जब दुनिया अभी नई-नई थी, जब आसमान ताज़ा था और ज़मीन अभी मैली नहीं
हुई थी, जब दरख़्त सदियों में साँस लेते थे और परिंदों की आवाज़ में जुग बोलते.
थे, कितना हैरान होता था वह इर्द-गिर्द को देखकर कि हर चीज़ कितनी नई थी और
कितनी पुरानी नज़र आती थी। नीलकंठ, खटबढ़िया, मोर, फ़ाख़ता, गिलहरी, तोते
जैसे सब उसके संग पैदा हुए थे, जैसे सब जुगों के भेद संग लिये फिरते हैं । मोर
की झनकार लगता कि रूपनगर के जंगल से नहीं, वृंदावन से आ रही है । खटबढ़िया
उड़ते-उड़ते ऊँचे नीम पर उतरती तो दिखाई देती कि वह मलका-सबा के महल में
ख़त छोड़ के आ रही है और हज़रत सुलेमान के क़िले की तरफ़ जा रही है। और
जब गिलहरी मुँडेर पर दौड़ते-दौड़ते अचानक दुम पर खड़ी होकर चक-चक करती
तो वह उसे तकने लगता और हैरत से सोचता कि उसकी पीठ पर पड़ी यह काली
धारियाँ रामचन्द्रजी की उँगलियों के निशान हैं। और हाथी तो हैरत का एक जहान
था। अपनी ड्योढ़ी में खड़े होकर जब वह उसे दूर से आता देखता तो बिलकुल ऐसा
लगता कि पहाड़ चला आ रहा है - यह लम्बी सूँड़, बड़े-बड़े कान पंखों की तरह
हिलते हुए, तलवार की तरह ख़म खाए हुए दो सफ़ेद-सफ़ेद दाँत, दो तरफ़ निकले
हुए। उसे देखके वह हैरान अन्दर आता और सीधा बी अम्माँ के पास पहुँचता ।
"बी अम्माँ, हाथी पहले उड़ा करते थे ? "
'अरे तेरा दिमाग़ तो नहीं चल गया है !"
'भगतजी कह रहे थे ।"
अरे उस भगत की अक़्ल पे तो पत्थर पड़ गए हैं। लो भला लहीम-शहीम
जानवर हवा में कैसे उड़ेगा ?"
"बी अम्माँ, हाथी पैदा कैसे हुआ था ?"
'कैसे पैदा होता ! मैया ने जना, पैदा हो गया।"
"नहीं बी अम्माँ, हाथी अंडे से निकला है।"
अरे तेरी अक़्ल चरने तो नहीं गई है ?"
भगतजी कह रहे थे ।"
" क़िस्मत-मारे भगत की तो मत मारी गई है। इतना बड़ा जानवर, हाथी
उसने स्नान किया और आईना देखा, और उस पर यह रहस्य खुला कि उसके सिर
के बाल घर से निकलते वक़्त सारे काले थे, अब सारे सफ़ेद हो चुके हैं। यह इस
देश में उसका पहला दिन था । और मेरा पहला दिन ? बीते दिन उसकी कल्पना में
भीड़ करते चले गए। मगर मुझे तो इस देश में अपने पहले दिन की तलाश हैं। वह
भीड़ को चीरता - फाड़ता, भीड़ लगाते दिनों को धकेलता बढ़े चला गया। मेरा पहला
दिन कहाँ है? वह भीड़ को चीरता चला जा रहा था कि धुँधली - धुँधली याद की
सूरत एक दिन उसके सामने आ खड़ी हुई । अनारकली बाज़ार । कुछ खुला, कुछ
बन्द। जहाँ-तहाँ कोई दुकान खुली हुई, बाक़ियों में ताले पड़े हुए। भीड़ बहुत,
खरीदार ग़ायब। वह वहाँ से निकलकर बड़ी सड़क पर आया । माल रोड, ताँगे,
साइकिलें, कोई-कोई कार, अलग-अलग दूर से गुज़रती हुई इक्का-दुक्का बस।
एक लम्बा आदमी, चौड़ी - चकली काठी, सिर पर तुर्रे वाली पगड़ी, टाँगों में बड़े
घेरवाली शलवार, लम्बे डंग भरता उसके बराबर से गुज़रा। उसने हैरत से उसे देखा।
फिर कितने ही इस क़द-काठ वाले ऐसा लिबास पहने अपने आसपास चलते-फिरते
नज़र आए। यह शक्लें उसके लिए नई थीं। उसके लिए सारा वातावरण ही नया था।
चलते हुए लग रहा था कि वह किसी नई ज़मीन पर चल रहा है। उसे इस नई ज़मीन
पर चलने में कितना मज़ा आ रहा था। एक सड़क से दूसरी सड़क पर, दूसरी से
तीसरी सड़क पर जाने वह कितनी देर चलता रहा, मगर ज़रा भी थका हो! कितने
ज़माने बाद वह आज़ाद होकर चल रहा था, इस आशंका के बग़ैर कि अभी कोई
बराबर से गुज़रते-गुज़रते छुरा उसके अन्दर उतार देगा ।
'साहिबज़ादे ! सारे दिन कहाँ रहे ?"
'हकीमजी, पाकिस्तान देख रहा था । "
'अब और क्या देखना रहा है, पाकिस्तान ही को देखना है । इतनी जल्दी क्या
है? दोपहर को आकर कम-अज़-कम ख़ाना तो खा लिया होता । "
साफ़-सुथरा फिर हकीम जी अब्बाजान से बातों में व्यस्त हो गए। उसने खाना खाया और
उस कमरे में जाकर लेट रहा, जहाँ उसे सोना था। उसने कमरे का जायज़ा लिया।
और ख़ूब खुला कमरा था और कितना-कितना रोशन था। चार कोनों
में चार बल्ब लगे हुए थे। यहाँ पहले कौन रहता होगा, यूँ ही उसे ख़याल आया। इसी
के साथ उसे अपने कमरे का ख़याल आया, बदरंग दीवारों वाला छोटा-सा कमरा
जिसमें एक चारपाई थी, किताबों से भरी एक मेज़, किताबों के बीच में रखा हुआ
एक लैम्प जिसकी धीमी रोशनी में वह रात गए तक पढ़ा करता था। मेरा कमरा आज
की रात ख़ाली पड़ा होगा। इस बड़े और रोशन कमरे में लेटे हुए उसे वह अपना छोड़ा
हुआ ख़स्ता-हाल कमरा बहुत याद आया । आँखों में उतरी नींद गायब हो गई। देर