अध्याय एक
Ø बात ये है कि तुम अगर दोस्त रहो तो मैं सारी दुनिया से तुम्हारे लिए लड़ सकती हूँ लेकिन तुम इधर-उधर की बात बीच में लाओगे तो
मैं भी दरिया के उस किनारे जा खड़ी होऊँगी जहाँ से सबसे शदीद हमले मेरे होंगे। बच सकते हो तो बच जाना, तन्हा लड़ सकते हो तो जरूर लड़ना।
Ø तुम इतनी हसीन नहीं हो कि तुम्हारी ख़ातिर मैं दुनिया से लहूँ जबकि तुम भी साथ न दो।
Ø मैंने ये दावा किया ही कब था कि तुम इसका ताना दे रहे हो
Ø पता नहीं तुम क्या चाहती हो?
Ø सिर्फ़ और सिर्फ़ बेलौस बेग़रज दोस्ती जिसमें तुम मुझे महसूस कर सको। हर पल, हर जगह मगर जिसे छू न सको।
Ø बड़ा शौक है तुम्हें खुद को आज़माने का।
Ø नहीं तक़दीर बज़िद है मुझे आज़माने को।
Ø ये ख़ुद-साख्ता जाल है, इसे तोड़ दो।
Ø ये तक़दीर साख्ता जाल है,टूट नहीं सकता।
Ø क्या कहना चाहती हो?
Ø तुम दोस्ती पर राजी क्यूँ नहीं हो जाते?
Ø दिल से कह रही हो?
अध्याय दो
Ø कभी-कभी मेरा दिल चाहता है कि वो जगह-जगह बोर्ड लगे हैं ना कि "संगदिल महबूब आप के क़दमों में" वहाँ चला जाऊँ ताकि
तुम्हें मजबूर कर दूँ
Ø मैं तो पहले ही मजबूर हूँ तुम और मजबूर करवाना चाहते हो। वैसे तुम्हें ये सूझी क्या? मैं तो तुम्हें खासा अक्लमन्द समझती थी।
Ø तुम थी को " हूँ" ही रहने दो मैं मज़ाक़ कर रहा था।
तुमने वो जगजीत चित्रा की ग़जल नहीं सुनी.....
हर बात गवारा कर लोगे मिन्नत भी उतारा कर लोगे
तावीजें भी बँधवाओगे जब इश्क़ तुम्हें हो जाएगा….
Ø और जब इसका असर खत्म होगा तो.....!
Ø इसका जिक्र उन्होंने गजल में नहीं किया। वैसे ये बताओ तुम्हें मेरा खयाल नहीं आता
Ø तुम्हारा ही ख़याल तो आता है वर्ना कभी-कभी तो मेरा दिल भी चाहता है कि इस ज़िन्दगी से इक इक लम्हा खुशियों का छीनती
चली जाऊँ जो जद में आता है आने दूँ
Ø पता है अपने हक़ के लिए लड़ना पड़ता है।
Ø जानती हूँ सर तस्लीम ख़म करने वालों के सर कलम कर दिए जाते हैं।
Ø क्या चाहती हो तुम ज़िन्दगी से? कभी-कभी तो तपती झुलसती धूप में मज़े से बैठी रहती हो। कभी ठण्डी छाया में जल उठती हो।
Ø मैं खुद नहीं जानती। मैं कभी-कभी तल्ख हक़ीक़तों का जहर भरा प्याला एक घूँट में पी जाती हूँ और कभी-कभी मेहरबाँ होती हुई क़िस्मत को एक झटके से ख़ुद से अलग कर देती हूँ।
Ø इसका मतलब है तुम जिन्दगी को समझ ही नहीं सकी हो। मैं सबको समझती जाऊँ कोई मुझे न समझे।
Ø तुम सबके बारे में ये कह सकती हो मेरे बारे में नहीं। मैं तुम्हारी रग-रग से वाक़िफ़ हूँ।
Ø फिर भी इक़रार करवाना चाहते हो मेरी जबानी सुनना चाहते हो।
Ø मैं तुम्हारी अना तोड़ना चाहता हूँ।
Ø तुम मुझे तोड़ सकते हो मेरी अना को नहीं।
Ø तुम्हें तोड़ने का मतलब है कि मैं खुद को तोड़ दूँ।
Ø गोया..... तुम मेरा बचाव नहीं अपना बचाव करते हो।
Ø तुम मुझे खुदग़रज कह सकती हो।
Ø ये अना का दूसरा नाम है, तुम्हें ख़ुदग़रज कहने का मतलब है कि मैं ख़ुद को भी ख़ुदग़रज़ कह रही हूँ।
Ø हममें बहुत सारी चीजें मुश्तरक हैं।
Ø क़िस्मत के सिवा।
Ø इसे हम खुद लिख लेंगे।
Ø फ़रिश्तों का काम फ़रिश्तों को अच्छा लगता है।
Ø तो तुम भी इंसान बन जाओ इंसानों से मावरा क्यूँ होना चाहती हो?
Ø मैंने कोई ऐसी बात नहीं की, कोई ऐसा काम नहीं किया कि मावरा हो जाऊँ।
Ø बकौल तुम्हारे तुम इंकार मेरे भले के लिए करती हो। कभी अपना भी भला सोचा लिया करो
Ø कोई और बात करो।
अध्याय तेरह
Ø हैलो..... बहुत इन्तिज़ार करवाया।
Ø बहुत कोशिश करता हूँ कि आपसे काम न पड़े लेकिन फिर कोई न कोई काम निकल ही आता है।
Ø इस क़दर अजनबी लहजा ..... कहाँ हो इस वक़्त ?
Ø मैं जहाँ भी हूँ आपसे बहुत दूर हूँ। आपने ख़ुद अपने हाथों से उस पेड़ की जड़ें काटी हैं, पत्ते नोचे हैं, टहनियाँ तोड़ी हैं जो आपकी मोहब्बत का मेरे दिल में लगा था।
Ø मानती हूँ पता है मुझे इसके सिवा चारा ही कोई नहीं था ।
Ø उफ़ मेरे ख़ुदा .....! वही लहजा मस्लहतों वाला। तन्हा रह जाओगी और इतना कि मर जाओगी तुम।
Ø इससे अच्छी क्या बात हो सकती है।
Ø क्या मिला तुम्हें खुद को मुझसे दूर कर के ..... ?
Ø जो तुम्हारे क़रीब होते नहीं मिला था।
Ø बहुत अजीब लड़की हो तुम यूँ हर तरह खूबियों खामियों समेत मेरे ideal के frame में fit आती हो। किसी दिन मैं तुम्हारी सारी मस्लहतों, उसूलों समेत तुम्हें तुमसे चुरा कर ले जाऊँगा और तुम चीखती-चिल्लाती रह जाओगी।
Ø ये चोरी-चकारी कब से शुरू कर दी ?