विषय सूची
दो शब्द........vii
बातचीत का पाठ.......11
फ़िल्में, जिनके गीत लिखे.......136
फ़िल्में, जिनकी पटकथाएँ लिखीं......143
दो शब्द
1997 के आखिरी महीनों में किसी समय मैं और मेरे संपादक दिल्ली के इंडिया
इंटरनेशनल सेंटर में बैठे कॉफी पीते हुए हिन्दी सिनेमा पर छपी हुई 'बातचीत' के
एक संग्रह के बारे में बातें कर रहे थे और सोच रहे थे कि वो क्या शक्ल अख्तियार
करेगा। जैसे-जैसे फ़िल्म पिछली शताब्दी का सबसे लोकप्रिय कला रूप बनता गया
है और आदर्श परिवार, परफैक्ट रोमांस, आचरण के मानकों और देशप्रेम के
मानकों को परिभाषित करता गया है, वैसे-वैसे हिन्दी सिनेमा पर लिखी गई
किताबों में रुचि बढ़ती गई है। सबसे बढ़कर सिनेमा दुनिया भर के लाखों लोगों
के लिए मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। आज जब हम नई सहस्राब्दी
में प्रवेश कर रहे हैं, भारत में सैटेलाइट और केबल चैनलों की संख्या बढ़ जाने
के साथ ही सिनेमा की ताक़त और उसका असर भी पहले से कहीं ज़्यादा बढ़
गया है । पेरिस में फ़िल्म-उत्सव आयोजित करने से लेकर इंग्लैंड के चैनल - 4 के
लिए हिन्दी सिनेमा पर 'मूवी महल' शीर्षक के दो धारावाहिकों का निर्माण और
निर्देशन करने जैसे अनेक कारणों से मुझे हिन्दी फ़िल्मों के निर्माण में लगे हुए
अनेक लोगों से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इनमें से कुछ लोग तो अपने
कैरियर के शिखर पर थे और उनके पास उन पर फिदा उनके प्रशंसकों और शूटिंग
की तारीख़ों की असलियत से हटकर अपने काम पर विचार करने का समय ही
नहीं था । हाँ, ऐसे लोग जिनकी फ़िल्में बीते ज़माने की चीज़ बन गई थीं, वे सिनेमा
में अपने योगदान का मूल्यांकन करने के महत्त्व को अब समझ रहे थे, ये जान
लेने के बाद कि हिन्दुस्तानी फ़िल्मों के स्वर्गवासी कलाकारों के छपे हुए साक्षात्कारों
को ढूँढ़ पाना कितना मुश्किल काम है। मैंने अक्सर अभिनेताओं या निर्देशकों को
यह समझाने की कोशिश की है कि उनकी आत्मकथा या उनके जीवन और कृतित्व
का किसी भी प्रकार का रिकॉर्ड पढ़ पाना लोगों के लिए कितना मूल्यवान अनुभव
होगा। मेरी ये बात सुनकर वो अक्सर मुस्कुराते हैं और बोल उठते हैं, 'लेकिन
लिखने का समय किसके पास है ?'
मैं इस बात को समझती हूँ कि निर्माणाधीन चीजें ज़्यादा दूरी या विश्लेषण
की अनुमति नहीं देतीं और न ही मुम्बई की तेज़ रफ्तार ज़िन्दगी उस मानसिक
जगह पर विचार करने या उसमें फिर से जाने के बहुत अनुकूल है जिसमें किसी
फ़िल्म का जन्म हुआ था। इसके अलावा, फ़िल्मकार फ़िल्मों के बारे में अपने
नसरीन मुन्नी कबीर :
एक अच्छी बातचीत की सबसे बड़ी खासियत क्या होती है ?
जावेद अख़्तर :
गुफ़्तगू की तीन सतहें हैं : लोग, घटनाएँ और विचार|सबसे
निचले दर्जे की बातचीत लोगों के बारे में होती है । जब हम इससे एक दर्जा
ऊपर जाते हैं तो घटनाओं का स्तर आता है जिसका दायरा लोगों के बारे में
बात करने से थोड़ा बड़ा है। लेकिन सबसे काम की बातचीत वो है जिसमें हम
विचारों के बारे में बात करते हैं क्योंकि विचार सार्वभौमिक और देश-काल से
परे होते हैं ।
न.मु. क. :
क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आप फ़िल्मी डॉयलॉग और
बातचीत के अन्तर को कैसे परिभाषित करेंगे ?
जा. अ. :
हमें यह समझना चाहिए कि फ़िल्म की एक समय-सीमा होती है ।
हमें 'ए' से लेकर 'ज़ेड' तक, सबकुछ कोई नब्बे मिनट में कहना होता है
तो एक सीमा तो यह है । ये बात ऐसी ही है जैसे आप कोई भाषण दे रहे हैं
या वाद-विवाद में हिस्सा ले रहे हैं और आपको अपनी सारी बातें छः मिनट के
अन्दर कहनी हैं । फ़िल्म में पूरी कहानी कहने के लिए हमारे पास सिर्फ नब्बे
मिनट होते हैं। इसलिए हम बहुत ज्यादा लफ्जों का इस्तेमाल नहीं कर