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मौलाना अबुलकलाम आज़ाद की लिखी हर तहरीर यूँ तो ग़ैर-मा’मूली है, "फ़हम-ओ-तदब्बुर'' का मरहला उनकी निगाह में बहुत ही फैले हुए मा'नों में होता है। इन शब्दों के नैसर्गिक भाव (जमालियात) को जितना मौलाना ने समझा है, हर किसी की पहुँच वहां तक मुम्किन नहीं है। ज़ाहिर है, "फ़हम'' अगर दिमाग की रौशनी है तो... Read More
मौलाना अबुलकलाम आज़ाद की लिखी हर तहरीर यूँ तो ग़ैर-मा’मूली है, "फ़हम-ओ-तदब्बुर'' का मरहला उनकी निगाह में बहुत ही फैले हुए मा'नों में होता है। इन शब्दों के नैसर्गिक भाव (जमालियात) को जितना मौलाना ने समझा है, हर किसी की पहुँच वहां तक मुम्किन नहीं है। ज़ाहिर है, "फ़हम'' अगर दिमाग की रौशनी है तो "तदब्बुर'' से रूह (आत्मा) प्रजोलित होती है। मौलाना की तहरीरों में नफ़्स-ए-मज़मून (विषय वस्तु) को जानने की कोशिश दर-असल ज़ेह्न को ज़्यादा रसा करने की कोशिश है।
मौलाना की तहरीर करदा किताब "तफ़्सीर सूरह-ए-फ़ातिहा" आफ़ाक़ी शोहरत की हामिल किताब है। रॉयल साइज में लिखी ये किताब 382 सफ़्हात पर मुश्तमिल है। पूरी किताब क़ुरआन-ए-पाक की पहली सुरः "अल्हम्द शरीफ़ "की तफ़्सीर पर मबनी है। किताब की तज़ईन-ओ-तरतीब हमीदा बानो और मुबश्शिर अहसन नदवी ने फ़न-ए-तफ़्सीर की तमाम जुज़्यात का ख़याल रखकर किया है। हस्ब-ए-ज़रूरत मुश्किल अल्फ़ाज़ के मा'ने दिए गए हैं।