क्रम
उपन्यास
बिल्लेसुर बकरिहा 7
कहानियाँ
1. ज्योर्तिमयी 79
2. कमला 89
3. श्रीमती गजानन्द शास्त्रिणी 101
4. सखी 115
5. प्रेमपूर्ण तरंग 122
6. अर्थ 130
एक
बिल्लेसुर- नाम का शुद्ध रूप बड़े पते से मालूम हुआ - 'बिल्लेश्वर'
है। पुरवा डिवीजन में, जहाँ का नाम है, लोकमत बिल्लेसुर शब्द की
ओर है। कारण, पुरवा में उक्त नाम के प्रतिष्ठित शिव हैं । अन्यत्र
यह नाम न मिलेगा, इसलिए भाषातत्त्व की दृष्टि से गौरवपूर्ण है ।
'बकरिहा' जहाँ का शब्द है, वहाँ 'बोकरिहा' कहते हैं । वहाँ 'बकरी'
को 'बोकरी' कहते हैं। मैंने इसका हिन्दुस्तानी रूप निकाला है । 'हा'
का प्रयोग हनन के अर्थ में नहीं, पालन के अर्थ में है।
बिल्लेसुर जाति के ब्राह्मण, 'तरी' के सुकुल हैं, खेमेवाले के पुत्र
खैयाम की तरह किसी बकरीवाले के पुत्र बकरिहा नहीं। लेकिन तरी
के सुकुल को संसार पार करने की तरी नहीं मिली तब बकरी पालने
का कारोबार किया। गाँववाले उक्त पदवी से अभिहित करने लगे।
हिन्दी भाषा - साहित्य में रस का अकाल है, पर हिन्दी
बोलनेवालों में नहीं । उनके जीवन में रस की गंगा-जमुना बहती हैं ।
बीसवीं सदी - साहित्य की धारा उनके पुराने जीवन में मिलती है ।
उदाहरण के लिए अकेला बिल्लेसुर का घराना काफी है । बिल्लेसुर
दस
बिल्लेसुर, जैसा लिख चुके हैं, दुख का मुँह देखते-देखते उसकी
डरावनी सूरत को बार-बार चुनौती दे चुके थे । कभी हार नहीं खाई ।
आजकल शहरों में महात्मा गाँधी के बकरी का दूध पीने के कारण,
दूध बकरीदी की बड़ी खपत है, इसलिए गाय के दूध से उसका भाव
भी तेज है। मुमकिन, देहात में भी यह प्रचलन बढ़ा हो। पर बिल्लेसुर
के समय सारा संसार बकरी के दूध से घृणा करता था । जो बहुत
बीमार पड़ते थे, जिनके लिए गाय का दूध भी मना था, उन्हें बकरी
के दूध की व्यवस्था दी जाती थी। बिल्लेसुर के गाँव में ऐसा एक भी
मरीज नहीं आया। जब दूध बेचा नहीं बिका, किसी को कृपा - पात्र
बनवाए रहने के लिए व्यवहार में देने पर मुँह बनाने लगा, तब
बिल्लेसुर ने खोया बनाना शुरू किया । बकरी के दूध का खोया बनाने
में पहले प्रकृति बाधक हुई । बकरी के दूध में पानी का हिस्सा बहुत
रहता है। बड़ी लकड़ी लगानी पड़ी। बड़ी देर तक चूल्हे के किनारे बैठा
रहना पड़ा। बड़ी मिहनत । पहाड़ खोदने के बाद जब चुहिया
निकली - खोए का छोटा-सा गोला बना, तब मन भी छोटा पड़ गया ।
कमला
कमला सोलहवें साल की अधखुली धुली कलिका है। हृदय का रस
अमृत-स्नेह से भरा हुआ, खुली नावों-सी आँखें चपल लहरों पर
अदृश्य प्रिय की ओर परा और अपरा की तरह बही जा रही हैं ।
गत वर्ष कमला का पाणि-ग्रहण-संस्कार हो चुका है। पर मकान
की प्रथा के अनुसार बारात के साथ वह विदा नहीं हुई। अभी पति
केवल ध्यान का विषय है, ज्ञान का नहीं । अभी सिर्फ सुनती, सोचती
और मन-ही-मन प्यार करती है।
कमला के पति पण्डित रमाशंकर वाजपेयी आज दोपहर के
समय आए हुए हैं। टेढ़ा के रहनेवाले, भाई के जनेऊ में कुछ दिनों
के लिए बिदा करा ले जाएँगे। पिता ने भेजा है
पण्डित रमाशंकर के आने की खबर गाँव-भर की युवतियों में
तेजी से फैल गई । कमला की सहेलियाँ उसके घर महफिल के विचार
से चलीं। माता बहाने से दूसरे के घर चली गई। हँसी-मजाक,
दिल्लगी गूँजने लगी। वाजपेयी जनानखाने में ही आराम कर रहे हैं।
दिन का पिछला पहर, तीन का समय है । सखियाँ पान लगाकर देतीं,