अब जरूरी तो नहीं कि किसी नयी किताब पर लिखने का सिलसिला हमेशा उस क़िताब में छपी ग़ज़लों के शेरों से ही किया जाये, यदि उस किताब में बेहतरीन नज़्में भी हैं तो उनमें से ही चुनिंदा आपके सामने रख कर भी तो आगे बढ़ा जा सकता है।
छठे दशक की बात है। कराची के एक उपनगर 'मलीर' के घर के अंदरूनी कमरे में जो दस बारह साल की बच्ची सो रही है वो सुबह मुँह अँधरे गली में चीमटा बजा कर गाते हुए फ़कीर की सुरीली आवाज़ से आँखें खोल देती है। अभी बिस्तर में कसमसा ही रही है कि बकरियों का रेवड़ हाँकते हुए बाहर जो गली से गुज़र रहा है वो भी गाता जा रहा है, परिंदो की कलरव हर लम्हा तेज होती जाती है, वो बिस्तर से नीचे उतरे उससे पहले ही रेड़ी पर सब्जी बेचने वाले की सुरीली टेर उसे मुस्कुराने पर मजबूर कर देती है। ये सब आवाजें रोज उसके सुबह उठने के अलार्म हैं। बच्ची तैयार हो कर जिस किसी भी बस से स्कूल जाती है उसी बस में लतामंगेशकर के गाने बजते सुनाई देते हैं।शाम कहीं दूर मस्जिद में कव्वालियों के सुर तो किसी शादी वाले घर से मुहम्मद रफ़ी के गाने फ़जा में तैरते सुनाई देते हैं। अभी बच्ची के घर रेडियो नहीं आया है। लाउडस्पीकर भी बहुत कम बजते हैं लेकिन संगीत का दरिया हर ओर बहता सुनाई देता है। बच्ची इस संगीत को सुन मुस्कुराती है, खिलखिलाती है। जी हाँ ठीक पढ़ा ये पाकिस्तान के कराची की ही बात कर रहा हूँ, संगीत कब सरहदों में बंध सका है ?
अफ़सोस !! संगीत अब हमारी ज़िंदगी से ग़ायब हो गया है उसकी जगह शोर ने ले ली है। संगीत ने ही तो हमें जानवरों से अलग किया हुआ है। संगीत जिस दिन हमारे बीच से ग़ायब हो गया उस दिन ये जो थोड़ा बहुत जानवरों और हममें फ़र्क बचा है वो मिट जाएगा। आप देखें धीरे धीरे मिट ही रहा है। हम अंदर से बेचैन हैं ,घुट रहे हैं ,दुखी हैं, अकेले हैं ,जल्दी ही अपना आपा खो देते हैं क्यूंकि हम मुस्कुराना भूल गए हैं, गुनगुनाना भूल गए हैं।
ये बच्ची कराची के उपनगर मलीर में रहती जरूर है लेकिन इसके घर में अवधी बोली जाती है। इस बच्ची के पिता वकील हैं जो मुल्क़ तक़सीम होने के कुछ अरसे बाद, बलरामपुर उत्तर प्रदेश से कराची जहाँ ये 25 दिसंबर 1956 को पैदा हुई, आ कर बस गए। माँ 1965 तक इसे गोद में लिए न कितनी बार सरहद पार अपने वतन बलरामपुर ले जाया करती। इस बच्ची को अपने बचपन में सुने अनीस के ढेरों मर्सिये याद हैं। इन्हें सुन सुन कर ये खुद भी नोहे और नात लिखने लगी। तब ये कोई छठी या सातवीं जमात में पढ़ती होगी। साथ पढ़ने वाले और मोहल्ले के बच्चे इसकी लिखी नात मजलिसों में सुनाते और ईनाम पाते। इसी उम्र में ये रेडिओ पाकिस्तान कराची से जुड़ गयी और बरसों जुड़ी रही। एक बार का वाकया है रेडिओ पर प्रोग्राम डायरेक्टर ने चूड़ी पर तुरंत एक छोटी सी नज़्म लिखने को कहा इन्होने लिख दी
ये बच्ची बहुत शर्मीली है। घर से स्कूल और स्कूल से घर बस यही इसकी दुनिया है। वालिद हर छुट्टी के दिन इसे कराची से थोड़ा आगे खरीदे अपने खेतों पर पूरे परिवार के साथ ले जाते जहाँ कपास चुनती, खेतों में काम करती लड़कियों से ये बतियाती और उनके दुःख सुख सुनती। वालिद साहब का इंतेक़ाल जल्द ही हो गया तब इसकी माँ की उम्र ये कोई तीस बत्तीस की रही होगी।तब अपनी माँ के साथ ये अपनी नानी जो मात्र 24 साल की उम्र में ही बेवा हो गयीं थीं के पास रहने लगीं। नानी एक तरह से घर मुखिया हो गयीं। नानी जमींदार परिवार से थीं लिहाज़ा उनमें जमीन्दाराना ठसका भी था। घर में काम वालियों के साथ नानी का व्यवहार वही जमीन्दाराना था जबकि माँ की उन सबसे खूब दोस्ती थी। काम वालियाँ बच्ची की माँ से घंटो बातें करतीं और अपने दुखड़े सुनातीं। उनके दुखड़े सुन सुन कर बच्ची सोचती कभी मैं इनके बारे लिखूंगी। एक रजिस्टर में अपने ख़्याल जो कभी नज़्म होते कभी कहानी की शक्ल में वो दर्ज़ करती रहती। मात्र चौदह साल की उम्र से उनकी रचनाएँ प्रकाशित हो कर चर्चित होने लगी थीं.
स्कूल से कॉलेज और कॉलेज से यूनिवर्सिटी का सफ़र भी कट गया। कराची यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम् ऐ करने के बाद भी उनका लिखना जारी रहा और इसे सँवारा मलीर की 'बज़्में इल्मो दानिश' नाम से होने वाली नशिस्तों ने। युवा और अनुभवी रचनाकार इन नशिस्तों में अपना क़लाम सुनाते जिन पर खुली बहस होती और युवाओं को इस सब से बहुत कुछ सीखने को मिलता। रेडिओ पाकिस्तान कराची पर भी उस वक़्त पाकिस्तान की बेहतरीन प्रतिभाएं काम करती थीं लिहाज़ा वहां से भी बच्ची ने बहुत कुछ सीखा। लगातार सीखने की ललक और अपनी विलक्षण प्रतिभा के कारण ये बच्ची, जिसे दुनिया 'इ'शरत आफ़रीन के नाम से जानती है, सबकी नज़रों में आ गयी आज उन पर पूरे उर्दू लिटरेचर को नाज़ है।
इ'शरत आफ़रीन के लिए अपने लिए नयी राह बनाना आसान नहीं था। उनसे पहले की कद्दावर शायरायें अदा जाफ़री, किश्वर नाहीद, फहमीदा रिआज़ और ज़ेहरा निग़ाह ने अपने लिए जो अलग राह बनाई उसके अलावा किसी और के लिए कोई नयी राह बनाना बेहद मुश्किल काम था लेकिन इशरत ने वो काम किया और अपनी अलग पहचान बनाई। इ'शरत ने जो देखा, सुना, भुगता वो लिखा और पूरी ईमानदारी से लिखा। मज़े की बात ये है कि ग़ज़ल कहना उन्होंने कहीं से सीखा नहीं हालाँकि उनके अब्बा अच्छे शायर थे और उनके यहाँ नशिस्तें हुआ करती थीं लेकिन इ'शरत ने उनमें कभी शिरकत नहीं की। इशरत के चाचा बेहतरीन शायर थे जब उन्हें कहीं से पता चला कि इशरत बीबी शेर कहती है तो उन्होंने एक तरही मिसरा इशरत को ग़ज़ल कहने के लिए दिया। जब इ'शरत साहिबा ने तुरंत ही उस पर ग़ज़ल कह कर चाचा के पास भिजवाई तो वो पढ़कर हैरान रह गए और अपने भाई याने इ'शरत के अब्बू से बोले कि भाई जान इ'शरत बीबी को आप कभी शेर कहने से रोकना मत. ऊपर वाले ने ख़ास हुनर इसे अता फ़रमाया है। आप देखना एक दिन ये अपना और आपका नाम पूरी दुनिया में रौशन करेगी।अपने लेखन की शुरूआत को इ'शरत साहिबा एक शेर में यूँ बयाँ करती हैं :
आज इ'शरत आफ़रीन साहिबा की रेख़्ता बुक्स द्वारा देवनागरी में प्रकाशित किताब 'एक दिया और एक फूल' हमारे सामने है जिसमें इ'शरत साहिबा की चुनिंदा 61 ग़ज़लें और 48 बेहतरीन नज़्में संकलित हैं। ये किताब आप रेख़्ता बुक्स नोएडा से या फिर अमेजन से ऑन लाइन मँगवा सकते हैं।
सन 1985 में उनका विवाह भारत के सय्यद परवेज़ जाफ़री से हो गया जो उस वक़्त वक़ालत के साथ-साथ अच्छी ख़ासी शायरी भी करते थे। सय्यद परवेज़ मशहूर शायर जनाब अली सरदार जाफ़री साहब के भतीजे हैं। शादी के बाद अली सरदार जाफ़री साहब ने अपने यहाँ दोनों को दावत पर बुलाया और हँसते हुए कहा कि देखो जिस तरह एक जंगल में दो शेर साथ नहीं रहते इसी तरह एक घर में दो शायरों का रहना भी मुमकिन नहीं है लिहाज़ा तुम दोनों आपस में तय करलो कि कौन शायरी छोड़ेगा। तय करने की नौबत ही नहीं आयी क्यूंकि चचा जान का जुमला पूरा करने से पहले ही परवेज़ साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कि शायरी तो इ'शरत ही करती है और वो ही करती रहेगी। मैं भला और मेरी वकालत भली। इशरत साहिबा पांच बरस भारत में रहीं। इस दौरान उनके चाहने वालों की तादात में भरी इज़ाफ़ा हुआ। इस्मत चुगताई को उनकी नज़्में बहुत अच्छी लगती थीं उन्होंने इशरत से कहा भी कि 'तुम्हारी नज़्मों में वही कहानियां हैं जिन्हें देख या सुन कर मैंने खून थूका था'। तुम्हारी नज़्मों में कहानियां हैं ये बात पाकिस्तान के बड़े कहानीकार इंतज़ार हुसैन साहब ने भी उन्हें कहा था।
उनकी नज़्म 'ये बस्ती मेरी बस्ती है' को उर्दू की बेहतरीन नज़्मों में से एक माना गया है। ये नज़्म उन्होंने कराची की एक मस्जिद में हुए बम्ब धमाके के बाद कही थी। ये मस्जिद उनके मोहल्ले में थी। जब अमेरिका से इस धमाके के बारे में इशरत ने अपनी अम्मी से फोन पर पूछा तो उनकी अम्मी ने कहा कि 'बेटा सब ठीक हैं, अपना कोई घायल नहीं हुआ हाँ कुछ बंजारने और उनके बच्चे अलबत्ता इस धमाके से अपनी जान गवाँ बैठे हैं।' अम्मी की ये बात इ'शरत के दिल पर छुरी की तरह लगी कि अपना कोई घायल नहीं हुआ तब उनके दिल से आवाज़ आयी तो फिर जो घायल हुए वो किनके हैं। मेरी गुज़ारिश है कि रेख़्ता की साइट पर इस नज़्म को पढ़ें या इशरत आफ़रीन को इसे पढ़ते हुए यू ट्यूब पर देखें और जाने कि लफ्ज़ किस तरह आपके दिल पर असर करते हैं। इसी तरह की एक और अलग विषय पर उनकी नज़्म 'गुलाब और कपास' बार बार पढ़ने लायक है।
इ'शरत आफरीन नब्बे के दशक के शुरुआत में अपने परिवार सहित अमेरिका चली गयीं और अब वहीँ अपने तीन बच्चों के साथ ह्यूस्टन, टेक्सास में रहती हैं। उनकी उर्दू में तीन किताबें 'कुंज पीले फूलों का' 1985 में ,' धूप अपने हिस्से की' 2005 में और 'दिया जलाती शाम' सं 2017 मंज़र-ऐ आम पर आयीं और बहुत चर्चित हुईं। हाल ही में उनकी कुलियात ' ज़र्द पत्तों का बन' भी मंज़र-ऐ-आम पर आयी है। 'उनकी नयी किताब 'परिंदे चहचहाते हैं' जल्द ही मंज़र-ऐ-आम पर आने वाली है।
पूरी दुनिया की उन यूनिवर्सिटीज में जहाँ जहाँ 'जेंडर स्टडीज़' पढाई जाती हैं वहाँ वहाँ इ'शरत साहिबा की नज़्में और ग़ज़लें उनके सिलेबस में शामिल हैं। इशरत साहिबा को दुनिया के कोने में होने वाले सेमिनार, फेस्टिवल्स और मुशायरों में अपना कलाम पढ़ने को बड़े आदर से बुलाया जाता है।
इशरत साहिबा को मिले अवार्ड्स की लिस्ट भी ख़ासी लम्बी है. आखिर में पेश हैं उनकी ग़ज़लों के कुछ और चुनिंदा शेर। .