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Akelepan Ki Intiha
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About Book

जमाल एहसानी की शाइरी परम्परा के विरुद्ध और परम्परा से दूर भागती हुई आधुनिकतावादी शाइरी के बीच एक चीज़ है जो चौंकाती है और अपने कुछ लम्हों में हैरान करती है. उनकी इस अनोखी काव्य-शैली ने उन्हें कम वक़्त में काफ़ी लोकप्रियता दिलाई| "अकेलेपन की इन्तिहा" जमाल एहसानी की चुनिन्दा शायरी का संकलन है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है और इसे पाठकों का भरपूर प्यार मिला है|

 

About Author

जमाल एहसानी का जन्म 1951 में सरगोधा में हुआ। उनके माता पिता 1947 में पानीपत से हिजरत कर के सरगोधा आए। जमाल एहसानी ने बचपन यहीं गुज़ारा। जब होश सँभाला तो हालात और आर्थिक तंगी से मज्बूर होकर कराची में आबाद हो गए। उनके दो मज्मूए’ ‘सितारा-ए-सफ़र’ और ‘रात के जागे हुए’ ख़ुद उनकी ज़िन्दगी में प्रकाशित हुए। जबकि तीसरा मज्मूआ’ ‘तारे को महताब किया’ उनके इन्तिक़ाल के फ़ौरन बा’द छपा। जमाल एहसानी का देहांत 1998 को हुआ।

 

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फ़ेह्‌रिस्त

1 चराग़ सामने वाले मकान में भी न था
2 कभी भुला के कभी उसको याद कर के मुझे
3 तेरी याद और तेरे ध्यान में गुज़री है
4 एक फ़क़ीर चला जाता है पक्की सड़क पर गाँव की
5 ख़ुश्बू गुलाब में ख़ुश पत्ता शजर में ख़ुश है
6 सुब्ह आता हूँ यहाँ और शाम हो जाने के बा’द
7 इ’श्क़ में ख़ुद से मोहब्बत नहीं की जा सकती
8 कब पाँव फ़िगार नहीं होते कब सर में धूल नहीं होती
9 किसी भी दश्त किसी भी नगर चला जाता
10 एक क़दम ख़ुश्की पर है और दूसरा पानी में
11 सितारे का राज़ रख लिया मेहमान मैंने
12 तू मिरी खोई निशानी के सिवा कुछ भी नहीं
13 पहले सुना वो सूरत अब सर-ए-बाम नहीं आती
14 जब कभी ख़्वाब की उम्मीद बँधा करती है
15 जहाँ जहाँ पर दरवाज़ा था वहाँ वहाँ दीवार हुई
16 अपनी आँखें तिरे चेहरे पे लगा कर देखूँ
17 कुछ नहीं तेरे मेरे में
18 न सुनने में न कहीं देखने में आया है
19 कभी-कभार अ’जब वक़्त आन पड़ता है
20 क़रार दिल को सदा जिसके नाम से आया
21 कोई भी शक्ल हो या नाम, कोई याद न था
22 जमाल शे’र कोई अब कहा नहीं जाता
23 उ’म्‍र गुज़री जिसका रस्ता देखते
24‘जमाल’ अब तो यही रह गया पता उसका
25 सुलूक-ए-नारवा का इसलिए शिकवा नहीं करता
26 हिसाब-ए-उ’म्‍र जब देना पड़ेगा
27 बरस बरस से मुझे इन्तिज़ार था जिसका
28 दिल-ए-पज़मुर्दा को हमरंग-ए-अब्‍र-ओ-बाद कर देगा
29 हर क़र्ज़-ए-सफ़र चुका दिया है
30 क्यारी क्यारी ख़ाली है
31 वो हाथ और ही था वो पत्थर ही और था
32 सब बदलते जा रहे हैं सर-ब-सर अपनी जगह
33 अ’जब अंधेरी रात का नज़ारा था
34 मैं बूँदा-बाँदी के दर्मियान अपने घर की छत पर खड़ा रहा हूँ
35 ज़रा सी बात पे दिल से बिगाड़ आया हूँ
36 इ’श्क़ में राह से जो लौट के घर जाता है
37 सितारे ही सिर्फ़ रास्तों में न खो रहे थे
38 पहले-पहल घर से निकले हो, ध्यान रहे
39 वो लोग मेरे बहुत प्यार करने वाले थे
40 बिखर गया है जो मोती पिरोने वाला था
41 ख़मोश रात में कुछ यूँ तुझे सदा देंगे
42 आज तो घर में कोई नहीं है आज तो खुल के रो लेंगे
43 मिलना नहीं तो याद उसे करना भी छोड़ दे
44 बीच जंगल में पहुँच के कितनी हैरानी हुई
45 संग को तकिया बना ख़ाक को चादर कर के
46 ख़ाक ले जाएँ यहाँ से कि हवा ले जाएँ
47 रहना नहीं अगरचे गवारा ज़मीन पर
48 होने की गवाही के लिए ख़ाक बहुत है
49 वो इस जहान से हैरान जाया करते हैं
50 अपना जब बोझ मिरी जान उठाना पड़ जाए

1

चराग़ सामने वाले मकान में भी न था

ये सानेहा1 मिरे वह्‌म-ओ-गुमान2 में भी न था

1 घटना, मुसीबत 2 भ्रम व शंका

 

जो पहले रोज़ से दो आँगनों  में था  हाइल1

वो फ़ासला तो ज़मीन आस्मान में भी न था

1 आड़ बनने वाला

 

ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो न सके

ये रन्ज है कि  कोई दर्मियान में भी न था

 

हवा न जाने  कहाँ ले गई वो तीर कि जो

निशाने पर भी न था और कमान में भी न था

 

‘जमाल’ पहली शनासाई1 का वो इक लम्हा

उसे भी याद न था, मेरे ध्यान में भी न था

1 जान पहचान, परिचय


 

2

कभी भुला के कभी उसको याद कर के मुझे

‘जमाल’ क़र्ज़1 चुकाने हैं उ’म्‍र भर के मुझे

1 उधार

 

अभी तो मन्ज़िल-ए-जानाँ1 से कोसों दूर हूँ मैं

अभी तो रास्ते हैं याद अपने घर के मुझे

1 महबूब की मन्ज़िल

 

जो लिखता फिरता है दीवार-ओ-दर पे मेरा नाम

बिखेर दे न कहीं हर्फ़1 हर्फ़ कर के मुझे

1 अक्षर / टुकड़े-टुकड़े

 

मोहब्बतों की बुलन्दी पे है यक़ीं1 तो कोई

गले लगाए मिरी सत्ह पर उतर के मुझे

1 विश्वास

 

चराग़ बन के जला जिसके वास्ते इक उ’म्‍र

चला गया वो हवा के सुपुर्द कर के मुझे


 

3

तेरी याद और तेरे ध्यान में गुज़री है

सारी ज़िन्दगी एक मकान में गुज़री है

 

इस तारीक1 फ़ज़ा2 में मेरी सारी उ’म्‍र

दिया जलाने के इम्कान3 में गुज़री है

1 अँधेरा 2 वातावरण 3 संभावना

 

अपने लिए जो शाम बचा कर रक्खी थी

वो तुझसे अ’ह्‌द-ओ-पैमान1 में गुज़री है

1 वा’दा व सौगंध

 

तुझसे उक्ता जाने की इक साअ’त1 भी

तेरे इ’श्क़ ही के दौरान में गुज़री है

1 क्षण, लम्हा,

 

दीवारों का शौक़ जहाँ था सबको ‘जमाल’

उ’म्‍र मिरी उस ख़ानदान में गुज़री है

 


 

4

एक फ़क़ीर चला जाता है पक्की सड़क पर गाँव की

आगे राह का सन्नाटा है पीछे गूँज खड़ाऊँ की

 

आँखों आँखों हरियाली के ख़्वाब दिखाई देने लगे

हम ऐसे कई जागने वाले नींद हुए सहराओं की

 

अपने अ’क्स1 को छूने की ख़्वाहिश में परिन्दा डूब गया

फिर कभी लौट कर आई नहीं दरिया पर घड़ी दुआ’ओं की

1 प्रतिबिम्ब

 

डार से बिछड़ा हुआ कबूतर शाख़ से टूटा हुआ गुलाब

आधा धूप का सर्माया1 है आधी दौलत छाँव की

1 पूँजी

 

उस रस्ते में पीछे से इतनी आवाज़ें आईं ‘जमाल’

एक जगह तो घूम के रह गई एड़ी सीधे पाँव की

 


 

5

ख़ुश्बू गुलाब में ख़ुश  पत्ता शजर1 में ख़ुश है

जो भी है अपने अपने दीवार-ओ-दर में ख़ुश है

1 पेड़

 

पैरों पे जो खड़ा है  ये है ज़मीन उसकी

है आस्मान उसका जो बाल-ओ-पर1 में ख़ुश है

1 पँख व बाज़ू, सामर्थ्य

 

ये हिज्‍र कौन जाने ये बात कौन समझे

मैं अपने घर में ख़ुश हूँ वो अपने घर में ख़ुश है

 

तू ही बता मोहब्बत ये भी कोई ख़ुशी है

ये दिल मिरा अकेला इस शह्‌र-भर में ख़ुश है

 

जितने भी हैं मुसाफ़िर सबके उसूल1 अलग हैं

कोई क़याम2 में और कोई सफ़र में ख़ुश है

1 सिद्धाँत 2 ठहराव


 


 

 

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