashpal ke is upanyas se chutiya kar rudhivad ke andh anuyayiyon ne lekhak ko qatl ki dhamki di thi, parantu desh ki pragatishil janta ki ruchi ke karan ‘dada kamred’ ke na keval hindi mein kai sanskran prkashit ho chuke hain balki gujrati, marathi, sindhi aur malyalam mein bhi ye upanyas anuvadit ho chuka hai.

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अनुक्रम

1. दुविधा की रात ....................... 3 

2. नये ढंग की लड़की ................... 12 

3. केन्द्रीय सभा ......................... 30 

4. मजदूर का घर ........................ 46 

5. तीन रूप ................................ 57 

6. मनुष्य ! .............................. 69 

7. गृहस्थ ................................. 90 

8. पहेली .................................. 101 

9. सुल्तान ? ............................ 115 

10. दादा ................................... 126 

11. न्याय .................................. 134 

12. दादा और कामरेड ................... 143 

 

दुविधा की रात

 

 

यशोदा के पति अमरनाथ बिस्तर पर लेटे अखबार देखते हुए नींद की प्रतीक्षा कर रहे थे

नौकर भी सोने चला गया था नीचे रसोईघर से कुछ खटकने की आवाज आयी

झुंझलाकर यशोदा ने सोचा - नालायक बिशन जरूर कुछ नंगा - उघाड़ा छोड़ गया होगा

अनिच्छा और आलस्य होने पर भी उठना पड़ा। वह जीना उतर रसोई में गयी चाटने के

प्रयत्न में जिस बर्तन को बिल्ली खटका रही थी, उसमें पानी डाला लेटने के लिये फिर

ऊपर जाने से पहले बैठक की साँकल को भी एक बार देख लेना उचित समझा। नौकर

का क्या भरोसा ! बिजली का बटन दबा, उजाला कर उसने देखा कि बैठक के किवाड़ों की

साँकल और चिटखनी दोनों लगी हैं।

 

बिजली बुझा देने के लिये यशोदा ने बटन पर दुबारा हाथ रखा ही था कि बाहर से

मकान की कुर्सी की सीढ़ी पर चुस्त कदमों की आहट और साथ ही किवाड़ पर थाप

सुनायी दी आगन्तुक को दरवाजे और खिड़की के काँच से रोशनी दिखाई दे गयी थी

खोले बिना चारा था अलसाये से खिन्न स्वर में यशोदा ने पूछा, "कौन है ?"

उत्तर में फिर थाप सुनाई दी, कुछ अधिकारपूर्ण सी

यशोदा ने चिटखनी और साँकल खोली ही थी कि किवाड़ धक्के से खुल गये और

एक आदमी ने शीघ्रता से भीतर घुस किवाड़ बन्द कर कहा - " मुआफ कीजिये"

अपरिचित व्यक्ति को यों बलपूर्वक भीतर आते देख यशोदा के मुख से भय और

विस्मय से 'कौन ?' निकला ही चाहता था कि उस व्यक्ति ने अपने कोट के दायें जेब से

पिस्तौल निकाल यशोदा के मुख के सामने कर दिया और दबे स्वर में धमकाया, “चुप !

नहीं तो गोली मार दूँगा !”

 

यशोदा के गले से उठती भय की पुकार रुक गयी और शरीर काँप गया वह अवाक

खड़ी थी। आगन्तुक ने बायें हाथ से किवाड़ की साँकल लगा दी, परन्तु दायें हाथ से

पिस्तौल वह यशोदा के मुख के सामने थामे रहा उसकी सतर्क आँखें भी उसी ओर थीं

भीतर के दरवाजे की ओर संकेत कर आगन्तुक बोला- "चलिये' "बिजली बुझा दीजिये !"

 

यशोदा काँपती हुई भीतर के कमरे की ओर चली कमरे में पहुँच आगन्तुक ने कहा,

रोशनी कर लीजिये।यशोदा ने काँपते हुए हाथों से, अभ्यस्त स्थान टटोलकर बिजली

जला दी

 

 

मजदूर का घर

 

हरिद्वार पैसेंजर लाहौर स्टेशन पर आकर रुकी। मुसाफिर प्लेटफार्म पर उतरने लगे। रेलवे

वर्कशाप का एक कुली, कम्बल ओढ़े और हाथ में दो औजार लिये, लाइन की तरफ उतर

गया। गलत रास्ते से आदमी को जाते देख एक सिपाही ने टोका, "अरे, कहाँ जाता

है टिकट दिखाओ ?"

 

कुली ने लौट, गिड़गिड़ाते हुए टिकट दिखा दिया

 

"यह रास्ता है ? इधर कहाँ जाता है ?" सिपाही ने फिर सवाल किया

 

"हुजूर, इधर से क्वार्टरों को निकल जाऊँगा उधर लम्बा चक्कर पड़ेगा

सिपाही लौट आया और कुली एक गजल-

 

सोजे गम हार निहानी देखते जाना

किसी की खाक में मिलती जवानी देखते जाना

 

गाता हुआ रेल का अहाता लाँघ, स्टेशन के पिछवाड़े कारखानों के बीच से मुड़ती हुई

सड़कों पर चलने लगा

 

दिसम्बर के दिन, लाहौर की सर्दी ! कोहरे और धुएँ से छाई सड़कों पर बिजली की

रोशनी में कठिनाई से केवल कुछ गज दूर तक ही दिखाई दे पाता था। धुआँ आँखों को

काटे डाल रहा था। बिजली के लैम्पों के नीचे धुएँ और कोहरे से भरी हवा में प्रकाश की

किरणें, छोलदारियों के रूप में कुछ दूर तक फैलकर समाप्त हो जातीं। युवक कुली

गुनगुनाता चला जा रहा था अँधेरे मोड़ों पर पहुँच, वह घूमकर सड़क पर जहाँ-तहाँ फैले

प्रकाश की ओर नजर दौड़ा लेता मिल के क्वार्टरों के समीप पहुँच वह बीड़ी सुलगाने के

लिये खड़ा हो गया और कुछ देर पीछे की ओर देखता रहा किसी को पीछे आते देख,

वह क्वार्टरों की लाइन में घुस गया

 

युवक एक क्वार्टर के सामने रुक गया क्वार्टर के दरवाजे पर बोरे का एक फटा

हुआ सा पर्दा लटक रहा था उसने क्वार्टर के दरवाजे की साँकल खटखटाई

"कौन है ?" भीतर से प्रश्न हुआ

"अख्तर ! किवाड़ खोल, मैं हूँ !” युवक ने उत्तर दिया

"कौन ?" भीतर से दूसरी आवाज आई।

"मैं हूँ सरदार !”

सरदार वही युवक था, जिसे हम कानपुर में हरीश के नाम से जान चुके हैं।

 

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