Hum Khatm Karenge
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Author | Mohan Mukt |
Language | Hindi |
Publisher | Sambhavna Prakashan |
Pages | 383 |
ISBN | 978-9382673699 |
Item Weight | 0.5 kg |
Edition | First |
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'हिमालय दलित है' के बाद मोहन मुक्त का कविता संग्रह ‘हम ख़त्म करेंगे’ प्रतिरोध की परम्परा का विस्तार है जो वर्चस्व की जड़ों को पहचानने और उखाड़ने की प्रक्रिया में गढ़ी गयी अभिव्यक्ति के रूप में सामने आया है। दमितों, वंचितों और ग़रीबों के जीवन के यथार्थ को अलग-अलग कोणों से कविता का रूप देकर कवि ने ठोस सच्चाई से अपना पक्ष रखा है।
समस्त सत्ताओं का निषेध करती ये कविताएँ प्रत्येक इन्सान की स्वतन्त्रता की हिमायती हैं। उपेक्षित और उत्पीड़ित क़ौम जब अपनी बात कहने के लिए खड़ी होती है तो साहसिक और मज़बूत अभिव्यक्ति के प्रभाव से बचा नहीं जा सकता।
यह कविता संग्रह सम्पूर्णता में पहाड़ की सच्चाई और मैदान के उपजाऊपन का बयान है, जिसमें देशीयता और सार्वभामिकता साथ-साथ दिखती हैं। ध्वंस और निर्माण की भौतिक ज़रूरत को चिन्हित करती ये कविताएँ सत्ताधारियों द्वारा समस्त संसाधनों के साथ ही इन्सानी दिमाग़ों पर की गयी क़ब्ज़ेदारी का विरोध करती हैं। जिनको पढ़ते हुए कभी पानी की पारदर्शिता दिखती है तो कहीं आग की तपिश महसूस होने लगती है। अपने जीवन और समाज में देखे और भोगे गये गै़रबराबरी के व्यवहार को स्वर देकर कवि दुनिया से जो संवाद करना चाहता है वह मेहनतकश और शोषित के श्रम पर क़ब्ज़ा करने वाले परजीवियों की खि़लाफ़त है। अपनी तीखी भाषा, शैली और उदबोधन में उत्पीड़ितों के स्वर में इज़ाफ़ा करती यह लेखनी स्थापित साहित्य के समक्ष चुनौती पेश कर रही है।
मोहन यूँ तो विभेदीकृत समाज के कई पहलुओं पर लेखनी चलाते हैं। लेकिन जब वह स्त्री प्रश्नों को संबोधित करते हैं तो संवेदना और समानुभूति के स्तर पर स्त्री मन को अभिव्यक्त करने में सफल होते हैं।
समस्त सत्ताओं का निषेध करती ये कविताएँ प्रत्येक इन्सान की स्वतन्त्रता की हिमायती हैं। उपेक्षित और उत्पीड़ित क़ौम जब अपनी बात कहने के लिए खड़ी होती है तो साहसिक और मज़बूत अभिव्यक्ति के प्रभाव से बचा नहीं जा सकता।
यह कविता संग्रह सम्पूर्णता में पहाड़ की सच्चाई और मैदान के उपजाऊपन का बयान है, जिसमें देशीयता और सार्वभामिकता साथ-साथ दिखती हैं। ध्वंस और निर्माण की भौतिक ज़रूरत को चिन्हित करती ये कविताएँ सत्ताधारियों द्वारा समस्त संसाधनों के साथ ही इन्सानी दिमाग़ों पर की गयी क़ब्ज़ेदारी का विरोध करती हैं। जिनको पढ़ते हुए कभी पानी की पारदर्शिता दिखती है तो कहीं आग की तपिश महसूस होने लगती है। अपने जीवन और समाज में देखे और भोगे गये गै़रबराबरी के व्यवहार को स्वर देकर कवि दुनिया से जो संवाद करना चाहता है वह मेहनतकश और शोषित के श्रम पर क़ब्ज़ा करने वाले परजीवियों की खि़लाफ़त है। अपनी तीखी भाषा, शैली और उदबोधन में उत्पीड़ितों के स्वर में इज़ाफ़ा करती यह लेखनी स्थापित साहित्य के समक्ष चुनौती पेश कर रही है।
मोहन यूँ तो विभेदीकृत समाज के कई पहलुओं पर लेखनी चलाते हैं। लेकिन जब वह स्त्री प्रश्नों को संबोधित करते हैं तो संवेदना और समानुभूति के स्तर पर स्त्री मन को अभिव्यक्त करने में सफल होते हैं।
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