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Aakhiri Ishq Sabse Pahle Kiya
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इस किताब में एक ऐसे शाइ’र की शाइ’री है जो शहर के बाज़ारों के बीचो-बीच अपने वजूद के सेहरा में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं। उनकी शाइ’री से ये नुमाया होता है कि उन्होंने वक़्त को अपने जिस्म के चाक पर रखकर उससे अपनी रफ़्तार का हम-रक़्स कर दिया है। वो किसी की मदहोश बाँहों की ख़्वाहिशों के नशे में इ’श्क़ के लामुतनाही सफ़र में अपने हम-अ’सरों से काफ़ी आगे निकल आए हैं और उनकी शाइ’री को इ’श्क़ का सफ़र-नामा भी कहा जा सकता है। उनके सहराई बदन का अहाता इतना वसीअ’ है कि इ’श्क़-ओ-हवस के तमाम ज़ावियों ने इस दश्त में अपना घर कर लिया है। नो’मान शौक़ सुब्ह-ओ-शाम अपने दश्त-ए-बदन में अपने मेहबूब को सोचते और लिखते रहते हैं। Is kitab mein ek aise shai’ra ki shai’ri hai jo shahar ke bazaron ke bicho-bich apne vajud ke sehra mein zindagi guzar rahe hain. Unki shai’ri se ye numaya hota hai ki unhonne vaqt ko apne jism ke chak par rakhkar usse apni raftar ka ham-raqs kar diya hai. Vo kisi ki madhosh banhon ki khvahishon ke nashe mein i’shq ke lamutnahi safar mein apne ham-a’saron se kafi aage nikal aae hain aur unki shai’ri ko i’shq ka safar-nama bhi kaha ja sakta hai. Unke sahrai badan ka ahata itna vasia’ hai ki i’shq-o-havas ke tamam zaviyon ne is dasht mein apna ghar kar liya hai. No’man shauq subh-o-sham apne dasht-e-badan mein apne mehbub ko sochte aur likhte rahte hain.

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फ़ेह्‍‌रिस्त

फ़ेह्रिस्त
1 आठों पहर का ये तिरा मज़दूर आ गया
2 अपनी ख़ातिर ऐ ख़ुदा ये काम कर
3 जिस्म मलबूस का यकलख़्त नया हो जाना
4 गया बेकार आख़िर ये बरस भी
5 सानी नहीं था उसका कोई बांकपन में रात
6 ग़बी हुजूम में कोई भी आज मेरा नहीं
7 इ’श्क़ था वाक़िआ’ बना डाला
8 जिसके आने से हुआ है दफ़्अ’तन पानी शराब
9 क्यों भला आधा-अधूरा इ’श्क़ कीजे
10 इ’श्क़ दिल में कई जहानों का
12 आस्मानों से ज़मीं की तरफ़ आते हुए हम
13 क़ाए’दे बाज़ार के इस बार उल्टे हो गए
14 ऐसे मिले नसीब से सारे ख़ुदा कि बस
15 वो मिट्टी का सितारा है हमारा
16 क्यों उधर ही निकल पड़ा जाए
17 टलने का यूँ फ़क़ीर नहीं है ये इ’श्क़ है
18 शाह-ए-ज़माँ ने भेज दिया रेशमी लिबास
19 था इ’श्क़ या मैं वाक़ई’ बीमार पड़ा था
20 मुझ इ’श्क़ को हवस भरी नज़रें अ’ता करे
21 चश्मा-ए-शारीं अलग सागर अलग
22 ख़ुदा मुआ’फ़ करे ज़िन्दगी बनाते हैं
23 दिन-ब-दिन घटती हुई उ’म्र पे नाज़िल हो जाए
24 भरे हुए हैं अभी रौशनी की दौलत से
25 इन्सानियत के ज़ो’म ने बर्बाद कर दिया
26 सारे चक़माक़-बदन आए थे तय्यारी से
27 मेरी नीयत से जानता था मुझे
28 आग और ख़ूँ के खेल से अब तक भरा न जी
29 तेज़ आँधियों के साथ गुज़ारा हुआ मिरा
30 वो भूला सुब्ह का था घर गया ना
31 कुछ को दुकान कुछ को ख़रीदार कर चुके
32 उसे बताऊँ कि सच बोलना ज़रूरी है
33 जाने किस उम्मीद पर छोड़ आए थे घर-बार लोग
34 वो इक दरिया और उसे हैरानी है
35 देखते रहिए दूर जाते हुए
36 इक चराग़ और उजाले में न रक्खा जाए
37 इक जुनूँ अपना लिबादा हो गया
38 जल्सा नहीं जुलूस नहीं शाइ’री नहीं
39 किसने हमारे शह्र पे मारी है रौशनी
40 सभी को मुस्कुरा कर मार डाला
41 जुनूँ वाले बिल-आख़िर शाहकारों से निकल आए
42 मा’बदों की भीड़ में बुझते ये इन्सानी चराग़
43 ज़मीन हस्ब-ए-ज़रूरत उगाई जाती है
44 झलक भी मिल न पाई ज़िन्दगी की
45 दूसरे नाम से जिया जाए
46 आँखों को आँसुओं की ज़रूरत है आज भी
47 ज़रा सा हो मयस्सर वो जो मुझको
48 जुज़ ख़ुदा और कोई हामी-ओ-नासिर मिल जाए
49 तबाह ख़ुद को, उसे लाज़वाल करते हैं

1

आठों पहर का ये तिरा मज़दूर आ गया

जन्नत के द्वार खोल मिरी हूर आ गया

पैग़म्बरी का दा’वा नहीं आ’शिक़ी का है

पत्थर न मारिए जो सर-ए-तूर1 आ गया

1 एक पहाड़ जहाँ मूसा को ख़ुदा का दीदार हुआ था

सबने सुनी जो रात की ललकार डर गए

सीना था जिसका नूर1 से मा’मूर2 आ गया

1 ज्योति 2 भरा हुआ

आग़ोश1 उसकी ऐसी पुरानी शराब थी

नश्शे में ख़्वाहिशों के बहुत दूर आ गया

1 आलिंगन

बस्ता उठाइए कि ये मक्तब1 नहीं है वो

बस्ती बदल गई नया दस्तूर2 आ गया

1 पाठशाला 2 संविधान

क्या चाहिए ग़ुलाम को बस इक नज़र की भीक

शर्तें तमाम आपकी मन्ज़ूर आ गया


2

अपनी ख़ातिर ऐ ख़ुदा ये काम कर

एक दिन दुनिया को भूल आराम कर

याद है मजनूँ मियाँ मेरा कहा

इ’श्क़ फ़र्मा दश्त में जा नाम कर

ख़ुश रहो कहते हैं जो पहचान उन्हें

दुश्मनों की साज़िशें नाकाम कर

एक रोज़ उसने क़रीब आकर कहा

रौशनी दे लम्स1 की गुलफ़ाम2 कर

1 स्पर्श 2 फूल जैसा जिस्म

क्या लिखा है इन किताबों में न देख

इ’श्क़ सच्चा है तो अपना काम कर

सौ जतन करके उसे राज़ी किया

जिस तरह भी हो मुझे बदनाम कर

ख़त में ख़ुश्बू-ए-हवस थी क्या कहा

ऐसा है तो ख़त का मज़्मूँ1 आ’म कर

1 विषय, मन्तव्य


3

जिस्म मलबूस1 का यकलख़्त2 नया हो जाना

सामने आना तिरा जश्न बपा हो जाना

1 पोशाक 2 अचानक

निस्फ़1 ईमान पे नाचीज़2 टिका है कब से

मान लेता नहीं बन्दे का ख़ुदा हो जाना

1 आधा 2 तुच्छ (अपने लिए अति विनम्रता प्रकट करने वाला शब्द)

देर तक उसने लगाए रखा सीने से मुझे

जिससे सीखा है दरख़्तों ने हरा हो जाना

दुश्मन-ए-जाँ हो अगर ऐसे ख़ुदाओं का हुजूम

हमने सीखा नहीं राज़ी-ब-रज़ा1 हो जाना

1 नत मस्तक हो कर स्वीकार कर लेना

आज सर काट के जन्नत नहीं माँगी तुमने

है बुरी बात नमाज़ों का क़ज़ा1 हो जाना

1 छूट जाना

ऐसे मन्सूबे1 को नाकाम करेंगे हम लोग

इसमें शामिल है अगर तेरा ख़ुदा हो जाना

1 योजना


4

गया बेकार आख़िर ये बरस भी

मोहब्बत भी अधूरी है हवस भी

उसे बस सोचना और लिखते रहना

यहीं तक है हमारी दस्तरस1 भी

1 पहुँच

बड़ा दा’वा है तुझको दिलबरी का

गरजने वाले आ इक दिन बरस भी

दरिन्दों के परिन्दों के मज़े हैं

कभी इन्साँ पे आएगा तरस भी

उसे इक बार बस इक बार मिल लो

तो कम पड़ जाएँ दिल दो चार दस भी


5

सानी1 नहीं था उसका कोई बांकपन में रात

अंगड़ाई ले के जाग उठी थी बदन में रात

1 तुलना योग्य

बेहूदा रौशनी की अज़िय्यत1 थी शह्​र में

सो हमने तय किया कि गुज़ारेंगे बन2 में रात

1 यातना 2 जंगल

कल तुमने हाल भी नहीं पूछा ग़रीब का

किस तर्ह काटनी पड़ी अपने बदन में रात

जिसने सभी को रंग लिया अपने रंग में

सच पूछिए तो ताक़1 है बस एक फ़न2 में रात

1 दक्ष, निपुण 2 कला

औक़ात1 मेह्​र-ओ-माह2 की मा’लूम तब हुई

जब हम गुज़ार आए तिरी अन्जुमन3 में रात

1 हैसियत 2 सूरज और चाँद 2 महफ़िल

चुनता रहा तमाम शब उसके बदन से फूल

ऐसा लगा कि थम सी गई हो चमन में रात


6

ग़बी1 हुजूम2 में कोई भी आज मेरा नहीं

मिरे ख़िलाफ़ है ये एहतिजाज3 मेरा नहीं

1 मूर्ख 2 भीड़ 3 विरोध प्रदर्शन

तमाम नादिर-ओ-चंगेज़ मुझसे दूर रहें

ये तख़्त मेरा नहीं है ये ताज मेरा नहीं

मैं ख़ुद-सरों1 की जमाअ’त2 का शाहज़ादा हूँ

किसी की शान में हरगिज़ ख़िराज3 मेरा नहीं

1 स्वेच्छाचारी, उद्दंड 2 समूह 3 ता’रीफ़, दाद

क़सीदे1 मुझसे न लिखवाओ मैं ग़ज़ल का हूँ

पता तो होगा तुम्हें ये मिज़ाज मेरा नहीं

1 अतिश्योक्तिपूर्ण प्रशंसा

ग़ुलाम-ए-हुस्न हूँ अपनी पनाह1 में ले लो

ख़ुदा-गवाह कोई काम-काज मेरा नहीं

1 शरण

ये साँप रक़्स की तहज़ीब क्या सिखाएँगे

अब इतना ग़ैर-मुहज़्ज़ब समाज मेरा नहीं

ख़ुद अपने सच से परेशान हैं क़लम वाले

किसान चीख़ रहे हैं अनाज मेरा नहीं

कहेगा कौन ये फ़ेह्​रिस्त1 आ’शिक़ों की है

मज़ाक़ है ये कहीं इन्दिराज2 मेरा नहीं

1 सूची 2 उल्लेख

गले में डाल लिया इ’श्क़ नाम का ता’वीज़

तबीब1 हार गए कुछ इ’लाज मेरा नहीं

1 डॉक्टर

तमाम ज़ह्​र उसी की ज़बाँ उगलती है

जो कह रहा है कि साँपों पे राज मेरा नहीं


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