Hijr Ki Dusri Dawa

Fahmi Badayuni

Rs. 199 Rs. 159

About Book हिज्र की दूसरी दवा' ज़माँ शेर ख़ान उ'र्फ़ पुत्तन ख़ान, फ़हमी बदायूनी की शाइ'री का तीसरा संग्रह है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है| इससे पहले उनकी शा'इरी की दो किताबें 'दस्तकें निगाहों की'और 'पाँचवी सम्त'  प्रकाशित हो चुकी हैं| Title: Hijr ki dusri dawa|हिज्र की दूसरी... Read More

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Hijr Ki Dusri Dawa

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About Book

हिज्र की दूसरी दवा' ज़माँ शेर ख़ान उ'र्फ़ पुत्तन ख़ान, फ़हमी बदायूनी की शाइ'री का तीसरा संग्रह है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है| इससे पहले उनकी शा'इरी की दो किताबें 'दस्तकें निगाहों की'और 'पाँचवी सम्त'  प्रकाशित हो चुकी हैं|

Title: Hijr ki dusri dawa|हिज्र की दूसरी दवा
Author: Fahmi Badaun|फहमी बदौनी

    Description

    About Book

    हिज्र की दूसरी दवा' ज़माँ शेर ख़ान उ'र्फ़ पुत्तन ख़ान, फ़हमी बदायूनी की शाइ'री का तीसरा संग्रह है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है| इससे पहले उनकी शा'इरी की दो किताबें 'दस्तकें निगाहों की'और 'पाँचवी सम्त'  प्रकाशित हो चुकी हैं|

    Title: Hijr ki dusri dawa|हिज्र की दूसरी दवा
    Author: Fahmi Badaun|फहमी बदौनी

      रेख़्ता नुमाइन्दा कलाम हिज्र की दूसरी दवा फ़हमी बदायूनी 1 BOOKS हिज्र की दूसरी दवा फ़हमी बदायूनी BOOKS एक और नया क़दम 'रेख़्ता फ़ाउन्डेशन' का बुनियादी काम, उर्दू शाइ'री के शब्द और अर्थ की ख़ूबसूरती, रंग-रस, संगीत, स्पर्श और ज़ाइक़े को ज़ियादा से ज़ियादा लोगों तक पहुँचाना और उन्हें इसके सम्पर्क में लाना है। इसीलिए 'रेख़्ता' वेबसाइट पर उर्दू शाइ'री को दुरुस्त पाठ और मे'यारी चयन के साथ देवनागरी और रोमन लिपियों में भी पेश किया गया, ताकि उर्दू लिपि न जानने वाले उर्दू दोस्त भी अपनी महबूब शाइ'री के रचना- संसार में दाख़िल हो सकें। यही मक़सद 'रेख़्ता बुक्स' की स्थापना का भी प्रेरणा स्रोत रहा है, जो बुनियादी तौर पर उर्दू शाइ'री और उसके प्रेमियों के दर्मियान किताब का पुल बनाने का प्रकाशन प्रॉजेक्ट है। आगे चलकर इसका दायरा बढ़ाते हुए, दीगर विधाओं, ख़ास तौर पर कथा साहित्य, आत्म-कथाओं, यात्रा-वृत्तांतों वगैरह को भी इस प्रॉजेक्ट का हिस्सा बनाया जाएगा। 'ग़ज़ल उसने छेड़ी' शीर्षक के तहत, अब तक की अहम उर्दू शाइ'री का एक विस्तृत संकलन देवनागरी लिपि में प्रस्तुत करने के बा'द, 'रेख़्ता हर्फ़-ए-ताज़ा सीरीज़' की सूरत में एक और पेशक़दमी की गई जो उर्दू शाइ'री की मौजूदा नई रचनात्मक संभावनाओं को रूनुमाई का मौक़ा' देने पर केंद्रित है। इस सिलसिले को कुछ और फैलाते हुए, अब कल और आज के स्थापित महत्वपूर्ण और प्रतिनिधि शाइ'रों का कलाम इन्तिख़ाब की शक्ल में पेश करने का एक नया सिलसिला हाज़िर है जिसका आग़ाज़ अलग अलग अन्दाज़-ओ-अदा वाले समसामयिक शाइ' रों से किया जा रहा है। और फिर बयाँ अपना शायरी क्या है? कोई और सवाल कीजिए! आप शायरी क्यों करते हैं? रूह की तस्कीन और दिल की ख़ुशी के लिए ! इसके लिए आप क्या अमल करते हैं? कोई तयशुदा अ'मल नहीं है वक़्त, माहौल और हालात पर मुन्हसिर है मसलन? मसलन ये कि 1- जब मैं किसी परिन्दे को क़फ़स से रिहा नहीं करवा सकता तो वो मेरे दिल-ओ-जह्न में फड़फड़ाने लगता है जिससे बड़ी बेचैनी महसूस होती है और वो तब तक ख़त्म नहीं होती जब तक मैं उसे रिहा न कर दूँ, शे'र की शक्ल में । 2- जब मैं किसी की याद में रोना चाहता हूँ और हालात रोने की इजाजत नहीं देते, ख़ुद को उदासी से गुजारा करने के लिए राज़ी कर लेता हूँ, शाइ'री की मदद से । 3- जब मुहीब तन्हाई जान लेवा होने लगती है, और ऐसे में कोई छिपकली नज़र आ जाए, तो मुझे तब तक सुकून नहीं मिलता, जब तक उस छिपकली का जान बचाने के लिए शुक्रिया अदा न कर दूँ, शे'र के जरीए' । ठहरो मेरा ख़याल है कि गुफ़्तुगू तवील होती जा रही है!! जी... ये कभी ख़त्म नहीं होगी, इसी लिए मैंने आपसे कहा था कि कोई दूसरा सवाल कीजिए। फ़हमी बदायूनी 1. 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. 12. 13. 14. 15. 16. 17. 18. 19. 20. फ़ेह्रिस्त बस वही लफ़्ज़ तज्करे में है उसने क्या-क्या नहीं दिया मुझको आप हमें क्या भूल गए हैं नए दरिया से रिश्ता हो गया है कैसे तेवर हैं अब हवा के देख अना बेदार होती जा रही है जीने लगता है ज़िन्दगी के बग़ैर ख़ुदा को भूलना आसान है ये जो वीराने में बैठा हुआ है जो लिखा है वही पढ़ा है अभी क्यों क़फ़स में इधर-उधर देखें उसको इक बार रौशनी में देख तिरी आवाज़ धीमी हो रही है घर में रौज़न नहीं रहा कोई उसकी खिड़की से रौशनी आई ये जो बाहर ख़ुदा से डर रहे हैं यहाँ जाँ पर बनी है यार मेरे हमने खिड़की में जाँ बिठा ली है किसी ने न जब देखा-भाला मुझे उसके दिल में जो बन्द रहता है 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 नहीं आते हैं हम अपनी समझ में बहुत दुश्वार है रस्ता हमारा सहराओं ने माँगा पानी 21. 22. 23. 24. मोहब्बत भी मुसीबत हो गई क्या 25. जिसे बोला था काँटे तोड़ डाले 26. तिरे कूचे में पहरा बढ़ गया है 27. ज़रा मोहतात होना चाहिए था 28. दरारें बाम-ओ-दर की पढ़ रहे हैं 29. हम तो रूठे थे आज़्माने को 30. ये जो बाज़ार में फैले हुए हैं 31. नक़्ली हैं सब ताले ताली 32. हिज्र की मात काटने के लिए 33. कर रहे हैं दवा ख़याल कई 34. वो कहाँ है किताब के अन्दर 35. अपने शजरे दिखा रहे हैं फूल 36. तुम्हें बस ये बताना चा 37. 38. 39. 40. 41. 42. समुन्दर उल्टा-सीधा बोलता है ख़ौफ़ मँझधार से जो खाता है पहले एहसास में उतार उसे मुँह में जब तक जबान बाक़ी है तिरी आमद की लागत बढ़ रही है। एक अगर पैमाना होता 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 ग़ज़ल बस वही लफ़्ज़ तज्करे में वो जो शामिल तिरे पते में ये भी इक वस्फ़' है इ' बादत' का ये मोहब्बत के क़ाफ़िए में है 1 गुण 2 उपासना जब भी चाहूँ मैं देख लेता हूँ वो निगाहों के हाफ़िज़े में है 1 स्मृति वो मजा ख़ुद को देखने में कहाँ जो मज़ा तुझको देखने में है मैं वो जिसे रात भर मनाता हूँ दिवाली मिरे दिए में आपकी बज़्म-ए-नाज़ में आकर जी-हुजूरी बड़े मज़े में है tic उसके पाँव में हिलती है पाज़ेब और खनकती मिरे गले में है 18 उसने क्या-क्या नहीं दिया मुझको चैन फिर भी नहीं मिला मुझको कल शब-ए-हिज्र ' शर्मसार हुई तू नहीं है नहीं लगा मुझको 1 वियोग-रात्रि अब किताबों से कुछ नहीं होगा डालेगा तज्रबा मुझको मार सोचता हूँ कि अब कहाँ जाऊँ तू भी पागल न कर सका मुझको मुझसे आगे नहीं निकल सकता वो नहीं देगा रास्ता मुझको मैं जो बढ़ता हूँ सरवरक़' की तरफ खींच लेता है हाशिया मुझको 1 मुखपृष्ठ मैं छुपा रहता ज़िन्दगी में और तू कहीं और ढूँड मुझको मैं वही शोर लिखता रहता हूँ जिसने ख़ामोश कर दिया मुझको 19 तिरी आमद' की लागत बढ़ रही है। हमारे घर की क़ीमत बढ़ रही है। 1 आगमन बिना कोशिश के वुस्अ'त' बढ़ रही है मेरे शे'रों में हैरत बढ़ रही है 1 फैलाव वो जाते वक़्त मुड़कर देखता है मेरी जानिब मोहब्बत बढ़ रही है पुराने दर्द घटते जा रहे हैं दवाओं की ज़रूरत बढ़ रही है अपाहिज बच्चे पैदा हो रहे हैं मियाँ ख़ुश हैं कि उम्मत' बढ़ रही है 1 अनुयायियों का समुदाय मिरी आँखों में कुछ होने लगा क्या तिरी आँखों में हैरत बढ़ रही है। किसी का आना-जाना घट रहा है। अमानत' में ख़यानत बढ़ रही है 1 धरोहर 2 धरोहर में चोरी करना -ob 58 एक अगर पैमाना होता मयख़ाना मयख़ाना होता घर चाहे वीराना होता उनका आना-जाना होता मैं तो ख़ुद को भूल गया था तुमने तो पहचाना होता आप अगर हुँकारे देते और ही कुछ अफ़साना होता हर लड़की जो लैला होती हर लड़का दीवाना होता दोनों मिलकर हस्ती बुनते इ'श्क़ का ताना-बाना होता काश तुम्हारे पाँव का मोज़ा ‘फ़हमी' का दस्ताना होता olo 59 to t देर से अपने-अपने घेरे लोग बैठे हुए हैं रस्ते में t एक गाहक था वो भी छोड़ गया रखेंगे दुकान अकेले में अब मैंने पिंजरा तो तोड़ फ़ाख़्ता आ गई डाला मगर लपेटे में बीन बजते ही एक और नागिन नाचने लगती है सपेरे उसके क़दमों में डाल पहला फूल जिसने मिट्टी भरी थी गमले में घर में इक आइना भी होता था बस वही ढूँड़ता हूँ मल्बे में बच्चे-बच्चे को कर रहा हूँ सलाम उसके कूचे के पहले फेरे में 114 एक मछली जो रेत पर तड़पी जान-सी पड़ गई मछेरे में यहाँ यूँ ही नहीं पहुँचा हूँ मैं मुसल्सल' रात दिन दौड़ा हूँ मैं 1 निरंतर तेरी ज़न्जीर का हिस्सा हूँ मैं रिहा' हो भी नहीं सकता हूँ मैं 1 मुक्त तुम्हारी ओट में जितना हूँ मैं बस उतना ही नज़र आता हूँ मैं तुम्हारे सामने बैठा यही तो सोच कर ज़िन्दा हूँ मैं JK डराता है ख़ुदा से जब कोई ख़ुदा के पीछे छुप जाता हूँ मैं मुझे परेशाँ धूप करती शिकायत चाँद से करता हूँ मैं बहुत कुछ कहना पड़ता हो जहाँ वहाँ पर कुछ नहीं कहता हूँ मैं मना लेगी उसे मा' लूम अभी सचमुच नहीं रूठा हूँ मैं 115 the #

      Additional Information
      Book Type

      Default title

      Publisher Rekhta Publications
      Language Hindi
      ISBN 978-8194876977
      Pages 160
      Publishing Year 2020

      Hijr Ki Dusri Dawa

      About Book

      हिज्र की दूसरी दवा' ज़माँ शेर ख़ान उ'र्फ़ पुत्तन ख़ान, फ़हमी बदायूनी की शाइ'री का तीसरा संग्रह है जो देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुई है| इससे पहले उनकी शा'इरी की दो किताबें 'दस्तकें निगाहों की'और 'पाँचवी सम्त'  प्रकाशित हो चुकी हैं|

      Title: Hijr ki dusri dawa|हिज्र की दूसरी दवा
      Author: Fahmi Badaun|फहमी बदौनी