Ganje Farishte - Manto

Saadat Hasan Manto

Rs. 199 Rs. 149

About Book उर्दू भाषा के सबसे प्रमुख कहानीकारों में शामिल सआ’दत हसन मंटो ने चन्द ख़ास लोगों के अपने अनुभवों को शब्द-चित्रों के रूप में पेश किया है जो ‘गंजे फ़रिश्ते’ नाम की किताब में प्रकाशित हुए| इस किताब में मंटो ने इनलोगों के साथ अपनी नि:स्वार्थ दोस्ती का बयान... Read More

Reviews

Customer Reviews

Based on 8 reviews
75%
(6)
13%
(1)
0%
(0)
0%
(0)
13%
(1)
A
Adarsh Ahlawat
किताब के बारे में

किताबें काफी अच्छी है ऐसे ही अच्छे-अच्छे किताब पब्लिश करते रहिए आप

बहुत शुक्रिया आपका

a
annu
Ganje Farishte - Manto

"Ganje Farishte - Manto" is a remarkable collection of short stories that leaves a profound impact on the reader. Manto's vivid storytelling and raw portrayal of human emotions make this book a compelling read. Each story captures the essence of societal realities with honesty and depth. The narratives are engaging, thought-provoking, and reflect the complexities of the human condition. This book is a treasure that I am glad to have discovered and added to my collection.

M
Manish Pathak
Ganje Farishtey by S H Manto

A wonderful attempt yet again by the author , into opening the window of Bollywood of the erstwhile era. Being an old fan of Manto sb , I enjoyed reading this book as well. Thanks a lot Rekhta 😊🙏🙏

J
Jayraj singh Jhala

मुझे गंजे फ़रिश्ते पसंद नहीं आई।

r
rahimuddin
गंजे फ़रिश्ते - सआ’दत हसन मंटो

उर्दू भाषा के सबसे प्रमुख कहानीकारों में शामिल सआ’दत हसन मंटो ने चन्द ख़ास लोगों के अपने अनुभवों को शब्द-चित्रों के रूप में पेश किया है जो ‘गंजे फ़रिश्ते’ नाम की किताब में प्रकाशित हुए| इस किताब में मंटो ने इनलोगों के साथ अपनी नि:स्वार्थ दोस्ती का बयान किया है और उनके व्यक्तित्व और स्वभाव के उजले-काले अलग-अलग रूपों को भी सामने लाए हैं| उर्दू में प्रकाशित मूल किताब में ऐसे 13 शब्द-चित्र हैं जिनमें से 6 शब्द-चित्रों का संकलन इस किताब में किया गया है|

readsample_tab

About Book

उर्दू भाषा के सबसे प्रमुख कहानीकारों में शामिल सआ’दत हसन मंटो ने चन्द ख़ास लोगों के अपने अनुभवों को शब्द-चित्रों के रूप में पेश किया है जो ‘गंजे फ़रिश्ते’ नाम की किताब में प्रकाशित हुए| इस किताब में मंटो ने इनलोगों के साथ अपनी नि:स्वार्थ दोस्ती का बयान किया है और उनके व्यक्तित्व और स्वभाव के उजले-काले अलग-अलग रूपों को भी सामने लाए हैं| उर्दू में प्रकाशित मूल किताब में ऐसे 13 शब्द-चित्र हैं जिनमें से 6 शब्द-चित्रों का संकलन इस किताब में किया गया है|

Read Sample Data

फ़ेह्‍‌रिस्त

 

1 तीन गोले

2 इ’स्मत चुग़ताई

3 मुरली की धुन

4 परी-चेहरा नसीम बानू

5 अशोक कुमार

6 नर्गिस

 

1

तीन गोले

 

हसन बिल्डिंग्स  के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे, मैं ग़ौर से उनकी तरफ़ देख रहा था और मीराजी की बातें सुन रहा था। उस शख़्स को पहली बार मैंने यहीं देखा। ग़ालिबन1 सन चालीस था। बंबई छोड़ कर मुझे दिल्ली आए कोई ज़ियादा अर्सा2 नहीं गुज़रा था। मुझे याद नहीं कि वो फ़्लैट नंबर एक वालों का दोस्त था या ऐसे ही चला आया था लेकिन मुझे इतना याद है कि उसने ये कहा था कि उसको रेडियो स्टेशन से पता चला था कि मैं निकल्सन रोड पर सआदत हसन बिल्डिंग्स में रहता हूँ। 

इस मुलाक़ात से क़ब्ल3 मेरे और उसके दर्मियान मामूली सी ख़त--किताबत4 हो चुकी थी। मैं बंबई में था जब उसने अदबी दुनिया5 के लिए मुझसे एक अफ़्साना6 तलब7 किया था। मैंने उसकी ख़्वाहिश8 के मुताबिक़9 अफ़्साना भेज दिया लेकिन साथ ही ये भी लिख दिया कि इसका मुआवज़ा10 मुझे ज़रूर मिलना चाहिए। इसके जवाब में उसने एक ख़त लिखा कि मैं अफ़्साना वापस भेज रहा हूँ इसलिए कि "अदबी दुनिया" के मालिक मुफ़्तख़ोर11 क़िस्म के आदमी हैं। अफ़्साने का नाम "मौसम की शरारत" था। इस पर उसने एतिराज़12 किया था कि इस शरारत का मौज़ू13 से कोई तअल्लुक़ नहीं इसलिए इसे तब्दील कर दिया जाए। मैंने उसके जवाब में उसको लिखा कि मौसम की शरारत ही अफ़्साने का मौज़ू है। मुझे हैरत14 है कि ये तुम्हें क्यों नज़र न आई। मीराजी का दूसरा ख़त आया जिसमें उसने अपनी ग़लती तस्लीम15 कर ली और अपनी हैरत का इज़्हार16 किया कि मौसम की शरारत वो मौसम की शरारत में क्यों देख न सका। 

 

1 लगभग, संभवत: 2 समय, दूरी 3 पूर्व 4 पत्र, कवाहत 5 पत्रिका का नाम 6 कहानी 7 माँगा 8 इच्छा 9 अनुसार 10 पारिश्रमिक 11 मुफ़्त खाने वाला 12 आपत्ति 13 विषय 14 आश्चर्य 15 मान ली 16 व्यक्त करना, प्रदर्शित करना

 

 

मीराजी की लिखाई बहुत साफ़ और वाज़ेह1 थी। मोटे ख़त के निब से निकले हुए बड़े सही नशिस्त2 के हुरूफ़,3 तिकोन की सी आसानी से बने हुए, हर जोड़ नुमायाँ,4 मैं उससे बहुत मुतअस्सिर5 हुआ था लेकिन अ'जीब बात है कि मुझे उसमें मौलाना हामिद अली ख़ाँ मुदीर6 हुमायूँ7 की ख़त्ताती8 की झलक नज़र आई। ये हल्की सी मगर काफ़ी मरई9 मुमासिलत--मुशाबिहत10 अपने अंदर क्या गहराई रखती है इसके  मुतअ’ल्लिक़ मैं अब भी ग़ौर करता हूँ तो मुझे ऐसा कोई शोशा11 या नुक्ता12 सुझाई नहीं देता जिस पर मैं किसी मफ़रुज़े13 की बुनियादें खड़ी कर सकूँ।

हसन बिल्डिंग्स के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे और मीराजी तुम-तड़ंगे और गोल-मटोल शेर कहने वाला शाइर मुझसे बड़े सही क़द--क़ामत14 और बड़ी सही नोक पलक की बातें कर रहा था जो मेरे अफ़्सानों के मुतअल्लिक़ थीं। वो ता'रीफ़ कर रहा था न तन्क़ीस15। एक मुख़्तसर16 सा तब्सिरा17 था। एक सरसरी18 सी तन्क़ीद19 थी मगर उससे पता चलता था कि मीराजी के दिमाग़ में मकड़ी के जाले नहीं। उसकी बातों में उलझाव नहीं था और ये चीज़ मेरे लिए बाइस--हैरत20 थी, इसलिए कि उसकी अक्सर नज़्में इब्हाम21 और उलझाव की वजह से हमेशा मेरी फ़हम22 से बालातर23 रही थीं लेकिन शक्ल--सूरत और वज़ा' क़ता'24 के ए'तिबार से वो बिल्कुल ऐसा ही था जैसा कि उसका बेक़ाफ़िया25 मुब्हम26 कलाम27। उसको देख कर उसकी शाइ'री मेरे लिए और भी पेचीदा28 हो गई। 

 

1 स्पष्ट 2 हालत 3 अक्षर, बहुवचन 4 देखने वाला 5 प्रभवित 6 संपादक 7 पत्रिका का नाम 8 सुलेखकला, विद्या 9 दिखने वाली 10 समानता 11 टुकड़ा 12 बिन्दु 13 परिक्लाना 14 लम्बार्इ-चौड़ार्इ 15 कमी निकालना 16 छोटा 17 समीक्षा 18 कम महत्व रखाने वाली 19 आलोचना 20 आश्चर्य का कारण 21 अस्पष्ट 22 समझ 23 ऊपर 24 पहनावा 25 क़ाफ़िया रहित 26 धुंधलकापूर्ण  27 काथा 28 जटिल

 

 

नून मीम राशिद बे क़ाफ़िया शाइ'री का इमाम माना जाता है। उसको देखने का इत्तिफ़ाक़ भी दिल्ली में हुआ था। उसका कलाम मेरी समझ में आ जाता था और उसको एक नज़र देखने से उसकी शक्ल--सूरत भी मेरी समझ में आ गई। चुनांचे1 एक बार मैंने रेडियो स्टेशन के बरामदे में पड़ी हुई बग़ैर मड्गार्डों की साईकिल देख कर उससे अज़2 राह--मज़ाक़3 कहा था, "लो, ये तुम हो और तुम्हारी शाइ'री।" लेकिन मीराजी को देख कर मेरे ज़ेहन4 में सिवाए उसकी मुब्हम5 नज़्मों के और कोई शक्ल नहीं बनती थी। 

मेरे सामने मेज़ पर तीन गोले पड़े थे। तीन आहनी6 गोले। सिगरेट की पन्नियों में लिपटे हुए। दो बड़े एक छोटा। मैंने मीराजी की तरफ़ देखा। उसकी आँखें चमक रही थीं और उनके ऊपर उसका बड़ा भूरे बालों से अटा हुआ सर... ये भी तीन गोले थे। दो छोटे छोटे, एक बड़ा। मैंने ये मुमासिलत7 महसूस की तो उसका रद्द--'मल8 मेरे होंठों पर मुस्कुराहट में नुमूदार9 हुआ। मीराजी दूसरों का रद्द--अमल ताेड़ने में बड़ा होशियार था। उसने फ़ौरन10 अपनी शुरू'' की हुई बात अधूरी छोड़कर मुझसे पूछा, "क्यों भय्या, किस बात पर मुस्कुराए?" 

मैंने मेज़ पर पड़े हुए उन तीन गोलों की तरफ़ इशारा किया। अब मीराजी की बारी थी। उसके पतले पतले होंट महीन महीन भूरी मूंछों के नीचे गोल गोल अन्दाज़ में मुस्कुराए। 

उसके गले में मोटे-मोटे गोल मनकों की माला थी जिसका सिर्फ़ बालाई11 हिस्सा क़मीज़12 के खुले हुए काॅलर से नज़र आता था... मैंने सोचा। इस इन्सान ने अपनी क्या हैयत13 कुज़ाई14 बना रखी है... लम्बे-लम्बे ग़लीज़15 बाल जो गर्दन से नीचे लटकते थे। फ़्रैंच कट सी दाढ़ी। मैल से भरे हुए नाख़ुन। सर्दियों के दिन थे। ऐसा मा'लूम होता था कि महीनों से उसके बदन ने पानी की शक्ल नहीं देखी। 

 

1 इसलिए, अतः 2 से 3 मज़ाक़ के रूप में 4 मस्तिष्क 5 अस्पष्ट 6 लोहे के 7 समानता 8 प्रतिक्रिया 9 दिखा 10 तुरन्त 11 ऊपरी 12 कुर्ता 13 रूप 14 वैसी ही, वैसा रूप 15 गंदे

 

 

ये उस ज़माने की बात है जब शाइ', अदीब और एडिटर आम तौर पर लॉन्ड्री  में नंगे बैठ कर डबल रेट पर अपने कपड़े धुलवाया करते थे और बड़ी मैली कुचैली ज़िन्दगी बसर करते थे, मैंने सोचा, शायद मीराजी भी उसी क़िस्म का शाइर और एडिटर है लेकिन उसकी ग़लाज़त। उसके लम्बे बाल, उसकी फ़्रैंच कट दाढ़ी। गले की माला और वो तीन आहनी1 गोले... मआशी2 हालात के मज़हर3 मा'लूम नहीं होते थे। उनमें एक दरवेशाना4-पन था। एक क़िस्म की राहबियत5... जब मैंने राहबियत के मुतअल्लिक़ सोचा तो मेरा दिमाग़ रूस के दीवाने राहिब रास्पोतिन की तरफ़ चला गया। मैंने कहीं पढ़ा था कि वो बहुत ग़लाज़त पसंद6 था। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि ग़लाज़त का उसको कोई एहसास ही नहीं था। उसके नाख़ुनों में भी हर वक़्त मैल भरा रहता था। खाना खाने के बाद उसकी उँगलियाँ लिथड़ी होती थीं। जब उसे उनकी सफ़ाई मत्लूब7 होती तो वो अपनी हथेली शहज़ादियों8 और रईस-ज़ादियों9 की तरफ़ बढ़ा देता जो उनकी तमाम आलूदगी10 अपनी ज़बान से चाट लेती थीं। 

क्या मीराजी इसी क़िस्म का दरवेश11 और राहिब था? ये सवाल उस वक़्त और बाद में कई बार मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ, मैं अमृतसर में साईं घोड़े शाह को देख चुका था जो अलिफ़ नंगा12 रहता था और कभी नहाता नहीं था। इसी तरह के और भी कई साईं और दरवेश मेरी नज़र से गुज़र चुके थे जो ग़लाज़त आग के पुतले थे मगर उनसे मुझे घिन आती थी। मीराजी की ग़लाज़त से मुझे नफ़रत कभी नहीं हुई। उलझन अलबत्ता बहुत होती थी। 

घोड़े शाह की क़बील13 के साईं आम तौर पर ब-क़द्र--तौफ़ीक़ मुग़ल्लिज़ात14 बकते हैं मगर मीराजी के मुँह से मैंने कभी कोई ग़लीज़ कलिमा15 न सुना। इस क़िस्म के साईं ब ज़ाहिर मुजर्रिद16 (मुजर्रद) मगर दरपर्दा17 हर क़िस्म के जिन्सी फे़अ18 के मुर्तक़िब19 होते हैं।

 

1 लोहे के 2 आर्थिक 3 अभिव्यक्ति 4 दरवेशों जैसा 5 वह र्इसार्इ पुरुष जो संसारिक दुखों से नितृत्त हो चुका हो उसी से संबंधित 6 गन्दगी-प्रिय 7 मनोनित 8 राजकुमानियाँ 9 धनी युवितयाँ 10 गन्दगी 11 साधू 12 पूरानंगा13 समूह 14 जान बूझकर गन्दी बातें करना 15 वाक्य 16 नंगे 17 पर्दे के पीछे 18 क्रिया 19 पाप करने वाला

 

 

मीराजी भी मुजर्रिद था मगर उसने अपनी जिन्सी तस्कीन के लिए सिर्फ़ अपने दिल--दिमाग़ को अपना शरीक--कार बना लिया था। इस लिहाज़ से गो उसमें और घोड़े शाह की क़बील के साइयों में एक गो ना-मुमासिलत थी मगर वो उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ था। वो तीन गोले था... जिनको लुढ़काने के लिए उसको किसी ख़ारिजी मदद की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। हाथ की ज़रा सी हरकत और तख़य्युल1 की हल्की सी जुम्बिश2 से वो उन तीन जाम3 को ऊँची और ऊँची बुलन्दी और नीची से नीची गहराई की सैर करा सकता था और ये गुर उसकी इन्हीं तीन गोलों ने बताया था जो ग़ालिबन4 उसको कहीं पड़े हुए मिले थे। इन ख़ारिजी5 इशारों ही ने उस पर एक अज़ली6-ओ-अबदी7 हक़ीक़त को मुनकशिफ़8 किया था। हुस्न इ'श्क़ और मौत... इस तस्लीस9 के तमाम अक़लीदसी10 ज़ाविए11 सिर्फ़ उन तीन गोलों की बदौलत12 उसकी समझ में आए थे लेकिन हुस्न और इ'श्क़ के अन्जाम को चूँकि13 उसने शिकस्त ख़ूर्दा14 ऐनक से देखा था। सही नहीं थी। यही वजह है कि उसके सारे वजूद15 में एक नाक़ाबिल16-ए-बयान17 इब्हाम18 का ज़हर फैल गया था। जो एक नुक़्ते19 से शुरू'' हो कर एक दायरे20 में तब्दील हो गया था। इस तौर21 पर कि उसका हर नुक़्ता उसका नुक़्ता-ए-आग़ाज़22 है और वही नुक़्ता-ए-अन्जाम। यही वजह है कि उसका इब्हाम नोकीला नहीं था। उसका रुख़23 मौत की तरफ़ था न ज़िन्दगी की तरफ़। रज़ाइयत24 की सिम्त25, न क़ुनूतियत26 की जानिब27। उसने आग़ाज़28 और अन्जाम को अपनी मुट्ठी में इस ज़ोर से भींच रखा था कि उन दोनों का लहू निचुड़ निचुड़ कर उसमें से टपकता रहता था लेकिन सादियत29 पसंदों की तरह वो उससे मसरूर30 नज़र नहीं आता था। यहाँ फिर उसके जज़्बात गोल हो जाते थे। तीन उन आहनी31 गोलों की तरह, जिनको मैंने पहली मर्तबा हसन बिल्डिंग्ज़ के फ़्लैट नंबर एक में देखा था। 

उसके शे'र का एक मिसरा' है

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया

 

1 कल्पनालोक 2 हिलना 3 शराब का पात्र 4 यक़ीन से 5 बाहरी 6 अनादि एवं अनंत 7 अनन्त 8 खोलना 9 तीन भाग 10 महक 11 कोण 12 के कारण 13 क्योंकि 14 हारा हुआ 15 अस्तित्व 16 जो व्यक्त करने योग्य न हो 17 अभिव्यक्ति 18 अस्पष्टता 19 बिन्दु 20 परिधी 21 इस रूप में 22 आरम्भ का बिन्दु 23 दिशा 24 आशा 25 दिशा 26 ना-उम्मीदी 27 की ओर 28 आरम्भ 29 स्वंय की पीड़ा देने वालों 30 आनंदित 31 लोहे के

Description

About Book

उर्दू भाषा के सबसे प्रमुख कहानीकारों में शामिल सआ’दत हसन मंटो ने चन्द ख़ास लोगों के अपने अनुभवों को शब्द-चित्रों के रूप में पेश किया है जो ‘गंजे फ़रिश्ते’ नाम की किताब में प्रकाशित हुए| इस किताब में मंटो ने इनलोगों के साथ अपनी नि:स्वार्थ दोस्ती का बयान किया है और उनके व्यक्तित्व और स्वभाव के उजले-काले अलग-अलग रूपों को भी सामने लाए हैं| उर्दू में प्रकाशित मूल किताब में ऐसे 13 शब्द-चित्र हैं जिनमें से 6 शब्द-चित्रों का संकलन इस किताब में किया गया है|

Read Sample Data

फ़ेह्‍‌रिस्त

 

1 तीन गोले

2 इ’स्मत चुग़ताई

3 मुरली की धुन

4 परी-चेहरा नसीम बानू

5 अशोक कुमार

6 नर्गिस

 

1

तीन गोले

 

हसन बिल्डिंग्स  के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे, मैं ग़ौर से उनकी तरफ़ देख रहा था और मीराजी की बातें सुन रहा था। उस शख़्स को पहली बार मैंने यहीं देखा। ग़ालिबन1 सन चालीस था। बंबई छोड़ कर मुझे दिल्ली आए कोई ज़ियादा अर्सा2 नहीं गुज़रा था। मुझे याद नहीं कि वो फ़्लैट नंबर एक वालों का दोस्त था या ऐसे ही चला आया था लेकिन मुझे इतना याद है कि उसने ये कहा था कि उसको रेडियो स्टेशन से पता चला था कि मैं निकल्सन रोड पर सआदत हसन बिल्डिंग्स में रहता हूँ। 

इस मुलाक़ात से क़ब्ल3 मेरे और उसके दर्मियान मामूली सी ख़त--किताबत4 हो चुकी थी। मैं बंबई में था जब उसने अदबी दुनिया5 के लिए मुझसे एक अफ़्साना6 तलब7 किया था। मैंने उसकी ख़्वाहिश8 के मुताबिक़9 अफ़्साना भेज दिया लेकिन साथ ही ये भी लिख दिया कि इसका मुआवज़ा10 मुझे ज़रूर मिलना चाहिए। इसके जवाब में उसने एक ख़त लिखा कि मैं अफ़्साना वापस भेज रहा हूँ इसलिए कि "अदबी दुनिया" के मालिक मुफ़्तख़ोर11 क़िस्म के आदमी हैं। अफ़्साने का नाम "मौसम की शरारत" था। इस पर उसने एतिराज़12 किया था कि इस शरारत का मौज़ू13 से कोई तअल्लुक़ नहीं इसलिए इसे तब्दील कर दिया जाए। मैंने उसके जवाब में उसको लिखा कि मौसम की शरारत ही अफ़्साने का मौज़ू है। मुझे हैरत14 है कि ये तुम्हें क्यों नज़र न आई। मीराजी का दूसरा ख़त आया जिसमें उसने अपनी ग़लती तस्लीम15 कर ली और अपनी हैरत का इज़्हार16 किया कि मौसम की शरारत वो मौसम की शरारत में क्यों देख न सका। 

 

1 लगभग, संभवत: 2 समय, दूरी 3 पूर्व 4 पत्र, कवाहत 5 पत्रिका का नाम 6 कहानी 7 माँगा 8 इच्छा 9 अनुसार 10 पारिश्रमिक 11 मुफ़्त खाने वाला 12 आपत्ति 13 विषय 14 आश्चर्य 15 मान ली 16 व्यक्त करना, प्रदर्शित करना

 

 

मीराजी की लिखाई बहुत साफ़ और वाज़ेह1 थी। मोटे ख़त के निब से निकले हुए बड़े सही नशिस्त2 के हुरूफ़,3 तिकोन की सी आसानी से बने हुए, हर जोड़ नुमायाँ,4 मैं उससे बहुत मुतअस्सिर5 हुआ था लेकिन अ'जीब बात है कि मुझे उसमें मौलाना हामिद अली ख़ाँ मुदीर6 हुमायूँ7 की ख़त्ताती8 की झलक नज़र आई। ये हल्की सी मगर काफ़ी मरई9 मुमासिलत--मुशाबिहत10 अपने अंदर क्या गहराई रखती है इसके  मुतअ’ल्लिक़ मैं अब भी ग़ौर करता हूँ तो मुझे ऐसा कोई शोशा11 या नुक्ता12 सुझाई नहीं देता जिस पर मैं किसी मफ़रुज़े13 की बुनियादें खड़ी कर सकूँ।

हसन बिल्डिंग्स के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे और मीराजी तुम-तड़ंगे और गोल-मटोल शेर कहने वाला शाइर मुझसे बड़े सही क़द--क़ामत14 और बड़ी सही नोक पलक की बातें कर रहा था जो मेरे अफ़्सानों के मुतअल्लिक़ थीं। वो ता'रीफ़ कर रहा था न तन्क़ीस15। एक मुख़्तसर16 सा तब्सिरा17 था। एक सरसरी18 सी तन्क़ीद19 थी मगर उससे पता चलता था कि मीराजी के दिमाग़ में मकड़ी के जाले नहीं। उसकी बातों में उलझाव नहीं था और ये चीज़ मेरे लिए बाइस--हैरत20 थी, इसलिए कि उसकी अक्सर नज़्में इब्हाम21 और उलझाव की वजह से हमेशा मेरी फ़हम22 से बालातर23 रही थीं लेकिन शक्ल--सूरत और वज़ा' क़ता'24 के ए'तिबार से वो बिल्कुल ऐसा ही था जैसा कि उसका बेक़ाफ़िया25 मुब्हम26 कलाम27। उसको देख कर उसकी शाइ'री मेरे लिए और भी पेचीदा28 हो गई। 

 

1 स्पष्ट 2 हालत 3 अक्षर, बहुवचन 4 देखने वाला 5 प्रभवित 6 संपादक 7 पत्रिका का नाम 8 सुलेखकला, विद्या 9 दिखने वाली 10 समानता 11 टुकड़ा 12 बिन्दु 13 परिक्लाना 14 लम्बार्इ-चौड़ार्इ 15 कमी निकालना 16 छोटा 17 समीक्षा 18 कम महत्व रखाने वाली 19 आलोचना 20 आश्चर्य का कारण 21 अस्पष्ट 22 समझ 23 ऊपर 24 पहनावा 25 क़ाफ़िया रहित 26 धुंधलकापूर्ण  27 काथा 28 जटिल

 

 

नून मीम राशिद बे क़ाफ़िया शाइ'री का इमाम माना जाता है। उसको देखने का इत्तिफ़ाक़ भी दिल्ली में हुआ था। उसका कलाम मेरी समझ में आ जाता था और उसको एक नज़र देखने से उसकी शक्ल--सूरत भी मेरी समझ में आ गई। चुनांचे1 एक बार मैंने रेडियो स्टेशन के बरामदे में पड़ी हुई बग़ैर मड्गार्डों की साईकिल देख कर उससे अज़2 राह--मज़ाक़3 कहा था, "लो, ये तुम हो और तुम्हारी शाइ'री।" लेकिन मीराजी को देख कर मेरे ज़ेहन4 में सिवाए उसकी मुब्हम5 नज़्मों के और कोई शक्ल नहीं बनती थी। 

मेरे सामने मेज़ पर तीन गोले पड़े थे। तीन आहनी6 गोले। सिगरेट की पन्नियों में लिपटे हुए। दो बड़े एक छोटा। मैंने मीराजी की तरफ़ देखा। उसकी आँखें चमक रही थीं और उनके ऊपर उसका बड़ा भूरे बालों से अटा हुआ सर... ये भी तीन गोले थे। दो छोटे छोटे, एक बड़ा। मैंने ये मुमासिलत7 महसूस की तो उसका रद्द--'मल8 मेरे होंठों पर मुस्कुराहट में नुमूदार9 हुआ। मीराजी दूसरों का रद्द--अमल ताेड़ने में बड़ा होशियार था। उसने फ़ौरन10 अपनी शुरू'' की हुई बात अधूरी छोड़कर मुझसे पूछा, "क्यों भय्या, किस बात पर मुस्कुराए?" 

मैंने मेज़ पर पड़े हुए उन तीन गोलों की तरफ़ इशारा किया। अब मीराजी की बारी थी। उसके पतले पतले होंट महीन महीन भूरी मूंछों के नीचे गोल गोल अन्दाज़ में मुस्कुराए। 

उसके गले में मोटे-मोटे गोल मनकों की माला थी जिसका सिर्फ़ बालाई11 हिस्सा क़मीज़12 के खुले हुए काॅलर से नज़र आता था... मैंने सोचा। इस इन्सान ने अपनी क्या हैयत13 कुज़ाई14 बना रखी है... लम्बे-लम्बे ग़लीज़15 बाल जो गर्दन से नीचे लटकते थे। फ़्रैंच कट सी दाढ़ी। मैल से भरे हुए नाख़ुन। सर्दियों के दिन थे। ऐसा मा'लूम होता था कि महीनों से उसके बदन ने पानी की शक्ल नहीं देखी। 

 

1 इसलिए, अतः 2 से 3 मज़ाक़ के रूप में 4 मस्तिष्क 5 अस्पष्ट 6 लोहे के 7 समानता 8 प्रतिक्रिया 9 दिखा 10 तुरन्त 11 ऊपरी 12 कुर्ता 13 रूप 14 वैसी ही, वैसा रूप 15 गंदे

 

 

ये उस ज़माने की बात है जब शाइ', अदीब और एडिटर आम तौर पर लॉन्ड्री  में नंगे बैठ कर डबल रेट पर अपने कपड़े धुलवाया करते थे और बड़ी मैली कुचैली ज़िन्दगी बसर करते थे, मैंने सोचा, शायद मीराजी भी उसी क़िस्म का शाइर और एडिटर है लेकिन उसकी ग़लाज़त। उसके लम्बे बाल, उसकी फ़्रैंच कट दाढ़ी। गले की माला और वो तीन आहनी1 गोले... मआशी2 हालात के मज़हर3 मा'लूम नहीं होते थे। उनमें एक दरवेशाना4-पन था। एक क़िस्म की राहबियत5... जब मैंने राहबियत के मुतअल्लिक़ सोचा तो मेरा दिमाग़ रूस के दीवाने राहिब रास्पोतिन की तरफ़ चला गया। मैंने कहीं पढ़ा था कि वो बहुत ग़लाज़त पसंद6 था। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि ग़लाज़त का उसको कोई एहसास ही नहीं था। उसके नाख़ुनों में भी हर वक़्त मैल भरा रहता था। खाना खाने के बाद उसकी उँगलियाँ लिथड़ी होती थीं। जब उसे उनकी सफ़ाई मत्लूब7 होती तो वो अपनी हथेली शहज़ादियों8 और रईस-ज़ादियों9 की तरफ़ बढ़ा देता जो उनकी तमाम आलूदगी10 अपनी ज़बान से चाट लेती थीं। 

क्या मीराजी इसी क़िस्म का दरवेश11 और राहिब था? ये सवाल उस वक़्त और बाद में कई बार मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ, मैं अमृतसर में साईं घोड़े शाह को देख चुका था जो अलिफ़ नंगा12 रहता था और कभी नहाता नहीं था। इसी तरह के और भी कई साईं और दरवेश मेरी नज़र से गुज़र चुके थे जो ग़लाज़त आग के पुतले थे मगर उनसे मुझे घिन आती थी। मीराजी की ग़लाज़त से मुझे नफ़रत कभी नहीं हुई। उलझन अलबत्ता बहुत होती थी। 

घोड़े शाह की क़बील13 के साईं आम तौर पर ब-क़द्र--तौफ़ीक़ मुग़ल्लिज़ात14 बकते हैं मगर मीराजी के मुँह से मैंने कभी कोई ग़लीज़ कलिमा15 न सुना। इस क़िस्म के साईं ब ज़ाहिर मुजर्रिद16 (मुजर्रद) मगर दरपर्दा17 हर क़िस्म के जिन्सी फे़अ18 के मुर्तक़िब19 होते हैं।

 

1 लोहे के 2 आर्थिक 3 अभिव्यक्ति 4 दरवेशों जैसा 5 वह र्इसार्इ पुरुष जो संसारिक दुखों से नितृत्त हो चुका हो उसी से संबंधित 6 गन्दगी-प्रिय 7 मनोनित 8 राजकुमानियाँ 9 धनी युवितयाँ 10 गन्दगी 11 साधू 12 पूरानंगा13 समूह 14 जान बूझकर गन्दी बातें करना 15 वाक्य 16 नंगे 17 पर्दे के पीछे 18 क्रिया 19 पाप करने वाला

 

 

मीराजी भी मुजर्रिद था मगर उसने अपनी जिन्सी तस्कीन के लिए सिर्फ़ अपने दिल--दिमाग़ को अपना शरीक--कार बना लिया था। इस लिहाज़ से गो उसमें और घोड़े शाह की क़बील के साइयों में एक गो ना-मुमासिलत थी मगर वो उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ था। वो तीन गोले था... जिनको लुढ़काने के लिए उसको किसी ख़ारिजी मदद की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। हाथ की ज़रा सी हरकत और तख़य्युल1 की हल्की सी जुम्बिश2 से वो उन तीन जाम3 को ऊँची और ऊँची बुलन्दी और नीची से नीची गहराई की सैर करा सकता था और ये गुर उसकी इन्हीं तीन गोलों ने बताया था जो ग़ालिबन4 उसको कहीं पड़े हुए मिले थे। इन ख़ारिजी5 इशारों ही ने उस पर एक अज़ली6-ओ-अबदी7 हक़ीक़त को मुनकशिफ़8 किया था। हुस्न इ'श्क़ और मौत... इस तस्लीस9 के तमाम अक़लीदसी10 ज़ाविए11 सिर्फ़ उन तीन गोलों की बदौलत12 उसकी समझ में आए थे लेकिन हुस्न और इ'श्क़ के अन्जाम को चूँकि13 उसने शिकस्त ख़ूर्दा14 ऐनक से देखा था। सही नहीं थी। यही वजह है कि उसके सारे वजूद15 में एक नाक़ाबिल16-ए-बयान17 इब्हाम18 का ज़हर फैल गया था। जो एक नुक़्ते19 से शुरू'' हो कर एक दायरे20 में तब्दील हो गया था। इस तौर21 पर कि उसका हर नुक़्ता उसका नुक़्ता-ए-आग़ाज़22 है और वही नुक़्ता-ए-अन्जाम। यही वजह है कि उसका इब्हाम नोकीला नहीं था। उसका रुख़23 मौत की तरफ़ था न ज़िन्दगी की तरफ़। रज़ाइयत24 की सिम्त25, न क़ुनूतियत26 की जानिब27। उसने आग़ाज़28 और अन्जाम को अपनी मुट्ठी में इस ज़ोर से भींच रखा था कि उन दोनों का लहू निचुड़ निचुड़ कर उसमें से टपकता रहता था लेकिन सादियत29 पसंदों की तरह वो उससे मसरूर30 नज़र नहीं आता था। यहाँ फिर उसके जज़्बात गोल हो जाते थे। तीन उन आहनी31 गोलों की तरह, जिनको मैंने पहली मर्तबा हसन बिल्डिंग्ज़ के फ़्लैट नंबर एक में देखा था। 

उसके शे'र का एक मिसरा' है

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया

 

1 कल्पनालोक 2 हिलना 3 शराब का पात्र 4 यक़ीन से 5 बाहरी 6 अनादि एवं अनंत 7 अनन्त 8 खोलना 9 तीन भाग 10 महक 11 कोण 12 के कारण 13 क्योंकि 14 हारा हुआ 15 अस्तित्व 16 जो व्यक्त करने योग्य न हो 17 अभिव्यक्ति 18 अस्पष्टता 19 बिन्दु 20 परिधी 21 इस रूप में 22 आरम्भ का बिन्दु 23 दिशा 24 आशा 25 दिशा 26 ना-उम्मीदी 27 की ओर 28 आरम्भ 29 स्वंय की पीड़ा देने वालों 30 आनंदित 31 लोहे के

BOOKS thu सआदत हसन मटो गंजे फ़रिश्ते गंजे फ़रिश्ते सआदत हसन मंटो BOOKS 1. तीन गोले 2. इ'स्मत चुग़ताई 3. मुरली की धुन 4. परी चेहरा नसीम बानू 5. अशोक कुमार 6. नर्गिस फ़ेह्रिस्त 10 27 52 80 102 127 तीन गोले हसन बिल्डिंग्स के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे, मैं ग़ौर से उनकी तरफ़ देख रहा था और मीराजी की बातें सुन रहा था। उस शख़्स को पहली बार मैंने यहीं देखा। ग़ालिबन' सन चालीस था। बंबई छोड़ कर मुझे दिल्ली आए कोई जियादा अ' र्सा' नहीं गुजरा था। मुझे याद नहीं कि वो फ़्लैट नंबर एक वालों का दोस्त था या ऐसे ही चला आया था लेकिन मुझे इतना याद है कि उसने ये कहा था कि उसको रेडियो स्टेशन से पता चला था कि मैं निकल्सन रोड पर सआ'दत हसन बिल्डिंग्स में रहता हूँ । इस मुलाक़ात से क़ब्ल' मेरे और उसके दर्मियान मामूली सी ख़त- ओ-किताबत हो चुकी थी। मैं बंबई में था जब उसने अदबी दुनिया के लिए मुझसे एक अफ़साना' तलब किया था। मैंने उसकी ख़्वाहिश के मुताबिक़' अफ़साना भेज दिया लेकिन साथ ही ये भी लिख दिया कि इसका मुआवजा 1° मुझे जरूर मिलना चाहिए। इसके जवाब में उसने एक ख़त लिखा कि मैं अफ़साना वापस भेज रहा हूँ इसलिए कि "अदबी दुनिया" के मालिक मुफ़्तख़ोर" क़िस्म के आदमी हैं। अफ़साने का नाम "मौसम की शरारत" था। इस पर उसने ए' तिराज 12 किया था कि इस शरारत का मौजू'13 से कोई तअल्लुक़ नहीं इसलिए इसे तब्दील कर दिया जाए। मैंने उसके जवाब में उसको लिखा कि मौसम की शरारत ही अफ़साने का मौजू है। मुझे हैरत" है कि ये तुम्हें क्यों नजर न आई । मीराजी का दूसरा ख़त आया जिसमें उसने अपनी गलती तस्लीम 5 कर ली और अपनी हैरत का इजहार किया कि मौसम की शरारत वो मौसम 1 लगभग, संभवत: 2 समय दूरी 3 पूर्व 4 पत्र कवाहत 5 पत्रिका का नाम 6 कहानी 7 माँगा 8 इच्छा 9 अनुसार 10 पारिश्रमिक 11 मुफ्त खाने वाला 12 आपत्ति 13 विषय 14 आश्चर्य 15 मान ली 16 व्यक्त करना प्रदर्शित करना 10 की शरारत में क्यों देख न सका। मीराजी की लिखाई बहुत साफ़ और वाज़ेह' थी। मोटे ख़त के निब से निकले हुए बड़े सही नशिस्त के हुरूफ़, तिकोन की सी आसानी से बने हुए, हर जोड़ नुमायाँ, मैं उससे बहुत मुतअस्सिर' हुआ था लेकिन अ'जीब बात है कि मुझे उसमें मौलाना हामिद अली ख़ाँ मुदीर' हुमायूँ की ख़त्ताती' की झलक नज़र आई। ये हल्की सी मगर काफ़ी मरई मुमासिलत-ओ-मुशाबिहत अपने अंदर क्या गहराई रखती है इसके मुतअल्लिक़ मैं अब भी गौर करता हूँ तो मुझे ऐसा कोई शोशा" या नुक्ता" सुझाई नहीं देता जिस पर मैं किसी मफ़रुज़े की बुनियादें खड़ी कर सकूँ । हसन बिल्डिंग्स के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे और मीराजी तुम-तड़ंगे और गोल-मटोल शेर कहने वाला शाइ' र मुझसे बड़े सही क़द-ओ-क़ामत 14 और बड़ी सही नोक पलक की बातें कर रहा था जो मेरे अफ़सानों के मुतअल्लिक़ थीं। वो तारीफ़ कर रहा था न तन्क़ीस। एक मुख़्तसर 16 सा तब्सिरा” था। एक सरसरी सी तन्क़ीद 9 थी मगर उससे पता चलता था कि मीराजी के दिमाग़ में मकड़ी के जाले नहीं। उसकी बातों में उलझाव नहीं था और ये चीज़ मेरे लिए बाइस-ए-हैरत ° थी, इसलिए कि उसकी अक्सर नज़्में इब्हाम और उलझाव की वजह से हमेशा मेरी फ़हम” से बालातर 23 रही थीं लेकिन शक्ल-ओ-सूरत और वज़ा' क़ता 24 के एतिबार से वो बिल्कुल ऐसा ही था जैसा कि उसका बेक़ाफ़िया ” मुब्हम ¨ कलाम ” । उसको देख कर उसकी शाइ'री मेरे लिए और भी पेचीदा 28 हो गई। नून मीम राशिद बे क़ाफ़िया शाइरी का इमाम माना जाता है। 1 स्पष्ट 2 3 अक्षर, बहुवचन 4 देखने वाला 5 प्रभावित 6 संपादक 7 पत्रिका का नाम 8 सुलेखकला, विद्या 9 दिखने वाली 10 समानता 11 टुकड़ा 12 बिन्दु 13 परिकाना 14 लम्बाई-चौड़ाई 15 कमी निकालना 16 छोटा 17 समीक्षा 18 कम महत्व रखाने वाली 19 आलोचना 20 आश्चर्य का कारण 21 अस्पष्ट 22 समझ 23 ऊपर 24 पहनावा 25 क्राफ्रिया रहित 26 धुंधलकापूर्ण 27 काथा 28 जटिल 29 नेतृत्वकर्ता 11 देख लिया। एक ज़ोर का नारा उसने बुलंद किया। उसने ड्राईवर से मोटर रोकने के लिए बहुत कहा मगर उसके इस्तिक़बाल के लिए इस क़दर हुजूम था कि ड्राईवर न रुका । मोटर से निकल कर पुलिस की मदद से श्याम और ओम एक ही क़िस्म का लिबास और सर पर सफ़ेद पानामा हैट पहने सिनेमा के अंदर पिछले दरवाज़े से दाख़िल हुए। बड़े दरवाज़े से हम अंदर पहुंचे। श्याम... वही श्याम था। मुस्कुराता, हँसता और क़हक़हे लगाता श्याम । दौड़ कर हम दोनों से लिपट गया । फिर इस क़दर शोर मचा कि हममें से कोई भी मतलब की बात न कर सका। ऊपर तले इतनी बातें हुईं कि अंबार लग गए और हम उनके नीचे दब के रह गए । सिनेमा से फ़ारिग़ हो कर उसे एक फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर के दफ़्तर में जाना था। हमें भी अपने साथ ले गया । यहाँ जो बात भी शुरू होती फ़ौरन कट जाती । लोग धड़ा-धड़ आ रहे थे। नीचे बाज़ार में हुजूम शोर बरपा कर रहा था कि श्याम दर्शन देने के लिए बाहर बालकनी में आए। श्याम की हालत अजीब-ओ-ग़रीब' थी । उसको लाहौर में अपनी मौजूदगी का शदीद॰ एहसास था। उस लाहौर में जिसकी मुतअद्दिद सड़कों पर उसके रूमानों के छींटे बिखरा करते थे। उस लाहौर में जिसका फ़ासला॰ अब अमृतसर से हज़ारों मील हो गया था और उसका रावलपिंडी कहाँ था जहां उसने अपने लड़कपन के दिन गुज़ारे थे? लाहौर, अमृतसर और रावलपिंडी सब अपनी अपनी जगह थे मगर वो दिन नहीं थे। वो रातें नहीं थीं जो श्याम यहाँ छोड़कर गया था। सियासत के गोरकन' ने उन्हें न मालूम कहाँ दफ़न कर दिया था। श्याम ने मुझसे कहा, मेरे साथ साथ रहो मगर उसके दिल-ओ-दिमाग़ की मुज्तरिब ° कैफ़ियत" के एहसास ने मुझे सख़्त परागंदा कर दिया। उससे ये वा'दा करके कि रात को उससे फ्लेटी होटल में मिलूँगा, चला गया। 1 स्वागत 2 भीड़ 3 ढेर 4 विचित्र 5 तीव्र 6 असंख्य 7 प्रेम के 8 दूरी 9 क़ब्र खोदने वाला 10 व्याकुल 11 स्थिति, दशा 12 अस्त-व्यस्त, गन्दा-सन्धा 72 श्याम से इतनी देर के बाद मुलाक़ात हुई थी मगर ख़ुशी के बजाए एक अजीब क़िस्म की घुटी घुटी कोफ़्त मुतअद्दिद महसूस हो रही थी । तबीयत में इस क़दर झुंझलाहट थी कि जी चाहता था किसी से ज़बर- दस्त लड़ाई हो जाये। ख़ूब मार कटाई हो और मैं थक कर सो जाऊं। घुटन का तजजिया' किया तो कहाँ का कहाँ पहुंच गया। एक ऐसी जगह जहां ख़्यालात के सारे धागे बुरी तरह आपस में उलझ गए। इस से तबीयत और भी झुंझला गई और फ्लेटीज़ में जा कर मैंने एक दोस्त के कमरे में पीना शुरू कर दी। नौ साढे नौ के क़रीब शोर सुनने पर मालूम हुआ कि श्याम आ गया है। उसके कमरे में मिलने वालों की वैसी ही भीड़ थी। थोड़ी देर वहां बैठा मगर खुल कर कोई बात न हुई। ऐसा मालूम होता था कि हम दोनों के जज्बात में ताले लगा कर चाबियाँ किसी ने एक बहुत बड़े गुच्छे में पिरो दी थीं। हम दोनों उस गुच्छे में से एक एक चाबी निकाल कर ये ताले खोलने की कोशिश करते और नाकाम रहते थे। मैं उकता गया । डिनर के बाद श्याम ने बड़ी जज्बाती क़िस्म की तक़रीर की मगर मैंने उसका एक लफ़्ज़ तक न सुना। मेरा अपना दिमाग़ बड़े ऊँचे सुरों में जाने क्या बक रहा था। श्याम ने अपनी बकवास ख़त्म की तो लोगों ने भरे पेट के साथ तालियाँ पिटीं, मैं उठ कर कमरे में चला आया। वहां फ़ज़ली बैठे थे। उनसे एक मामूली बात पर चख़ हो गई। शाम आया तो उसने कहा, "ये सब लोग हीरा मंडी जा रहे हैं। चलो आओ तुम भी चलो " मैं क़रीब क़रीब रो दिया, "मैं नहीं जाता। तुम जाओ और तुम्हारे ये लोग जाएँ" "तो मेरा इन्तिज़ार करो... मैं अभी आया ।" ये कह कर श्याम हीरा मंडी जाने वाली पार्टी के साथ चला गया। 1 विश्लेषण 73 साविक वाचा ने बंबई टॉकीज़ की अबतर' हालत का अच्छी तरह जायजा लेने के बाद जब इन्तिज़ाम संभाला तो उसे बहुत सी मुश्किलें दरपेश आईं। ग़ैर जरूरी उन्सुर को जो मज़हब के लिहाज़ से हिंदू था, निकाल बाहर किया तो काफ़ी गड़बड़ हुई मगर जब उसकी जगह पुर की गई, तो मुझे महसूस हुआ कि कलीदी' आसामियाँ सब मुसलमानों के पास हैं। मैं था, शाहिद लतीफ़ था, इस्मत चुग्ताई थी, कमाल अमरोही था, हसरत लखनवी था, नज़ीर अजमेरी, नाज़िम पानीपती और म्यूजिक डायरेक्टर ग़ुलाम हैदर थे । ये सब जमा हुए तो हिंदू कारकुनों में साविक वाचा और अशोक के ख़िलाफ़ नफ़रत के जज़्बात पैदा हो गए। मैंने अशोक से इसका ज़िक्र किया तो हँसने लगा- “मैं वाचा से कह दूँगा कि वो एक डाँट पिला दे।" डाँट पिलाई गई तो इसका असर उल्टा हुआ । वाचा को गुमनाम ख़त मौसूल होने लगे कि अगर उसने अपने स्टूडियो से मुसलमानों को बाहर न निकाला तो उसको आग लगा दी जाएगी ये ख़त वाचा पढ़ता तो आग बगूला हो जाता। “साले मुझसे कहते हैं कि मैं गलती पर हूँ... मैं गलती पर हूँ... मैं ग़लती पर हूँ तो उनके बाबा का क्या जाता है... आग लगाएँ तो मैं उन सबको इसमें झोंक दूँगा । " अशोक का दिल-ओ-दिमाग़ फ़िर्का-वाराना' त'अस्सुब' से बिलकुल पाक है। वो कभी उन ख़ुतूत पर सोच ही नहीं सकता था जिन पर आग लगाने की धमकियाँ देने वाले सोचते थे। वो मुझसे हमेशा कहता । “मंटो ये सब दीवानगी है.... आहिस्ता-आहिस्ता दूर हो जाएगी।" मगर आहिस्ता-आहिस्ता दूर होने के बजाय ये दीवानगी बढ़ती ही चली जा रही थी... और मैं ख़ुद को मुजरिम महसूस कर रहा था, इसलिएकि अशोक और वाचा मेरे दोस्त थे । वो मुझसे मश्वरे लेते थे, 1 अस्त-व्यस्त 2 सामने 3 तत्व 4 महत्वपूर्ण 5 पद 6 कर्मचारियों 7 साम्प्रदायिक 8 पक्षपात 124 इसलिएकि उनको मेरे ख़ुलूस पर भरोसा था लेकिन मेरा ये ख़ुलूस' मेरे अंदर सिकुड़ रहा था... मैं सोचता था, अगर बम्बई टॉकीज़ को कुछ हो गया तो मैं अशोक और वाचा को क्या मुँह दिखाऊँगा । फ़सादात जोरों पर थे । एक दिन मैं और अशोक बंबई टॉकीज़ से वापस आ रहे थे। रास्ते में उसके घर देर तक बैठे रहे। शाम को उसने कहा । चलो मैं तुम्हें छोड़ आऊँ... शॉर्ट कट की ख़ातिर वो मोटर को एक ख़ालिस इस्लामी मोहल्ले में ले गया... सामने से एक बारात आ रही थी। जब मैंने बैंड की आवाज़ सुनी, तो मेरे औसान ख़ता हो गए। एक दम अशोक का हाथ पकड़ कर मैं चिल्लाया- "दादा... मनी। ये तुम किर आ निकले?" अशोक मेरा मत्लब समझ गया । मुस्कुरा कर उसने कहा- “कोई फ़िक्र न करो।” मैं क्योंकर फ़िक्र न करता । मोटर ऐसे इस्लामी मोहल्ले में थी जहाँ किसी हिंदू का गुजर हो ही नहीं सकता था और अशोक को कौन नहीं पहचानता था । कौन नहीं जानता था कि वो हिंदू है... एक बहुत बड़ा हिंदू जिसका क़त्ल मार्का-ख़ेज़ होता... मुझे अरबी ज़बान में कोई दुआ याद नहीं थी। क़ुरआन की कोई मौजूँ-ओ-मुनासिब आयत भी नहीं आती थी। दिल ही में अपने ऊपर लानतें भेज रहा था और धड़कते हुए दिल से अपनी जबान में बेजोड़ सी दुआ माँग रहा था कि ऐ ख़ुदा मुझे सुर्ख़-रु' रखियो... ऐसा न हो कोई मुसलमान अशोक को मार दे और मैं सारी उम्र उसका ख़ून अपनी गर्दन पर महसूस करता रहूँ। ये गर्दन क़ौम की नहीं मेरी अपनी गर्दन थी मगर ये ऐसी जलील हरकत के लिए दूसरी क़ौम के सामने नदामत' की वजह से झुकना नहीं चाहती। जब मोटर बारात के जुलूस के पास पहुँची तो लोगों ने चिल्लाना 1 प्रेम 2 होश 3 उचित 4 सुरक्षित 5 जाति 6 शर्मिंदगी 125

Additional Information
Book Type

Black

Publisher Rekhta Publications
Language Hindi
ISBN 978-9391080013
Pages 168
Publishing Year 2021

Ganje Farishte - Manto

About Book

उर्दू भाषा के सबसे प्रमुख कहानीकारों में शामिल सआ’दत हसन मंटो ने चन्द ख़ास लोगों के अपने अनुभवों को शब्द-चित्रों के रूप में पेश किया है जो ‘गंजे फ़रिश्ते’ नाम की किताब में प्रकाशित हुए| इस किताब में मंटो ने इनलोगों के साथ अपनी नि:स्वार्थ दोस्ती का बयान किया है और उनके व्यक्तित्व और स्वभाव के उजले-काले अलग-अलग रूपों को भी सामने लाए हैं| उर्दू में प्रकाशित मूल किताब में ऐसे 13 शब्द-चित्र हैं जिनमें से 6 शब्द-चित्रों का संकलन इस किताब में किया गया है|

Read Sample Data

फ़ेह्‍‌रिस्त

 

1 तीन गोले

2 इ’स्मत चुग़ताई

3 मुरली की धुन

4 परी-चेहरा नसीम बानू

5 अशोक कुमार

6 नर्गिस

 

1

तीन गोले

 

हसन बिल्डिंग्स  के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे, मैं ग़ौर से उनकी तरफ़ देख रहा था और मीराजी की बातें सुन रहा था। उस शख़्स को पहली बार मैंने यहीं देखा। ग़ालिबन1 सन चालीस था। बंबई छोड़ कर मुझे दिल्ली आए कोई ज़ियादा अर्सा2 नहीं गुज़रा था। मुझे याद नहीं कि वो फ़्लैट नंबर एक वालों का दोस्त था या ऐसे ही चला आया था लेकिन मुझे इतना याद है कि उसने ये कहा था कि उसको रेडियो स्टेशन से पता चला था कि मैं निकल्सन रोड पर सआदत हसन बिल्डिंग्स में रहता हूँ। 

इस मुलाक़ात से क़ब्ल3 मेरे और उसके दर्मियान मामूली सी ख़त--किताबत4 हो चुकी थी। मैं बंबई में था जब उसने अदबी दुनिया5 के लिए मुझसे एक अफ़्साना6 तलब7 किया था। मैंने उसकी ख़्वाहिश8 के मुताबिक़9 अफ़्साना भेज दिया लेकिन साथ ही ये भी लिख दिया कि इसका मुआवज़ा10 मुझे ज़रूर मिलना चाहिए। इसके जवाब में उसने एक ख़त लिखा कि मैं अफ़्साना वापस भेज रहा हूँ इसलिए कि "अदबी दुनिया" के मालिक मुफ़्तख़ोर11 क़िस्म के आदमी हैं। अफ़्साने का नाम "मौसम की शरारत" था। इस पर उसने एतिराज़12 किया था कि इस शरारत का मौज़ू13 से कोई तअल्लुक़ नहीं इसलिए इसे तब्दील कर दिया जाए। मैंने उसके जवाब में उसको लिखा कि मौसम की शरारत ही अफ़्साने का मौज़ू है। मुझे हैरत14 है कि ये तुम्हें क्यों नज़र न आई। मीराजी का दूसरा ख़त आया जिसमें उसने अपनी ग़लती तस्लीम15 कर ली और अपनी हैरत का इज़्हार16 किया कि मौसम की शरारत वो मौसम की शरारत में क्यों देख न सका। 

 

1 लगभग, संभवत: 2 समय, दूरी 3 पूर्व 4 पत्र, कवाहत 5 पत्रिका का नाम 6 कहानी 7 माँगा 8 इच्छा 9 अनुसार 10 पारिश्रमिक 11 मुफ़्त खाने वाला 12 आपत्ति 13 विषय 14 आश्चर्य 15 मान ली 16 व्यक्त करना, प्रदर्शित करना

 

 

मीराजी की लिखाई बहुत साफ़ और वाज़ेह1 थी। मोटे ख़त के निब से निकले हुए बड़े सही नशिस्त2 के हुरूफ़,3 तिकोन की सी आसानी से बने हुए, हर जोड़ नुमायाँ,4 मैं उससे बहुत मुतअस्सिर5 हुआ था लेकिन अ'जीब बात है कि मुझे उसमें मौलाना हामिद अली ख़ाँ मुदीर6 हुमायूँ7 की ख़त्ताती8 की झलक नज़र आई। ये हल्की सी मगर काफ़ी मरई9 मुमासिलत--मुशाबिहत10 अपने अंदर क्या गहराई रखती है इसके  मुतअ’ल्लिक़ मैं अब भी ग़ौर करता हूँ तो मुझे ऐसा कोई शोशा11 या नुक्ता12 सुझाई नहीं देता जिस पर मैं किसी मफ़रुज़े13 की बुनियादें खड़ी कर सकूँ।

हसन बिल्डिंग्स के फ़्लैट नंबर एक में तीन गोले मेरे सामने मेज़ पर पड़े थे और मीराजी तुम-तड़ंगे और गोल-मटोल शेर कहने वाला शाइर मुझसे बड़े सही क़द--क़ामत14 और बड़ी सही नोक पलक की बातें कर रहा था जो मेरे अफ़्सानों के मुतअल्लिक़ थीं। वो ता'रीफ़ कर रहा था न तन्क़ीस15। एक मुख़्तसर16 सा तब्सिरा17 था। एक सरसरी18 सी तन्क़ीद19 थी मगर उससे पता चलता था कि मीराजी के दिमाग़ में मकड़ी के जाले नहीं। उसकी बातों में उलझाव नहीं था और ये चीज़ मेरे लिए बाइस--हैरत20 थी, इसलिए कि उसकी अक्सर नज़्में इब्हाम21 और उलझाव की वजह से हमेशा मेरी फ़हम22 से बालातर23 रही थीं लेकिन शक्ल--सूरत और वज़ा' क़ता'24 के ए'तिबार से वो बिल्कुल ऐसा ही था जैसा कि उसका बेक़ाफ़िया25 मुब्हम26 कलाम27। उसको देख कर उसकी शाइ'री मेरे लिए और भी पेचीदा28 हो गई। 

 

1 स्पष्ट 2 हालत 3 अक्षर, बहुवचन 4 देखने वाला 5 प्रभवित 6 संपादक 7 पत्रिका का नाम 8 सुलेखकला, विद्या 9 दिखने वाली 10 समानता 11 टुकड़ा 12 बिन्दु 13 परिक्लाना 14 लम्बार्इ-चौड़ार्इ 15 कमी निकालना 16 छोटा 17 समीक्षा 18 कम महत्व रखाने वाली 19 आलोचना 20 आश्चर्य का कारण 21 अस्पष्ट 22 समझ 23 ऊपर 24 पहनावा 25 क़ाफ़िया रहित 26 धुंधलकापूर्ण  27 काथा 28 जटिल

 

 

नून मीम राशिद बे क़ाफ़िया शाइ'री का इमाम माना जाता है। उसको देखने का इत्तिफ़ाक़ भी दिल्ली में हुआ था। उसका कलाम मेरी समझ में आ जाता था और उसको एक नज़र देखने से उसकी शक्ल--सूरत भी मेरी समझ में आ गई। चुनांचे1 एक बार मैंने रेडियो स्टेशन के बरामदे में पड़ी हुई बग़ैर मड्गार्डों की साईकिल देख कर उससे अज़2 राह--मज़ाक़3 कहा था, "लो, ये तुम हो और तुम्हारी शाइ'री।" लेकिन मीराजी को देख कर मेरे ज़ेहन4 में सिवाए उसकी मुब्हम5 नज़्मों के और कोई शक्ल नहीं बनती थी। 

मेरे सामने मेज़ पर तीन गोले पड़े थे। तीन आहनी6 गोले। सिगरेट की पन्नियों में लिपटे हुए। दो बड़े एक छोटा। मैंने मीराजी की तरफ़ देखा। उसकी आँखें चमक रही थीं और उनके ऊपर उसका बड़ा भूरे बालों से अटा हुआ सर... ये भी तीन गोले थे। दो छोटे छोटे, एक बड़ा। मैंने ये मुमासिलत7 महसूस की तो उसका रद्द--'मल8 मेरे होंठों पर मुस्कुराहट में नुमूदार9 हुआ। मीराजी दूसरों का रद्द--अमल ताेड़ने में बड़ा होशियार था। उसने फ़ौरन10 अपनी शुरू'' की हुई बात अधूरी छोड़कर मुझसे पूछा, "क्यों भय्या, किस बात पर मुस्कुराए?" 

मैंने मेज़ पर पड़े हुए उन तीन गोलों की तरफ़ इशारा किया। अब मीराजी की बारी थी। उसके पतले पतले होंट महीन महीन भूरी मूंछों के नीचे गोल गोल अन्दाज़ में मुस्कुराए। 

उसके गले में मोटे-मोटे गोल मनकों की माला थी जिसका सिर्फ़ बालाई11 हिस्सा क़मीज़12 के खुले हुए काॅलर से नज़र आता था... मैंने सोचा। इस इन्सान ने अपनी क्या हैयत13 कुज़ाई14 बना रखी है... लम्बे-लम्बे ग़लीज़15 बाल जो गर्दन से नीचे लटकते थे। फ़्रैंच कट सी दाढ़ी। मैल से भरे हुए नाख़ुन। सर्दियों के दिन थे। ऐसा मा'लूम होता था कि महीनों से उसके बदन ने पानी की शक्ल नहीं देखी। 

 

1 इसलिए, अतः 2 से 3 मज़ाक़ के रूप में 4 मस्तिष्क 5 अस्पष्ट 6 लोहे के 7 समानता 8 प्रतिक्रिया 9 दिखा 10 तुरन्त 11 ऊपरी 12 कुर्ता 13 रूप 14 वैसी ही, वैसा रूप 15 गंदे

 

 

ये उस ज़माने की बात है जब शाइ', अदीब और एडिटर आम तौर पर लॉन्ड्री  में नंगे बैठ कर डबल रेट पर अपने कपड़े धुलवाया करते थे और बड़ी मैली कुचैली ज़िन्दगी बसर करते थे, मैंने सोचा, शायद मीराजी भी उसी क़िस्म का शाइर और एडिटर है लेकिन उसकी ग़लाज़त। उसके लम्बे बाल, उसकी फ़्रैंच कट दाढ़ी। गले की माला और वो तीन आहनी1 गोले... मआशी2 हालात के मज़हर3 मा'लूम नहीं होते थे। उनमें एक दरवेशाना4-पन था। एक क़िस्म की राहबियत5... जब मैंने राहबियत के मुतअल्लिक़ सोचा तो मेरा दिमाग़ रूस के दीवाने राहिब रास्पोतिन की तरफ़ चला गया। मैंने कहीं पढ़ा था कि वो बहुत ग़लाज़त पसंद6 था। बल्कि यूँ कहना चाहिए कि ग़लाज़त का उसको कोई एहसास ही नहीं था। उसके नाख़ुनों में भी हर वक़्त मैल भरा रहता था। खाना खाने के बाद उसकी उँगलियाँ लिथड़ी होती थीं। जब उसे उनकी सफ़ाई मत्लूब7 होती तो वो अपनी हथेली शहज़ादियों8 और रईस-ज़ादियों9 की तरफ़ बढ़ा देता जो उनकी तमाम आलूदगी10 अपनी ज़बान से चाट लेती थीं। 

क्या मीराजी इसी क़िस्म का दरवेश11 और राहिब था? ये सवाल उस वक़्त और बाद में कई बार मेरे दिमाग़ में पैदा हुआ, मैं अमृतसर में साईं घोड़े शाह को देख चुका था जो अलिफ़ नंगा12 रहता था और कभी नहाता नहीं था। इसी तरह के और भी कई साईं और दरवेश मेरी नज़र से गुज़र चुके थे जो ग़लाज़त आग के पुतले थे मगर उनसे मुझे घिन आती थी। मीराजी की ग़लाज़त से मुझे नफ़रत कभी नहीं हुई। उलझन अलबत्ता बहुत होती थी। 

घोड़े शाह की क़बील13 के साईं आम तौर पर ब-क़द्र--तौफ़ीक़ मुग़ल्लिज़ात14 बकते हैं मगर मीराजी के मुँह से मैंने कभी कोई ग़लीज़ कलिमा15 न सुना। इस क़िस्म के साईं ब ज़ाहिर मुजर्रिद16 (मुजर्रद) मगर दरपर्दा17 हर क़िस्म के जिन्सी फे़अ18 के मुर्तक़िब19 होते हैं।

 

1 लोहे के 2 आर्थिक 3 अभिव्यक्ति 4 दरवेशों जैसा 5 वह र्इसार्इ पुरुष जो संसारिक दुखों से नितृत्त हो चुका हो उसी से संबंधित 6 गन्दगी-प्रिय 7 मनोनित 8 राजकुमानियाँ 9 धनी युवितयाँ 10 गन्दगी 11 साधू 12 पूरानंगा13 समूह 14 जान बूझकर गन्दी बातें करना 15 वाक्य 16 नंगे 17 पर्दे के पीछे 18 क्रिया 19 पाप करने वाला

 

 

मीराजी भी मुजर्रिद था मगर उसने अपनी जिन्सी तस्कीन के लिए सिर्फ़ अपने दिल--दिमाग़ को अपना शरीक--कार बना लिया था। इस लिहाज़ से गो उसमें और घोड़े शाह की क़बील के साइयों में एक गो ना-मुमासिलत थी मगर वो उनसे बहुत मुख़्तलिफ़ था। वो तीन गोले था... जिनको लुढ़काने के लिए उसको किसी ख़ारिजी मदद की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। हाथ की ज़रा सी हरकत और तख़य्युल1 की हल्की सी जुम्बिश2 से वो उन तीन जाम3 को ऊँची और ऊँची बुलन्दी और नीची से नीची गहराई की सैर करा सकता था और ये गुर उसकी इन्हीं तीन गोलों ने बताया था जो ग़ालिबन4 उसको कहीं पड़े हुए मिले थे। इन ख़ारिजी5 इशारों ही ने उस पर एक अज़ली6-ओ-अबदी7 हक़ीक़त को मुनकशिफ़8 किया था। हुस्न इ'श्क़ और मौत... इस तस्लीस9 के तमाम अक़लीदसी10 ज़ाविए11 सिर्फ़ उन तीन गोलों की बदौलत12 उसकी समझ में आए थे लेकिन हुस्न और इ'श्क़ के अन्जाम को चूँकि13 उसने शिकस्त ख़ूर्दा14 ऐनक से देखा था। सही नहीं थी। यही वजह है कि उसके सारे वजूद15 में एक नाक़ाबिल16-ए-बयान17 इब्हाम18 का ज़हर फैल गया था। जो एक नुक़्ते19 से शुरू'' हो कर एक दायरे20 में तब्दील हो गया था। इस तौर21 पर कि उसका हर नुक़्ता उसका नुक़्ता-ए-आग़ाज़22 है और वही नुक़्ता-ए-अन्जाम। यही वजह है कि उसका इब्हाम नोकीला नहीं था। उसका रुख़23 मौत की तरफ़ था न ज़िन्दगी की तरफ़। रज़ाइयत24 की सिम्त25, न क़ुनूतियत26 की जानिब27। उसने आग़ाज़28 और अन्जाम को अपनी मुट्ठी में इस ज़ोर से भींच रखा था कि उन दोनों का लहू निचुड़ निचुड़ कर उसमें से टपकता रहता था लेकिन सादियत29 पसंदों की तरह वो उससे मसरूर30 नज़र नहीं आता था। यहाँ फिर उसके जज़्बात गोल हो जाते थे। तीन उन आहनी31 गोलों की तरह, जिनको मैंने पहली मर्तबा हसन बिल्डिंग्ज़ के फ़्लैट नंबर एक में देखा था। 

उसके शे'र का एक मिसरा' है

नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया

 

1 कल्पनालोक 2 हिलना 3 शराब का पात्र 4 यक़ीन से 5 बाहरी 6 अनादि एवं अनंत 7 अनन्त 8 खोलना 9 तीन भाग 10 महक 11 कोण 12 के कारण 13 क्योंकि 14 हारा हुआ 15 अस्तित्व 16 जो व्यक्त करने योग्य न हो 17 अभिव्यक्ति 18 अस्पष्टता 19 बिन्दु 20 परिधी 21 इस रूप में 22 आरम्भ का बिन्दु 23 दिशा 24 आशा 25 दिशा 26 ना-उम्मीदी 27 की ओर 28 आरम्भ 29 स्वंय की पीड़ा देने वालों 30 आनंदित 31 लोहे के